अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥1.38॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मानिवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥1.39॥
यदि-अपि यद्यपि; एते -ये; न -नहीं; पश्यन्ति–देखते हैं; लोभ-लालच; उपहत-अभिभूत; चेतसः-विचार वाले; कुलक्षयकृतम्-अपने संबंधियों का वध करने में; दोषम्-दोष को; मित्रद्रोहे-मित्रों से विश्वासघात करने में; च-भी; पातकम्-पाप; कथम्-क्यों; न-नहीं; ज्ञेयम्-जानना चाहिए; अस्माभिः-हम; पापात्-पापों से; अस्मात्-इन; निवर्तितुम्-दूर रहना; कुलक्षय-वंश का नाश; कृतम्-हो जाने पर; दोषम्-अपराध; प्रपश्यदिभः-जो देख सकता है; जनार्दन -सभी जीवों के पालक, श्रीकृष्ण!
यद्यपि लोभ से अभिभूत विचारधारा के कारण वे अपने स्वजनों के विनाश या प्रतिशोध के कारण और अपने मित्रों के साथ विश्वासघात करने में कोई दोष नही देखते हैं। तथापि हे जनार्दन! जब हमें स्पष्टतः अपने बंधु बान्धवों का वध करने में अपराध दिखाई देता है तब हम ऐसे पापमय कर्म से क्यों न दूर रहें?।। 1.38-1.39 ।।
1.38 यद्यप्येते न पश्यन्ति ৷৷. मित्रद्रोहे च पातकम् – इतना मिल गया , इतना और मिल जाय फिर ऐसा मिलता ही रहे । ऐसे धन , जमीन , मकान , आदर , प्रशंसा , पद , अधिकार आदि की तरफ बढ़ती हुई वृत्ति का नाम लोभ है। इस लोभवृत्ति के कारण इन दुर्योधनादि की विवेक-शक्ति लुप्त हो गयी है जिससे वे यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि जिस राज्य के लिये हम इतना बड़ा पाप करने जा रहे हैं , कुटुम्बियों का नाश करने जा रहे हैं वह राज्य हमारे साथ कितने दिन रहेगा और हम उसके साथ कितने दिन रहेंगे ? हमारे रहते हुए यह राज्य चला जायगा तो हमारी क्या दशा होगी और राज्य के रहते हुए हमारे शरीर चले जायेंगे तो क्या दशा होगी ? क्योंकि मनुष्य संयोग का जितना सुख लेता है उसके वियोग का उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है। संयोग में इतना सुख नहीं होता जितना वियोग में दुःख होता है। तात्पर्य है कि अन्तःकरण में लोभ छा जाने के कारण इनको राज्य ही राज्य दिख रहा है। कुल का नाश करने से कितना भयंकर पाप होगा वह इनको दिख ही नहीं रहा है। जहाँ लड़ाई होती है वहाँ समय , सम्पत्ति , शक्ति का नाश हो जाता है। तरह-तरह की चिन्ताएँ और आपत्तियाँ आ जाती हैं। दो मित्रों में भी आपस में खटपट मच जाती है , मनोमालिन्य हो जाता है। कई तरह का मतभेद हो जाता है। मतभेद होने से वैरभाव हो जाता है। जैसे द्रुपद और द्रोण दोनों बचपन के मित्र थे परन्तु राज्य मिलने से द्रुपद ने एक दिन द्रोण का अपमान करके उस मित्रता को ठुकरा दिया। इससे राजा द्रुपद और द्रोणाचार्य के बीच वैरभाव हो गया। अपने अपमान का बदला लेने के लिये द्रोणाचार्य ने मेरे द्वारा राजा द्रुपद को परास्त कराकर उसका आधा राज्य ले लिया। इस पर द्रुपद ने द्रोणाचार्य का नाश करने के लिये एक यज्ञ कराया जिससे धृष्टद्युम्न और द्रौपदी दोनों पैदा हुए। इस तरह मित्रों के साथ वैरभाव होने से कितना भयंकर पाप होगा – इस तरफ ये देख ही नहीं रहे हैं । विशेष बात – अभी हमारे पास जिन वस्तुओं का अभाव है उन वस्तुओं के बिना भी हमारा काम चल रहा है , हम अच्छी तरह से जी रहे हैं परन्तु जब वे वस्तुएं हमें मिलने के बाद फिर बिछुड़ जाती हैं तब उनके अभाव का बड़ा दुःख होता है। तात्पर्य है कि पहले वस्तुओं का जो निरन्तर अभाव था वह इतना दुःखदायी नहीं था जितना वस्तुओं का संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःखदायी है। ऐसा होने पर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओं का अभाव मानता है उन वस्तुओं को वह लोभ के कारण पाने की चेष्टा करता रहता है। विचार किया जाय तो जिन वस्तुओं का अभी अभाव है बीच में प्रारब्धानुसार उनकी प्राप्ति होने पर भी अन्त में उन का अभाव ही रहेगा। अतः हमारी तो वही अवस्था रही जो कि वस्तुओं के मिलने से पहले थी। बीच में लोभ के कारण उन वस्तुओं को पाने के लिये केवल परिश्रम ही परिश्रम पल्ले पड़ा , दुःख ही दुःख भोगना पड़ा। बीच में वस्तुओं के संयोग से जो थोड़ा सा सुख हुआ है वह तो केवल लोभ के कारण ही हुआ है। अगर भीतर में लोभरूपी दोष न हो तो वस्तुओं के संयोग से सुख हो ही नहीं सकता। ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो तो कुटुम्बियों से सुख हो ही नहीं सकता। लालचरूपी दोष न हो तो संग्रह का सुख हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि संसार का सुख किसी न किसी दोष से ही होता है। कोई भी दोष न होने पर संसार से सुख हो ही नहीं सकता परन्तु लोभ के कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेक-विचार को लुप्त कर देता है – कथं न ज्ञेयमस्माभिः ৷৷৷৷ प्रपश्यद्भिर्जनार्दन । अब अर्जुन अपनी बात कहते हैं कि यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुलक्षय से होने वाले दोष को और मित्र-द्रोह से होने वाले पाप को नहीं देखते तो भी हम लोगों को कुलक्षय से होने वाली अनर्थ परम्परा को देखना ही चाहिये जिसका वर्णन अर्जुन आगे 40वें श्लोक से 44वें श्लोक तक करेंगे क्योंकि हम कुलक्षय से होने वाले दोषों को भी अच्छी तरह से जानते हैं और मित्रों के साथ द्रोह (वैर – द्वैष) से होने वाली पाप को भी अच्छी तरह से जानते हैं। अगर वे मित्र हमें दुःख दें तो वह दुःख हमारे लिये अनिष्टकारक नहीं है। कारण कि दुःख से तो हमारे पूर्वपापों का ही नाश होगा , हमारी शुद्धि ही होगी परन्तु हमारे मन में अगर द्रोह , वैर-भाव होगा तो वह मरने के बाद भी हमारे साथ रहेगा और जन्म-जन्मान्तर तक हमें पाप करने में प्रेरित करता रहेगा जिससे हमारा पतन ही पतन होगा। ऐसे अनर्थ करने वाले और मित्रों के साथ द्रोह पैदा करने वाले इस युद्धरूपी पाप से बचने का विचार क्यों नहीं करना चाहिये ? अर्थात् विचार करके हमें इस पाप से जरूर ही बचना चाहिये। यहाँ अर्जुन की दृष्टि दुर्योधन आदि के लोभ की तरफ तो जा रही है पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह (मोह ) में आबद्ध होकर बोल रहे हैं इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्य को नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्य की दृष्टि जब तक दूसरों के दोष की तरफ रहती है तब तक उसको अपना दोष नहीं दिखता उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है पर हमारे में यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्था में वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारे में भी कोई दूसरा दोष हो सकता है । दूसरा दोष यदि न भी हो तो भी दूसरों का दोष देखना यह दोष तो है ही। दूसरों का दोष देखना एवं अपने में अच्छाई का अभिमान करना ये दोनों दोष साथ में ही रहते हैं। अर्जुन को भी दुर्योधन आदि में दोष दिख रहे हैं और अपने में अच्छाई का अभिमान हो रहा है (अच्छाई के अभिमान की छाया में मात्र दोष रहते हैं) इसलिये उनको अपने में मोहरूपी दोष नहीं दिख रहा है। कुल का क्षय करने से होने वाले जिन दोषों को हम जानते हैं वे दोष कौन से हैं ? उन दोषों की परम्परा आगे के पाँच श्लोकों में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी
1.39 यद्यप्येते न पश्यन्ति ৷৷. मित्रद्रोहे च पातकम् – इतना मिल गया , इतना और मिल जाय फिर ऐसा मिलता ही रहे । ऐसे धन , जमीन , मकान , आदर , प्रशंसा , पद , अधिकार आदि की तरफ बढ़ती हुई वृत्ति का नाम लोभ है। इस लोभवृत्ति के कारण इन दुर्योधनादि की विवेक-शक्ति लुप्त हो गयी है जिससे वे यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि जिस राज्य के लिये हम इतना बड़ा पाप करने जा रहे हैं , कुटुम्बियों का नाश करने जा रहे हैं वह राज्य हमारे साथ कितने दिन रहेगा और हम उसके साथ कितने दिन रहेंगे ? हमारे रहते हुए यह राज्य चला जायगा तो हमारी क्या दशा होगी और राज्य के रहते हुए हमारे शरीर चले जायेंगे तो क्या दशा होगी ? क्योंकि मनुष्य संयोग का जितना सुख लेता है उसके वियोग का उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है। संयोग में इतना सुख नहीं होता जितना वियोग में दुःख होता है। तात्पर्य है कि अन्तःकरण में लोभ छा जाने के कारण इनको राज्य ही राज्य दिख रहा है। कुल का नाश करने से कितना भयंकर पाप होगा वह इनको दिख ही नहीं रहा है। जहाँ लड़ाई होती है वहाँ समय , सम्पत्ति , शक्ति का नाश हो जाता है। तरह-तरह की चिन्ताएँ और आपत्तियाँ आ जाती हैं। दो मित्रों में भी आपस में खटपट मच जाती है , मनोमालिन्य हो जाता है। कई तरह का मतभेद हो जाता है। मतभेद होने से वैरभाव हो जाता है। जैसे द्रुपद और द्रोण दोनों बचपन के मित्र थे परन्तु राज्य मिलने से द्रुपद ने एक दिन द्रोण का अपमान करके उस मित्रता को ठुकरा दिया। इससे राजा द्रुपद और द्रोणाचार्य के बीच वैरभाव हो गया। अपने अपमान का बदला लेने के लिये द्रोणाचार्य ने मेरे द्वारा राजा द्रुपद को परास्त कराकर उसका आधा राज्य ले लिया। इस पर द्रुपद ने द्रोणाचार्य का नाश करने के लिये एक यज्ञ कराया जिससे धृष्टद्युम्न और द्रौपदी दोनों पैदा हुए। इस तरह मित्रों के साथ वैरभाव होने से कितना भयंकर पाप होगा – इस तरफ ये देख ही नहीं रहे हैं । विशेष बात – अभी हमारे पास जिन वस्तुओं का अभाव है उन वस्तुओं के बिना भी हमारा काम चल रहा है , हम अच्छी तरह से जी रहे हैं परन्तु जब वे वस्तुएं हमें मिलने के बाद फिर बिछुड़ जाती हैं तब उनके अभाव का बड़ा दुःख होता है। तात्पर्य है कि पहले वस्तुओं का जो निरन्तर अभाव था वह इतना दुःखदायी नहीं था जितना वस्तुओं का संयोग होकर फिर उनसे वियोग होना दुःखदायी है। ऐसा होने पर भी मनुष्य अपने पास जिन वस्तुओं का अभाव मानता है उन वस्तुओं को वह लोभ के कारण पाने की चेष्टा करता रहता है। विचार किया जाय तो जिन वस्तुओं का अभी अभाव है बीच में प्रारब्धानुसार उनकी प्राप्ति होने पर भी अन्त में उन का अभाव ही रहेगा। अतः हमारी तो वही अवस्था रही जो कि वस्तुओं के मिलने से पहले थी। बीच में लोभ के कारण उन वस्तुओं को पाने के लिये केवल परिश्रम ही परिश्रम पल्ले पड़ा , दुःख ही दुःख भोगना पड़ा। बीच में वस्तुओं के संयोग से जो थोड़ा सा सुख हुआ है वह तो केवल लोभ के कारण ही हुआ है। अगर भीतर में लोभरूपी दोष न हो तो वस्तुओं के संयोग से सुख हो ही नहीं सकता। ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो तो कुटुम्बियों से सुख हो ही नहीं सकता। लालचरूपी दोष न हो तो संग्रह का सुख हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि संसार का सुख किसी न किसी दोष से ही होता है। कोई भी दोष न होने पर संसार से सुख हो ही नहीं सकता परन्तु लोभ के कारण मनुष्य ऐसा विचार कर ही नहीं सकता। यह लोभ उसके विवेक-विचार को लुप्त कर देता है – कथं न ज्ञेयमस्माभिः ৷৷৷৷ प्रपश्यद्भिर्जनार्दन । अब अर्जुन अपनी बात कहते हैं कि यद्यपि दुर्योधनादि अपने कुलक्षय से होने वाले दोष को और मित्र-द्रोह से होने वाले पाप को नहीं देखते तो भी हम लोगों को कुलक्षय से होने वाली अनर्थ परम्परा को देखना ही चाहिये जिसका वर्णन अर्जुन आगे 40वें श्लोक से 44वें श्लोक तक करेंगे क्योंकि हम कुलक्षय से होने वाले दोषों को भी अच्छी तरह से जानते हैं और मित्रों के साथ द्रोह (वैर – द्वैष) से होने वाली पाप को भी अच्छी तरह से जानते हैं। अगर वे मित्र हमें दुःख दें तो वह दुःख हमारे लिये अनिष्टकारक नहीं है। कारण कि दुःख से तो हमारे पूर्वपापों का ही नाश होगा , हमारी शुद्धि ही होगी परन्तु हमारे मन में अगर द्रोह , वैर-भाव होगा तो वह मरने के बाद भी हमारे साथ रहेगा और जन्म-जन्मान्तर तक हमें पाप करने में प्रेरित करता रहेगा जिससे हमारा पतन ही पतन होगा। ऐसे अनर्थ करने वाले और मित्रों के साथ द्रोह पैदा करने वाले इस युद्धरूपी पाप से बचने का विचार क्यों नहीं करना चाहिये ? अर्थात् विचार करके हमें इस पाप से जरूर ही बचना चाहिये। यहाँ अर्जुन की दृष्टि दुर्योधन आदि के लोभ की तरफ तो जा रही है पर वे खुद कौटुम्बिक स्नेह (मोह ) में आबद्ध होकर बोल रहे हैं इस तरफ उनकी दृष्टि नहीं जा रही है। इस कारण वे अपने कर्तव्य को नहीं समझ रहे हैं। यह नियम है कि मनुष्य की दृष्टि जब तक दूसरों के दोष की तरफ रहती है तब तक उसको अपना दोष नहीं दिखता उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है पर हमारे में यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्था में वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारे में भी कोई दूसरा दोष हो सकता है । दूसरा दोष यदि न भी हो तो भी दूसरों का दोष देखना यह दोष तो है ही। दूसरों का दोष देखना एवं अपने में अच्छाई का अभिमान करना ये दोनों दोष साथ में ही रहते हैं। अर्जुन को भी दुर्योधन आदि में दोष दिख रहे हैं और अपने में अच्छाई का अभिमान हो रहा है (अच्छाई के अभिमान की छाया में मात्र दोष रहते हैं) इसलिये उनको अपने में मोहरूपी दोष नहीं दिख रहा है। कुल का क्षय करने से होने वाले जिन दोषों को हम जानते हैं वे दोष कौन से हैं ? उन दोषों की परम्परा आगे के पाँच श्लोकों में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी