अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्
अर्जुन उवाच।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥1.28॥
कृपया-करुणा से; परया – अत्यधिक; आविष्ट:-अभिभूत; विषीदन्–गहन शोक प्रकट करता हुआ; इदम्-इस प्रकार; अब्रवीत् -बोला। अर्जुन:-उवाच-अर्जुन ने कहा; दृष्ट्वा-देख कर; इमम्- इन सबको; स्वजनम्- वंशजों को; कृष्ण-कृष्ण; युयुत्सुम-युद्ध लड़ने की इच्छा रखने वाले; समुपस्थितम्- उपस्थित;
अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को उपस्थित देखकर।। 1.28।।
‘कृपयाविष्टः’ इससे सिद्ध होता है कि यह कायरता पहले नहीं थी बल्कि अभी आयी है। अतः यह आगन्तुक दोष है। आगन्तुक होने से यह ठहरेगी नहीं परन्तु शूरवीरता अर्जुन में स्वाभाविक है । अतः वह तो रहेगी ही। अत्यन्त कायरता क्या है ? बिना किसी कारण निन्दा , तिरस्कार , अपमान करने वाले , दुःख देने वाले , वैरभाव रखने वाले , नाश करने की चेष्टा करने वाले दुर्योधन, दुःशासन , शकुनि आदि को अपने सामने युद्ध करने के लिये खड़े देखकर भी उनको मारने का विचार न होना , उनका नाश करने का उद्योग न करना यह अत्यन्त कायरतारूप दोष है। यहाँ अर्जुन को कायरतारूप दोष ने ऐसा घेर लिया है कि जो अर्जुन आदि का अनिष्ट चाहने वाले और समय-समय पर अनिष्ट करने का उद्योग करने वाले हैं उन अधर्मियों , पापियों पर भी अर्जुन को करुणा आ रही है (गीता 1। 35 46) और वे क्षत्रिय के कर्तव्यरूप अपने धर्म से च्युत हो रहे हैं। ‘विषीदन्निदमब्रवीत् ‘ – युद्ध के परिणाम में कुटुम्ब की , कुल की , देश की क्या दशा होगी ? इसको लेकर अर्जुन बहुत दुःखी हो रहे हैं और उस अवस्था में वे ये वचन बोलते हैं जिसका वर्णन आगे के श्लोकों में किया गया है ।
‘दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्’ – अर्जुन को ‘कृष्ण’ नाम बहुत प्रिय था। यह सम्बोधन गीता में नौ बार आया है। भगवान श्रीकृष्ण के लिये दूसरा कोई सम्बोधन इतनी बार नहीं आया है। ऐसे ही भगवान को अर्जुन का ‘पार्थ’ नाम बहुत प्यारा था। इसलिये भगवान और अर्जुन आपस की बोलचाल में ये नाम लिया करते थे और यह बात लोगों में भी प्रसिद्ध थी। इसी दृष्टि से सञ्जय ने गीता के अन्त में कृष्ण और पार्थ नाम का उल्लेख किया है – यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः (18। 78)। धृतराष्ट्र ने पहले ‘समवेता युयुत्सवः’ कहा था और यहाँ अर्जुन ने भी ‘युयुत्सुं समुपस्थितम्’ कहा है परन्तु दोनों की दृष्टियों में बड़ा अन्तर है। धृतराष्ट्र की दृष्टि में तो दुर्योधन आदि मेरे पुत्र हैं और युधिष्ठिर आदि पाण्डु के पुत्र हैं – ऐसा भेद है । अतः धृतराष्ट्र ने वहाँ ‘मामकाः’ और ‘पाण्डवाः’ कहा है परन्तु अर्जुन की दृष्टि में यह भेद नहीं है । अतः अर्जुन ने यहाँ ‘स्वजनम्’ कहा है जिसमें दोनों पक्ष के लोग आ जाते हैं। तात्पर्य है कि धृतराष्ट्र को तो युद्ध में अपने पुत्रों के मरने की आशंका से भय है , शोक है परन्तु अर्जुन को दोनों ओर के कुटुम्बियों के मरने की आशंका से शोक हो रहा है कि किसी भी तरफ का कोई भी मरे पर वह है तो हमारा ही कुटुम्बी। अब तक ‘दृष्ट्वा’ पद तीन बार आया है – दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम् (1। 2) व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् (1। 20) और यहाँ ‘दृष्ट्वेमं स्वजनम्’ (1। 28)। इन तीनों का तात्पर्य है कि दुर्योधन का देखना तो एक तरह का ही रहा अर्थात् दुर्योधन का तो युद्ध का ही एक भाव रहा परन्तु अर्जुन का देखना दो तरह का हुआ। पहले तो अर्जुन धृतराष्ट्र के पुत्रों को देख कर वीरता में आकर युद्ध के लिये धनुष उठा कर खड़े हो जाते हैं और अब स्वजनों को देखकर कायरता से आविष्ट हो रहे हैं , युद्ध से उपरत हो रहे हैं और उनके हाथ से धनुष गिर रहा है। सीदन्ति मम गात्राणि ৷৷. भ्रमतीव च मे मनः – अर्जुन के मन में युद्ध के भावी परिणाम को लेकर चिन्ता हो रही है , दुःख हो रहा है। उस चिन्ता , दुःख का असर अर्जुन के सारे शरीर पर पड़ रहा है। उसी असर को अर्जुन स्पष्ट शब्दों में कह रहे हैं कि मेरे शरीर का हाथ , पैर , मुख आदि एक-एक अङ्ग (अवयव) शिथिल हो रहा है मुख सूखता जा रहा है। जिससे बोलना भी कठिन हो रहा है , सारा शरीर थरथर काँप रहा है , शरीर के सभी रोंगटे खड़े हो रहे हैं अर्थात् सारा शरीर रोमाञ्चित हो रहा है जिस गाण्डीव धनुष की प्रत्यञ्चा की टङ्कार से शत्रु भयभीत हो जाते हैं वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथ से गिर रहा है , त्वचा में , सारे शरीर में जलन हो रही है (टिप्पणी प0 22.1) । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरे को क्या करना चाहिये ? यह भी नहीं सूझ रहा है । यहाँ युद्धभूमि में रथ पर खड़े रहने में भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ । ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा । ऐसे अनर्थकारक युद्ध में खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है। पूर्वश्लोक में अपने शरीर के शोकजनित आठ चिह्नों का वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणाम के सूचक शकुनों की दृष्टि से युद्ध करने का अनौचित्य बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी