अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
20-27 अर्जुन का सैन्य परिक्षण, गाण्डीव की विशेषता
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।। 1.20।।
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥1.21॥
अथ- तत्पश्चात; व्यवस्थितान्-सुव्यवस्थित; दृष्टा-देखकर; धार्तराष्ट्रान्–धृतराष्ट्र के पुत्रों को; कपिधवजः-वानर चित्र अंकित; प्रवृत्ते-उद्यत; शस्त्रसम्पाते-शास्त्र चलाने के लिए; धनुः-धनुष; उद्यम्य-ग्रहण करके, पाण्डवः-पाण्डुपुत्र अर्जुन; हृषीकेशम्-भगवान् कृष्ण से; तदा-उस समय; वाक्यम् वचन; इदम्- ये; आह-कहे; महीपते-हे राजा; अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; सेनयोः-सेनाएं; उभयोः-दोनों; मध्ये–बीच; रथम्-रथ; स्थापय-खड़ा करें; मे–मेरे; अच्युत-श्रीकृष्ण;
हे राजन्! इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से यह वचन कहा- हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए॥1.20-1.21॥
1.20 ‘अथ ‘ इस पद का तात्पर्य है कि अब सञ्जय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवादरूप भगवद्गीता का आरम्भ करते हैं। 18वें अध्याय के 74वें श्लोक में आये ‘इति’ पद से यह संवाद समाप्त होता है। ऐसे ही भगवद्गीता के उपदेश का आरम्भ उसके दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से होता है और 18वें अध्याय के 66वें श्लोक में यह उपदेश समाप्त होता है। प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते – यद्यपि पितामह भीष्म ने युद्धारम्भ की घोषणा के लिये शंख नहीं बजाया था बल्कि केवल दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिये ही शंख बजाया था तथापि कौरव और पाण्डवसेना ने उसको युद्धारम्भ की घोषणा ही मान लिया और अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र हाथ में उठाकर तैयार हो गये। इस तरह सेना को शस्त्र उठाये देख कर वीरता में भरकर अर्जुन ने भी अपना गाण्डीव धनुष हाथ में उठा लिया। ‘व्यवस्थितान् धार्तराष्ट्रान् दृष्ट्वा’ – इन पदों से सञ्जय का तात्पर्य है कि जब आपके पुत्र दुर्योधन ने पाण्डवों की सेना को देखा तब वह भागा-भागा द्रोणाचार्य के पास गया परन्तु जब अर्जुन ने कौरवों की सेना को देखा तब उनका हाथ सीधे गाण्डीव धनुष पर ही गया – ‘धनुरुद्यम्य।’ इससे मालूम होता है दुर्योधन के भीतर भय है और अर्जुन के भीतर निर्भयता है , उत्साह है , वीरता है। कपिध्वजः – अर्जुन के लिये कपिध्वज विशेषण देकर सञ्जय धृतराष्ट्र को अर्जुन के रथ की ध्वजा पर विराजमान हनुमान जी का स्मरण कराते हैं। जब पाण्डव वन में रहते थे तब एक दिन अकस्मात् वायु ने एक दिव्य सहस्रदल कमल लाकर द्रौपदी के सामने डाल दिया। उसे देखकर द्रौपदी बहुत प्रसन्न हो गयी और उसने भीमसेन से कहा कि वीरवर आप ऐसे बहुत से कमल ला दीजिये। द्रौपदी की इच्छा पूर्ण करने के लिये भीमसेन वहाँ से चल पड़े। जब वे कदली वन में पहुँचे तब वहाँ उनकी हनुमान जी से भेंट हो गयी। उन दोनों की आपस में कई बातें हुईं। अन्त में हनुमान जी ने भीमसेन से वरदान माँगने के लिये आग्रह किया तो भीमसेन ने कहा कि मेरे पर आपकी कृपा बनी रहे। इस पर हनुमान जी ने कहा हे वायुपुत्र ! जिस समय तुम बाण और शक्ति के आघात से व्याकुल शत्रुओं की सेना में घुसकर सिंहनाद करोगे , उस समय मैं अपनी गर्जना से उस सिंहनाद को और बढ़ा दूँगा। इसके सिवाय अर्जुन के रथ की ध्वजा पर बैठकर मैं ऐसी भयंकर गर्जना किया करूँगा जो शत्रुओं के प्राणों को हरने वाली होगी जिससे तुम लोग अपने शत्रुओं को सुगमता से मार सकोगे (टिप्पणी प0 17) । इस प्रकार जिनके रथ की ध्वजा पर हनुमान जी विराजमान हैं उनकी विजय निश्चित है। पाण्डवः- धृतराष्ट्र ने अपने प्रश्न में ‘पाण्डवाः’ पद का प्रयोग किया था। अतः धृतराष्ट्र को बार-बार पाण्डवों की याद दिलाने के लिये सञ्जय (1। 14 में और यहाँ) ‘पाण्डवः’ शब्द का प्रयोग करते हैं। हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते – पाण्डवसेना को देखकर दुर्योधन तो गुरु द्रोणाचार्य के पास जाकर चालाकी से भरे हुए वचन बोलता है परन्तु अर्जुन कौरवसेना को देखकर जो जगदगुरु हैं , अन्तर्यामी हैं , मन-बुद्धि आदि के प्रेरक हैं – ऐसे भगवान श्रीकृष्ण से शूरवीरता , उत्साह और अपने कर्तव्य से भरे हुए (आगे कहे जाने वाले ) वचन बोलते हैं – स्वामी रामसुखदास जी
1.21 अच्युत सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय – दोनों सेनाएँ जहाँ युद्ध करने के लिये एक-दूसरे के सामने खड़ी थीं वहाँ उन दोनों सेनाओं में इतनी दूरी थी कि एक सेना दूसरी सेना पर बाण आदि मार सके। उन दोनों सेनाओं का मध्यभाग दो तरफ से मध्य था (1) सेनाएँ जितनी चौड़ी खड़ी थीं उस चौड़ाई का मध्यभाग और (2) दोनों सेनाओं का मध्यभाग जहाँ से कौरवसेना जितनी दूरी पर खड़ी थी उतनी ही दूरी पर पाण्डवसेना खड़ी थी। ऐसे मध्यभाग में रथ खड़ा करने के लिये अर्जुन भगवान से कहते हैं जिससे दोनों सेनाओं को आसानी से देखा जा सके। ‘सेनयोरुभयोर्मध्ये’ पद गीता में तीन बार आया है यहाँ (1। 21 में) इसी अध्याय के 24वें श्लोक में और दूसरे अध्याय के 10वें श्लोक में तीन बार आने का तात्पर्य है कि पहले अर्जुन शूरवीरता के साथ अपने रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करने की आज्ञा देते हैं (1। 21) फिर भगवान दोनों सेनाओं के बीच में रथ को खड़ा करके कुरुवंशियों को देखने के लिये कहते हैं (1। 24) और अन्त में दोनों सेनाओं के बीच में ही विषादमग्न अर्जुन को गीता का उपदेश देते हैं (2। 10)। इस प्रकार पहले अर्जुन में शूरवीरता थी , बीच में कुटुम्बियों को देखने से मोह के कारण उनकी युद्ध से उपरति हो गयी और अन्त में उनको भगवान से गीता का महान उपदेश प्राप्त हुआ जिससे उनका मोह दूर हो गया। इससे यह भाव निकलता है कि मनुष्य जहाँ कहीं और जिस किसी परिस्थिति में स्थित है वहीं रहकर वह प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करके निष्काम हो सकता है और वहीं उसको परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। कारण कि परमात्मा सम्पूर्ण परिस्थितियों में सदा एकरूप से रहते हैं। यावदेतान्निरीक्षेऽहं ৷৷. रणसमुद्यमे – दोनों सेनाओं के बीच में रथ कब तक खड़ा करें ? इस पर अर्जुन कहते हैं कि युद्ध की इच्छा को लेकर कौरवसेना में आये हुए सेनासहित जितने भी राजालोग खड़े हैं उन सबको जब तक मैं देख न लूँ तब तक आप रथ को वहीं खड़ा रखिये। इस युद्ध के उद्योग में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना है ? उनमें कौन मेरे समान बलवाले हैं ? कौन मेरे से कम बलवाले हैं ? और कौन मेरे से अधिक बलवाले हैं ? उन सबको मैं जरा देख लूँ। यहाँ ‘योद्धुकामान्’ पद से अर्जुन कह रहे हैं कि हमने तो सन्धि की बात ही सोची थी पर उन्होंने सन्धि की बात स्वीकार नहीं की क्योंकि उनके मन में युद्ध करने की ज्यादा इच्छा है। अतः उनको मैं देखूँ कि कितने बल को लेकर वे युद्ध करने की इच्छा रखते हैं – स्वामी रामसुखदास जी