अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
20-27 अर्जुन का सैन्य परिक्षण, गाण्डीव की विशेषता
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेयुद्धे प्रियचिकीर्षवः ॥1.23॥
योत्स्यमानान्–युद्ध करने के लिए आए योद्धाओं को; अवेक्षे-अहम्- मैं देखना चाहता हूँ; ये-जो; एते-वे; अत्र-यहाँ; समागता:-एकत्र; धार्तराष्ट्रस्य-धृतराष्ट्र के पुत्र; दुर्बुद्धेः-हीन मानसिकता वाले; युद्धे- युद्ध में; प्रिय-चिकीर्षवः-प्रसन्न करने वाले।
मैं उन लोगों को देखने का इच्छुक हूँ जो यहाँ पर धृतराष्ट्र के दुश्चरित्र पुत्रों को प्रसन्न करने की इच्छा से युद्ध लड़ने के लिए एकत्रित हुए हैं।।1.23।।
‘धार्तराष्ट्र (टिप्पणी प0 18) दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः’ – यहाँ दुर्योधन को दुष्ट-बुद्धि कह कर अर्जुन यह बताना चाहते हैं कि इस दुर्योधन ने हमारा नाश करने के लिये आज तक कई तरह के षड्यन्त्र रचे हैं। हमें अपमानित करने के लिये कई तरह के उद्योग किये हैं। नियम के अनुसार और न्यायपूर्वक हम आधे राज्य के अधिकारी हैं पर उसको भी यह हड़पना चाहता है , देना नहीं चाहता। ऐसी तो इसकी दुष्टबुद्धि है और यहाँ आये हुए राजालोग युद्ध में इसका प्रिय करना चाहते हैं । वास्तव में तो मित्रों का यह कर्तव्य होता है कि वे ऐसा काम करें , ऐसी बात बतायें जिससे अपने मित्र का लोक-परलोक में हित हो परन्तु ये राजा लोग दुर्योधन की दुष्टबुद्धि को शुद्ध न करके उलटे उसको बढ़ाना चाहते हैं और दुर्योधन से युद्ध करा कर युद्ध में उसकी सहायता कर के उसका पतन ही करना चाहते हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधन का हित किस बात में है ? उसको राज्य भी किस बात से मिलेगा और उसका परलोक भी किस बात से सुधरेगा ?इन बातों का वे विचार ही नहीं कर रहे हैं। अगर ये राजा लोग उसको यह सलाह देते कि भाई कम से कम आधा राज्य तुम रखो और पाण्डवों का आधा राज्य पाण्डवों को दे दो तो इससे दुर्योधन का आधा राज्य भी रहता और उसका परलोक भी सुधरता।योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः – इन युद्ध के लिये उतावले होने वालों को जरा देख तो लूँ। इन्होंने अधर्म का , अन्याय का पक्ष लिया है । इसलिये ये हमारे सामने टिक नहीं सकेंगे , नष्ट हो जायँगे। ‘योत्स्यमानान्’ कहने का तात्पर्य है कि इनके मन में युद्ध की ज्यादा आ रही है । अतः देखूँ तो सही कि ये हैं कौन ? अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान ने क्या किया ? इसको सञ्जय आगे के दो श्लोकों में कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी