अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चै व परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥1.30॥
गाण्डीवम्-अर्जुन का धनुष; स्रंसते-सरक रहा है; हस्तात्-हाथ से; त्वक्-त्वचा; च-भी; एव–वास्तव में; परिदह्यते-सब ओर जल रही है। न-नही; च-भी; शक्नोमि-समर्थ हूँ; अवस्थातुम्- स्थिर खड़े होने में; भ्रमतीव-झूलता हुआ; च-और; मे–मेरा; मनः-मन;
हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ॥1.30॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चै व परिदह्यते – जिस गाण्डीव धनुष की प्रत्यञ्चा की टङ्कार से शत्रु भयभीत हो जाते हैं वही गाण्डीव धनुष आज मेरे हाथ से गिर रहा है , त्वचा में , सारे शरीर में जलन हो रही है (टिप्पणी प0 22.1) । मेरा मन भ्रमित हो रहा है अर्थात् मेरे को क्या करना चाहिये ? यह भी नहीं सूझ रहा है । यहाँ युद्धभूमि में रथ पर खड़े रहने में भी मैं असमर्थ हो रहा हूँ । ऐसा लगता है कि मैं मूर्च्छित होकर गिर पड़ूँगा । ऐसे अनर्थकारक युद्ध में खड़ा रहना भी एक पाप मालूम दे रहा है। पूर्वश्लोक में अपने शरीर के शोकजनित आठ चिह्नों का वर्णन करके अब अर्जुन भावी परिणाम के सूचक शकुनों की दृष्टिसे युद्ध करनेका अनौचित्य बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी