अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥1.31॥
निमित्तानि-अशुभ लक्षण; च-भी; पश्यामि-देखता हूँ; विपरीतानि – दुर्भाग्य; केशव – हे केशी असुर को मारने वाले, श्रीकृष्ण; न-न तो; च-भी; श्रेयः-कल्याण; अनुपश्यामि-पहले से देख रहा हूँ; हत्वा-वध करना; स्वजनम् -सगे संबंधी को; आहवे -यद्ध में।
हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥1.31॥
‘निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव’ – हे केशव ! मैं शकुनों को (टिप्पणी प0 22.2) भी विपरीत ही देख रहा हूँ। तात्पर्य है कि किसी भी कार्य के आरम्भ में मन में जितना अधिक उत्साह (हर्ष) होता है वह उत्साह उस कार्य को उतना ही सिद्ध करने वाला होता है परन्तु अगर कार्य के आरम्भ में ही उत्साह भङ्ग हो जाता है । मन में संकल्प-विकल्प ठीक नहीं होते तो उस कार्य का परिणाम अच्छा नहीं होता। इसी भाव से अर्जुन कह रहे हैं कि अभी मेरे शरीर में अवयवों का शिथिल होना , कम्प होना , मुख का सूखना आदि जो लक्षण हो रहे हैं ये व्यक्तिगत शकुन भी ठीक नहीं हो रहे हैं (टिप्पणी प0 22.3) इसके आलावा आकाश से उल्कापात होना , असमय में ग्रहण लगना ,भूकम्प होना , पशु-पक्षियों का भयंकर बोली बोलना ,चन्द्रमा के काले चिह्न का मिट सा जाना , बादलों से रक्त की वर्षा होना आदि जो पहले शकुन हुए हैं , वे भी ठीक नहीं हुए हैं। इस तरह अभी के और पहले के इन दोनों शकुनों की ओर देखता हूँ तो मेरे को ये दोनों ही शकुन विपरीत अर्थात् भावी अनिष्ट के सूचक दिखते हैं। ‘न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे’ – युद्ध में अपने कुटुम्बियों को मारने से हमें कोई लाभ होगा – ऐसी बात भी नहीं है। इस युद्ध के परिणाम में हमारे लिये लोक और परलोक दोनों ही हितकारक नहीं दिखते। कारण कि जो अपने कुल का नाश करता है वह अत्यन्त पापी होता है। अतः कुल का नाश करने से हमें पाप ही लगेगा जिससे नरकों की प्राप्ति होगी। इस श्लोक में ‘निमित्तानि पश्यामि’ और ‘श्रेयः अनुपश्यामि’ (टिप्पणी प0 23) इन दोनों वाक्यों से अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि मैं शुकुनों को देखूँ अथवा स्वयं विचार करूँ । दोनों ही रीति से युद्ध का आरम्भ और उसका परिणाम हमारे लिये और संसारमात्र के लिये हितकारक नहीं दिखता। जिसमें न तो शुभ शकुन दिखते हैं और न श्रेय ही दिखता है – ऐसी अनिष्टकारक विजय को प्राप्त करने की अनिच्छा अर्जुन आगे के श्लोक में प्रकट करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी