अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेनवा ॥1.32॥
न- न तो; काक्ष्ये -इच्छा करता हूँ; विजयं-विजय; कृष्ण-कृष्ण; न -न ही; च-उसी प्रकार से; राज्यम-राज्य; सुखानि-सुख; च-भी; किम्-क्या; राज्येन-राज्य द्वारा; गोविन्द-श्रीकृष्ण, जो इन्द्रियों को सुख प्रदान करते हैं और जो गायों से प्रेम करते हैं; भोगैः-सुख; जीवितेन-जीवन; वा-अथवा;
हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?॥1.32॥
‘ न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च’ – मान लें कि युद्ध में हमारी विजय हो जाय तो विजय होने से पूरी पृथ्वी पर हमारा राज्य हो जायगा , अधिकार हो जायगा। पृथ्वी का राज्य मिलने से हमें अनेक प्रकार के सुख मिलेंगे परन्तु इनमें से मैं कुछ भी नहीं चाहता अर्थात् मेरे मन में विजय , राज्य एवं सुखों की कामना नहीं है। ‘किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा’ – जब हमारे मन में किसी प्रकार की (विजय , राज्य और सुख की) कामना ही नहीं है तो फिर कितना ही बड़ा राज्य क्यों न मिल जाय पर उससे हमें क्या लाभ ? कितने ही सुन्दर-सुन्दर भोग मिल जायँ पर उनसे हमें क्या लाभ ? अथवा कुटुम्बियों को मारकर हम राज्य के सुख भोगते हुए कितने ही वर्ष जीते रहें पर उससे भी हमें क्या लाभ ? तात्पर्य है कि ये विजय , राज्य और भोग तभी सुख दे सकते हैं जब भीतर में इनकी कामना हो , प्रियता हो , महत्त्व हो परन्तु हमारे भीतर तो इनकी कामना ही नहीं है। अतः ये हमें क्या सुख दे सकते हैं ? इन कुटुम्बियों को मारकर हमारी जीने की इच्छा नहीं है क्योंकि जब हमारे कुटुम्बी मर जायँगे तब ये राज्य और भोग किसके काम आयेंगे ? राज्य , भोग आदि तो कुटुम्ब के लिये होते हैं पर जब ये ही मर जायँगे तब इनको कौन भोगेगा ? भोगने की बात तो दूर रही उलटे हमें और अधिक चिन्ता , शोक होंगे। अर्जुन विजय आदि क्यों नहीं चाहते ? इसका कारण आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी