अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥1.36॥
निहत्य-मारकर; धार्तराष्ट्रान्-धृतराष्ट्र के पुत्रों को; नः-हमारी; का -क्या; प्रीतिः-सुख; स्यात्-होगी; जनार्दन- हे जीवों के पालक, श्रीकृष्ण। पापम्-पाप; एव-निश्चय ही; आश्रयेत्-लगेगा; अस्मान्–हमें; हत्वा-मारकर; एतान्–इन सबको; आततायिन:-आततायियों को;
हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा॥1.36॥
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः ৷৷. हत्वैतानाततायिनः – धृतराष्ट्र के पुत्र और उनके सहयोगी दूसरे जितने भी सैनिक हैं उनको मारकर विजय प्राप्त करनेसे हमें क्या प्रसन्नता होगी ? अगर हम क्रोध अथवा लोभ के वेग में आकर इनको मार भी दें तो उनका वेग शान्त होने पर हमें रोना ही पड़ेगा अर्थात् क्रोध और लोभ में आकर हम क्या अनर्थ कर बैठे ऐसा पश्चत्ताप ही करना पड़ेगा। कुटुम्बियों की याद आने पर उनका अभाव बार-बार खटकेगा। चित्त में उनकी मृत्यु का शोक सताता रहेगा। ऐसी स्थिति में हमें कभी प्रसन्नता हो सकती है क्या ? तात्पर्य है कि इनको मारने से हम इस लोक में जब तक जीते रहेंगे तब तक हमारे चित्त में कभी प्रसन्नता नहीं होगी और इनको मारने से हमें जो पाप लगेगा वह परलोक में हमें भयंकर दुःख देने वाला होगा। आततायी छः प्रकारके होते हैं – आग लगाने वाला , विष देने वाला , हाथ में शस्त्र लेकर मारने को तैयार हुआ , धन को हरने वाला , जमीन (राज्य) छीनने वाला और स्त्री का हरण करने वाला (टिप्पणी प0 25) । दुर्योधन आदि में ये छहों ही लक्षण घटते थे। उन्होंने पाण्डवों को लाक्षागृह में आग लगाकर मारना चाहा था। भीमसेन को जहर खिलाकर जल में फेंक दिया था। हाथ में शस्त्र लेकर वे पाण्डवों को मारने के लिये तैयार थे ही। द्यूतक्रीड़ा में छल-कपट करके उन्होंने पाण्डवों का धन और राज्य हर लिया था। द्रौपदी को भरी सभा में लाकर दुर्योधन ने ‘मैंने तेरे को जीत लिया है , तू मेरी दासी हो गयी है’ आदि शब्दों से बड़ा अपमान किया था और दुर्योधन आदि की प्रेरणा से जयद्रथ द्रौपदी को हरकर ले गया था। शास्त्रों के वचनों के अनुसार आततायी को मारने से मारने वाले को कुछ भी दोष (पाप) नहीं लगता – ‘नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन’ (मनुस्मृति 8। 351) परन्तु आततायी को मारना उचित होते हुए भी मारने की क्रिया अच्छी नहीं है। शास्त्र भी कहता है कि मनुष्य को कभी किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिये – न हिंस्यात्सर्वा भूतानि’ । हिंसा न करना परम धर्म है -अहिंसा परमो धर्मः (टिप्पणी प0 26) । अतः क्रोध-लोभ के वशीभूत होकर कुटुम्बियों की हिंसा का कार्य हम क्यों करें ? आततायी होने से ये दुर्योधन आदि मारने के लायक हैं ही परन्तु अपने कुटुम्बी होने से इनको मारने से हमें पाप ही लगेगा क्योंकि शास्त्रोंमें कहा गया है कि जो अपने कुल का नाश करता है वह अत्यन्त पापी होता है – स एव पापिष्ठतमो यः कुर्यात्कुलनाशनम्। अतः जो आततायी अपने खास कुटुम्बी हैं उन्हें कैसे मारा जाय ? उनसे अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लेना , उनसे अलग हो जाना तो ठीक है पर उन्हें मारना ठीक नहीं है। जैसे अपना बेटा ही आततायी हो जाय तो उससे अपना सम्बन्ध हटाया जा सकता है पर उसे मारा थोड़े ही जा सकता है । पूर्वश्लोक में युद्ध का दुष्परिणाम बताकर अब अर्जुन युद्ध करने का निर्णय सर्वथा अनौचित्य बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी