अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥1.42॥
सड्करः-अवांछित बच्चे; नरकाय- नारकीय; एव-निश्चय ही; कुलघ्नानां–कुल का विनाश करने वालों के; कुलस्य–कुल के; च-भी; पतन्ति–गिर जाते हैं; पतिर:-पितृगण; हि-निश्चय ही; एषाम्-उनके; लुप्त-समाप्त; पिण्ड उदक क्रियाः-पिण्डदान एवं तर्पण की क्रिया।
अवांछित सन्तानों की वृद्धि के परिणामस्वरूप निश्चय ही परिवार और पारिवारिक परम्परा का विनाश करने वालों का जीवन नारकीय बन जाता है। जल तथा पिण्डदान की क्रियाओं से वंचित हो जाने के कारण ऐसे पतित कुलों के पित्तरों का भी पतन हो जाता है।।1.42।।
‘सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ‘ – वर्ण मिश्रण से पैदा हुए वर्णसंकर (सन्तान ) में धार्मिक बुद्धि नहीं होती। वह मर्यादाओं का पालन नहीं करता क्योंकि वह खुद बिना मर्यादा से पैदा हुआ है। इसलिये उसके खुद के कुलधर्म न होने से वह उनका पालन नहीं करता बल्कि कुलधर्म अर्थात् कुलमर्यादा से विरुद्ध आचरण करता है। जिन्होंने युद्ध में अपने कुल का संहार कर दिया है उनको कुलघाती कहते हैं। वर्णसंकर ऐसे कुलघातियों को नरकों में ले जाता है। केवल कुलघातियों को ही नहीं बल्कि कुल-परम्परा नष्ट होने से सम्पूर्ण कुल को भी वह नरकों में ले जाता है। ‘पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः’ – जिन्होंने अपने कुल का नाश कर दिया है – ऐसे इन कुलघातियों के पितरों को वर्ण-संकर के द्वारा पिण्ड और पानी (श्राद्ध और तर्पण) न मिलने से उन पितरों का पतन हो जाता है। कारण कि जब पितरों को पिण्ड पानी मिलता रहता है तब वे उस पुण्य के प्रभाव से ऊँचे लोकों में रहते हैं परन्तु जब उनको पिण्ड-पानी मिलना बन्द हो जाता है तब उनका वहाँ से पतन हो जाता है अर्थात् उनकी स्थिति उन लोकों में नहीं रहती। पितरों को पिण्ड-पानी न मिलने में कारण यह है कि वर्णसंकर की पूर्वजों के प्रति आदरबुद्धि नहीं होती। इस कारण उनमें पितरों के लिये श्राद्धतर्पण करने की भावना ही नहीं होती। अगर लोक लिहाज में आकर वे श्राद्धतर्पण करते भी हैं तो भी शास्त्रविधिके अनुसार उनका श्राद्ध तर्पण में अधिकार न होने से वह पिण्डपानी पितरों को मिलता ही नहीं। इस तरह जब पितरों को आदरबुद्धि से और शास्त्रविधि के अनुसार पिण्ड-जल नहीं मिलता तब उनका अपने स्थान से पतन हो जाता है – स्वामी रामसुखदास जी