अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
01-11 दोनों सेनाओं के प्रधान शूरवीरों और अन्य महान वीरों का वर्णन
.
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥1.10॥
अपर्याप्तम्-असीमित; तत्-वह; अस्माकम्-हमारी; बलम्-शक्ति; भीष्म-भीष्म पितामह के नेतृत्व में; अभिरक्षितम्-पूर्णतः सुरक्षित; पर्याप्तम्-सीमित; तु-लेकिन; इदम्-यह; एतेषाम्-उनकी; बलम्-शक्ति; भीम-भीम की देख रेख में; अभिरक्षितम् -पूर्णतया सुरक्षित।
हमारी शक्ति असीमित है और हम सब महान सेना नायक भीष्म पितामह के नेतृत्व में पूरी तरह से संरक्षित हैं जबकि पाण्डवों की सेना की शक्ति भीम द्वारा भलीभाँति रक्षित होने के पश्चात भी सीमित है।। 1.10 ।।
‘अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्’ – अधर्म अन्याय के कारण दुर्योधन के मन में भय होने से वह अपनी सेना के विषय में सोचता है कि हमारी सेना बड़ी होने पर भी अर्थात् पाण्डवों की अपेक्षा चार अक्षौहिणी अधिक होने पर भी पाण्डवों पर विजय प्राप्त करने में है तो असमर्थ ही। कारण कि हमारी सेना में मतभेद है। उसमें इतनी एकता (संगठन) , निर्भयता , निःसंकोचता नहीं है जितनी कि पाण्डवों की सेना में है। हमारी सेना के मुख्य संरक्षक पितामह भीष्म उभय-पक्षपाती हैं अर्थात् उनके भीतर कौरव और पाण्डव दोनों सेनाओं का पक्ष है। वे कृष्ण के बड़े भक्त हैं। उनके हृदय में युधिष्ठिर का बड़ा आदर है। अर्जुन पर भी उनका बड़ा स्नेह है। इसलिये वे हमारे पक्ष में रहते हुए भी भीतर से पाण्डवों का भला चाहते हैं। वे ही भीष्म हमारी सेना के मुख्य सेनापति हैं। ऐसी दशा में हमारी सेना पाण्डवों के मुकाबले में कैसे समर्थ हो सकती है ? नहीं हो सकती। ‘पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्’ परन्तु यह जो पाण्डवों की सेना है यह हमारे पर विजय करने में समर्थ है। कारण कि इनकी सेना में मतभेद नहीं है बल्कि सभी एकमत होकर संगठित हैं। इनकी सेना का संरक्षक बलवान भीमसेन है जो कि बचपन से ही मेरे को हराता आया है। यह अकेला ही मेरे सहित सौ भाइयों को मारने की प्रतिज्ञा कर चुका है अर्थात् यह हमारा नाश करने पर तुला हुआ है । इसका शरीर वज्र के समान मजबूत है। इसको मैंने जहर पिलाया था तो भी यह मरा नहीं। ऐसा यह भीमसेन पाण्डवों की सेना का संरक्षक है इसलिये यह सेना वास्तव में समर्थ है , पूर्ण है। यहाँ एक शङ्का हो सकती है कि दुर्योधन ने अपनी सेना के संरक्षक के लिये भीष्मजी का नाम लिया जो कि सेनापति के पद पर नियुक्त हैं परन्तु पाण्डव सेना के संरक्षक के लिये भीमसेन का नाम लिया जो कि सेनापति नहीं हैं। इसका समाधान यह है कि दुर्योधन इस समय सेनापतियों की बात नहीं सोच रहा है किन्तु दोनों सेनाओं की शक्ति के विषय में सोच रहा है कि किस सेना की शक्ति अधिक है ? दुर्योधन पर आरम्भ से ही भीमसेनकी शक्ति का , बलवत्ता का अधिक प्रभाव पड़ा हुआ है। अतः वह पाण्डव सेना के संरक्षक के लिये भीमसेन का ही नाम लेता है। विशेष बात – अर्जुन कौरव सेना को देखकर किसी के पास न जाकर हाथ में धनुष उठाते हैं (गीता 1। 20) पर दुर्योधन पाण्डव सेना को देख कर द्रोणाचार्य के पास जाता है और उनसे पाण्डवों की व्यूह-रचना युक्त सेना को देखने के लिये कहता है। इससे सिद्ध होता है कि दुर्योधन के हृदय में भय बैठा हुआ है ( टिप्पणी प0 10 )। भीतर में भय होने पर भी वह चालाकी से द्रोणाचार्य को प्रसन्न करना चाहता है उनको पाण्डवों के विरुद्ध उकसाना चाहता है। कारण कि दुर्योधन के हृदय में अधर्म है , अन्याय है , पाप है। अन्यायी पापी व्यक्ति कभी निर्भय और सुख-शान्ति से नहीं रह सकता यह नियम है परन्तु अर्जुन के भीतर धर्म है , न्याय है। इसलिये अर्जुन के भीतर अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये चालाकी नहीं है , भय नहीं है किन्तु उत्साह है , वीरता है। तभी तो वे वीरता में आकर सेना निरीक्षण करने के लिये भगवान को आज्ञा देते हैं कि हे अच्युत ! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरे रथ को खड़ा कर दीजिये (1। 21)। इसका तात्पर्य है कि जिसके भीतर नाश्वान धन-सम्पति आदि का आश्रय है , आदर है और जिसके भीतर अधर्म है , अन्याय है , दुर्भाव है उसके भीतर वास्तविक बल नहीं होता। वह भीतर से खोखला होता है और वह कभी निर्भय नहीं होता परन्तु जिसके भीतर अपने धर्म का पालन है और भगवान का आश्रय है वह कभी भयभीत नहीं होता। उसका बल सच्चा होता है। वह सदा निश्चिन्त और निर्भय रहता है। अतः अपना कल्याण चाहने वाले साधकों को अधर्म , अन्याय आदि का सर्वथा त्याग करके और एकमात्र भगवान का आश्रय लेकर भगवत्प्रीत्यर्थ अपने धर्म का अनुष्ठान करना चाहिये। भौतिक सम्पत्ति को महत्त्व देकर और संयोगजन्य सुख के प्रलोभन में फँसकर कभी अधर्म का आश्रय नहीं लेना चाहिये क्योंकि इन दोनों से मनुष्य का कभी हित नहीं होता बल्कि अहित ही होता है। अब दुर्योधन पितामह भीष्म को प्रसन्न करने के लिये अपनी सेना के सभी महारथियों से कहता है – स्वामी रामसुखदास जी