अथ द्वाविंशो ऽध्यायः
तत्त्वों की संख्या और पुरुष – प्रकृति – विवेक
उद्धव उवाच
कति तत्त्वानि विश्वेश सांख्या तान्यृषिभिः प्रभो ।
नवैकादश पंच त्रीण्यात्थ त्वमिह शुश्रुम ।। 1
उद्धव जी ने कहा – प्रभो ! विश्वेश्वर ! ऋषियों ने तत्त्वों की संख्या कितनी बतलायी है ? आपने तो अभी ( उन्नीसवें अध्याय में ) नौ , ग्यारह , पांच और तीन अर्थात कुल अट्ठाइस तत्त्व गिनाये हैं । यह तो हम सुन चुके हैं ।। 1
केचित षड्विंशतिं प्राहुरपरे पंचविंशतिम ।
सप्तैके नव षट केचिच्चत्वार्येकादशापरे।। 2
किन्तु कुछ लोग छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं तो कुछ पच्चीस ; कोई सात , नौ अथवा छः स्वीकार करते हैं , कोई चार बतलाते हैं तो कोई ग्यारह ।। 2
केचित सप्तदश प्राहुः षोडशैके त्रयोदश ।
एतावत्त्वं हि संख्यानामृषयो यदविवक्षया ।
गायन्ति पृथगायुष्मन्निदं नो वक्तुमर्हसि ।। 3
इसी प्रकार किन्हीं – किन्हीं ऋषि – मुनियों के मत में उनकी संख्या सत्रह है , कोई सोलह और कोई तरह बतलाते हैं । सनातन श्रीकृष्ण ! ऋषि – मुनि इतनी भिन्न संख्याएं किस अभिप्राय से बतलाते हैं ? आप कृपा कर के हमें बतलाइये । 3
श्री भगवानुवाच
युक्तं च सन्ति सर्वत्र भाषन्ते ब्राह्मणा यथा ।
मायां मदीया मुदगृह्य वदतां किं न दुर्घटम ।। 4
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – उद्धव जी ! वेदज्ञ ब्राह्मण इस विषय में जो कुछ कहते हैं , वह सभी ठीक है ; क्योंकि सभी तत्त्व सबमें अंतर्भूत हैं मेरी माया को स्वीकार कर के क्या कहना असंभव है ? 4
नैतदेवं यथाऽऽत्थ त्वं यदहं वच्मि तत्तथा ।
एवं विवदतां हेतु शक्तयो में दुरत्ययाः।। 5
‘ जैसा तुम कहते हो , वह ठीक नहीं है , जो मैं कहता हूँ , वही यथार्थ है ‘ – इस प्रकार जगत के कारण के सम्बन्ध में विवाद इसलिए होता है कि मेरी शक्तियों – सत्त्व , रज आदि गुणों और उनकी वृत्तियों का रहस्य लोग समझ नहीं पते ; इसलिए वे अपनी – अपनी मनोवृत्ति पर ही आग्रह कर बैठते हैं । 5
यासाम व्यति करादासीत विकल्पो वदतां पदम् ।
प्राप्ते शमदमेऽप्येति वादस्तमनुशाम्यति ।। 6
सत्त्व आदि गुणों के क्षोभ से ही यह विविध कल्पना रूप प्रपंच – जो वस्तु नहीं केवल नाम है – उठ खड़ा हुआ है । यही वाद – विवाद करने वालों के विवाद का विषय है । जब इन्द्रियां अपने वश में हो जाती हैं और चित्त शांत हो जाता है , तब यह प्रपंच भी निवृत्त हो जाता है और इसकी निवृत्ति के साथ ही सारे वाद – विवाद भी मिट जाते हैं । 6
परस्परानुप्रवेशात तत्त्वानां पुरुषर्षभ ।
पौर्वापर्य प्रसंख्यानं यथा वक्तुर्विवक्षितम।। 7
पुरुष शिरोमणि ! तत्त्वों का एक दूसरे में अनुप्रवेश है , इसलिए वक्ता तत्त्वों की जितनी संख्या बतलाना चाहता है , उसके अनुसार कारण को कार्य में अथवा कार्य को कारण में मिलकर अपनी इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है । 7
एकस्मिन्नपि दृश्यन्ते प्रविष्टानीतराणि च।
पूर्वस्मिन व परस्मिन वा तत्त्वे तत्त्वानि सर्वशः ।। 8
ऐसा देखा जाता है कि एक ही तत्त्व में बहुत से दूसरे तत्त्वों का अंतर्भाव हो गया है । इसका कोई बंधन नहीं है कि किसका किसमें अंतर्भाव हो । कभी घट – पट आदि कार्य वस्तुओं का उनके कारण मिटटी – सूत आदि का घट – पट आदि कार्यों में अंतर्भाव हो जाता है ।। 8
पौर्वापर्यमतोऽमीषां प्रसंख्यानम भीपस्ताम।
यथा विविक्तं यद्वक्त्रम ग्रहणीमो युक्तिसम्भवात ।। 9
इसलिए वादी – प्रतिवादियों में से जिसकी वाणी ने जिस कार्य को जिस कारण में अथवा जिस कारण को जिस कार्य में अंतर्भूत कर के तत्त्वों की जितनी संख्या स्वीकार की है , वह हम निश्चय ही स्वीकार करते हैं ; क्योंकि उनका वह उत्पादन युक्तिसंगत ही है ।। 9
अनाद्यविद्यायुक्तस्य पुरुषस्यात्मवेदनम ।
स्वतो न सम्भवादन्यस्तत्त्वज्ञो ज्ञानदो भवेत् ।। 10
उद्धव जी ! जिन लोगों ने छब्बीस संख्या स्वीकार की है , वे ऐसा कहते हैं कि जीव अनादि काल से अविद्या से ग्रस्त हो रहा है । वह स्वयं अपने आप को नहीं जान सकता । उसे आत्म ज्ञान करने के लिए किसी अन्य सर्वज्ञ की आवश्यकता है । ( इसलिए प्रकृति के कार्यकारणरूप चोबीस तत्त्व , पचीसवाँ पुरुष और छब्बीसवाँ ईश्वर – इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व स्वीकार करने चाहिए ) 10
पुरुषेश्वरयोरत्र न वैलक्षण्य मण्वपि ।
तदन्यकल्पनापार्था ज्ञानं च प्रकृतेर्गुणैः ।। 11
पच्चीस तत्त्व मानने वाले कहते हैं कि इस शरीर में जीव और ईश्वर का अणुमात्र भी अंतर या भेद नहीं है , इसलिए उनमे भेद की कल्पना व्यर्थ है । रही ज्ञान की बात , सो तो सत्त्वात्मिका प्रकृति का गुण है । 11
प्रकृतिर्गुणसाम्यं वाई प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः।
सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्त हेतवः ।। 12
तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है ; इसलिए सत्त्व , रज आदि गुण आत्मा के नहीं , प्रकृति के ही हैं । इन्हीं के द्वारा जगत की स्थिति , उत्पत्ति और प्रलय हुआ करते हैं । इसलिए ज्ञान आत्मा का गुण नहीं , प्रकृति का ही गुण सिद्ध होता है ।। 12
सत्त्वं ज्ञानं रजः कर्म तमो ऽज्ञान मिहोच्यते ।
गुण व्यतिकरः कालः स्वभावः सूत्रमेव च ।। 13
इस प्रसंग में सत्त्वगुण ही ज्ञान है , रजोगुण ही कर्म है , और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया है । और गुणों में क्षोभ उत्पन्न करने वाला ईश्वर ही काल है और सूत्र अर्थात महतत्त्व ही स्वभाव है । ( इसलिए पचीस , और छब्बीस तत्त्वों की – दोनों ही संख्या युक्तिसंगत है )13
पुरुषः प्रकृतिर्व्यक्तमहंकारो नभोऽनिलः ।
ज्योतिरापः क्षितिरिति तत्त्वान्युक्तानि मे नव ।। 14
उद्धव जी ! ( यदि तीन गुणों की प्रकृति से अलग मान लिया जाये , जैसा कि उनकी उत्पत्ति और प्रलय को देखते हुए मानना चाहिए , तो तत्त्वों की संख्या स्वयं ही अट्ठाइस हो जाती है । उन तीनों के अतिरिक्त पच्चीस ये हैं – ) पुरुष , प्रकृति , महतत्त्व , अहंकार , आकाश , वायु , तेज़ , जल और पृथ्वी – ये नौ तत्त्व मैं पहले ही गिना चुका हूँ ।
श्रोत्रं त्वग्दर्शनम घ्राणो जिह्वेति ज्ञान शक्तयः।
वाक्पाण्युपस्थ पाय्वंघ्रि कर्माण्यं गोभयं मनः ।। 15
शब्दः स्पर्शो रसो गन्धो रूपं चेत्यर्थ जातयः ।
गत्यक्त्युत्सर्गशिल्पानि कर्मायतनसिद्धयः ।। 16
श्रोत्र , त्वचा , चक्षु , नासिका और रसना – ये पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ; वाक् , पाणि, पाद , पायु और उपस्थ – ये पांच कर्मेन्द्रियाँ ; तथा मन , जो कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों ही हैं । इस प्रकार कुल ग्यारह इन्द्रियां तथा शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गंध – ये ज्ञानेन्द्रियों के पांच विषय । इस प्रकार तीन , नौ , ग्यारह और पांच – सब मिलाकर अट्ठाइस तत्त्व होते हैं । कर्मेन्द्रियों के द्वारा होने वाले पांच कर्म – चलना , बोलना , मल त्यागना , पेशाब करना और काम करना – इनके द्वारा तत्त्वों की संख्या नहीं बढ़ती । इन्हें कर्मेन्द्रिय स्वरूप ही मानना चाहिए ।। 15-16
सर्गादौ प्रकतिर्ह्यस्य कार्यकारणरूपिणी ।
सत्त्वादिभिर्गुणैर्धत्ते पुरुषोऽव्यक्त ईक्षते ।। 17
सृष्टि के आरम्भ में कार्य ( ग्यारह इन्द्रिय और पंचभूत ) और कारण ( महतत्त्व आदि ) के रूप में प्रकृति ही रहती है । वही सत्त्वगुण , रजोगुण और तमोगुण की सहायता से जगत की स्थिति , उत्पत्ति और संहार सम्बन्धी अवस्थाएं धारण करती है । अव्यक्त पुरुष तो प्रकृति और उसकी अवस्थाओं का केवल साक्षी मात्र बना रहता है । 17
व्यक्तादयो विकुर्वाणा धातवः पुरुषेक्षया ।
लब्धवीर्याः सृजन्त्यण्डं संहताः प्रकृतेर्बलात ।। 18
महतत्त्व आदि कारण धातुएं विकार को प्राप्त होते हुए पुरुष के ईक्षण से शक्ति प्राप्त करके परस्पर मिल जाते हैं और प्रकृति का आश्रय ले कर उसी के बल से ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं ।। 18
सप्तैव धातव इति तत्रार्थाः पंच खादयः ।
ज्ञानमात्मोभयाधारस्ततो देहेन्द्रियासवः ।। 19
उद्धव जी ! जो लोग तत्त्वों की संख्या सात स्वीकार करते हैं , उनके विचार से आकाश , वायु , तेज , जल और पृथ्वी – ये पांच भूत , छठा जीव और सातवां परमात्मा – जो साक्षी जीव और साक्ष्य जगत दोनों का अधिष्ठान है – ये ही तत्त्व हैं । देह , इन्द्रिय और प्राणादि की उत्पत्ति तो पंचभूतों से ही हुई है । [ इसलिए वे इन्हें अलग नहीं गिनते ] 19
षडित्यत्रापि भूतानि पंच षष्ठः परः पुमान ।
तैर्युक्त आत्मसम्भूतैः सृष्ट्वेदं समुपाविशत ।। 20
जो लोग केवल छह तत्त्व स्वीकार करते हैं , वे कहते हैं कि पांच भूत हैं और छठा है परमपुरुष परमात्मा । वह परमात्मा अपने बनाये हुए पंचभूतों से युक्त हो कर देह आदि की सृष्टि करता है और उनमें जीवरूप से प्रवेश करता है ( इस मत के अनुसार जीव का परमात्मा मैं और शरीर आदि का पंचभूतों में समावेश हो जाता है । 20
चत्वार्येवेति तत्रापि तेज आपोऽन्नमात्मनः ।
जातानि तैरिदं जातं जन्मावयविनः खलु ।। 21
जो लोग कारण के रूप में चार ही तत्त्व स्वीकार करते हैं , वे कहते हैं कि आत्मा से तेज , जल और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है और जगत में जितने पदार्थ हैं , सब इन्हीं से उत्पन्न होते हैं । वे सभी कार्यों का इन्हीं में समावेश कर लेते हैं ।। 21
संख्याने सप्तदशके भूतमात्रेंद्रियाणि च ।
पंच पंचैकमनसा आत्मा सप्तदशः स्मृतः ।। 22
जो लोग तत्त्वों की संख्या सत्रह बतलाते हैं , वे इस प्रकार गणना करते हैं – पांच भूत , पांच तन्मात्राएं , पांच ज्ञानेन्द्रियाँ , एक मन और एक आत्मा ।। 22
तद्वत षोडशसंख्याने आत्मैव मन उच्यते ।
भूतेन्द्रियाणि पंचैव मन आत्मा त्रयोदश ।। 23
जो लोग तत्त्वों की संख्या सोलह बतलाते हैं , उनकी गणना भी इसी प्रकार है । अंतर केवल इतना ही है कि वे आत्मा में मन का भी समावेश कर लेते हैं और इस प्रकार उनकी तत्त्व संख्या सोलह रह जाती है । 23
एकादशत्व आत्मासौ महाभूतेन्द्रियाणि च ।
अष्टौ प्रकृतयश्चैव पुरुषश्च नवेत्यथ ।। 24
ग्यारह संख्या मानने वालों ने पांच भूत , पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और इनके अतिरिक्त एक आत्मा का अस्तित्व स्वीकार किया है । जो लोग नौ तत्त्व मानते हैं , वे आकाशादि पांच भूत और मन , बुद्धि , अहंकार – ये आठ प्रकृतियाँ और नवां पुरुष – इन्हीं को तत्त्व मानते हैं । 24
इति नाना प्रसंख्यानं तत्त्वानामृषिभिः कृतं ।
सर्वं न्याय्यं युक्तिमत्वाद विदुषां किमशोभनम ।। 25
उद्धव जी ! इस प्रकार ऋषि – मुनियों ने भिन्न – भिन्न प्रकार से तत्त्वों की गणना की है । सबका कहना उचित ही है , क्योंकि सबकी संख्या युक्ति युक्त है । जो लोग तत्त्व ज्ञानी हैं , उन्हें किसी भी मत में बुराई नहीं दिखती । उनके लिए तो सब कुछ ठीक ही है ।। 25
उद्धव उवाच
प्रकृतिः पुरुषश्चोभौ यद्यप्यात्म विलक्षणौ ।
अन्योन्यापाश्रयात कृष्ण दृश्यते न भिदा तयोः ।। 26
उद्धव जी ने कहा – श्यामसुंदर ! यद्यपि स्वरूपतः प्रकृति और पुरुष – दोनों एक – दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं , तथापि वे आपस में इतने घुल – मिल गए हैं कि साधारणतः उनका भेद नहीं जान पड़ता । प्रकृति में पुरुष और और पुरुष में प्रकृति अभिन्न से प्रतीत होते हैं । इनकी भिन्नता स्पष्ट कैसे हो ? 26
प्रकृतौ लक्ष्यते ह्यात्मा प्रकृतिश्च तथात्मनि ।
एवं मे पुण्डरीकाक्ष महान्तं संशयं हृदि ।
छेत्तुमर्हसि सर्वज्ञ वचोभिर्नयनैपुणैः ।। 27
कमलनयन श्रीकृष्ण ! मेरे ह्रदय में भिन्नता और अभिन्नता को लेकर बहुत बड़ा संदेह है । आप तो सर्वज्ञ हैं , अपनी युक्तियुक्त वाणी से मेरे संदेह का निवारण कर दीजिये ।। 27
त्वत्तो ज्ञानम् हि जीवानां प्रमोषस्तेऽत्र शक्तितः ।
त्वमेव ह्यात्मायाया गतिं वेत्थ न चापरः।। 28
भगवन ! आपकी ही कृपा से जीवों को ज्ञान होता है और आपकी माया – शक्ति से ही उनके ज्ञान का नाश होता है । अपनी आत्म स्वरूपणी माया की विचित्र गति आप ही जानते हैं और कोई नहीं जानता। अतएव आप ही मेरा संदेह मिटाने में समर्थ हैं । 28
श्री भगवानुवाच
प्रकृतिः पुरुषश्चेति विकल्पः पुरुषर्षभ ।
एष वैकारिकः सर्गो गुणव्यतिकरात्मकः।। 29
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा – उद्धव जी ! प्रकृति और पुरुष , शरीर और आत्मा – इन दोनों में अत्यंत भेद है । इस प्राकृत जगत में जन्म – मरण एवं वृद्धि – ह्रास आदि विकार लगे ही रहते हैं । इसका कारण ये है कि यह गुणों के क्षोभ से ही बना है ।। 29
ममाङ्ग माया गुण मय्य नेकधा
विकल्प बुद्धीश्च गुणैर्विधत्ते।
वैकारिकस्त्रिविधोऽध्यात्ममेक –
मथाधिदैवमधि भूतमन्यत ।। 30
प्रिय मित्र ! मेरी माया त्रिगुणात्मिका है । वही अपने सत्त्व , रज आदि गुणों से अनेकों प्रकार कि भेदवृत्तियाँ पैदा कर देती है । यद्यपि इसका विस्तार असीम है , फिर भी इस विकारात्मक सृष्टि तीन भागों में बाँट सकते हैं । वे तीन भाग हैं – अध्यात्म , आधिदैव और आधिभूत ।। 30
दृग रूपमार्कं वपुरत्र रंध्रे
परस्परं सिध्यति यः स्वतः खे।
आत्मा यदेषामपरो य आद्यः
स्वयानु भूत्याखिल सिद्ध सिद्धिः ।
एवं त्वगादि श्रवणादि चक्षु-
र्जिह्वादि नासादि च चित्तयुक्तं ।। 31
उदाहरणार्थ – नेत्रेन्द्रिय अध्यात्म है , उसका विषय रूप अधिभूत है और नेत्र गोलक में स्थित सूर्य देवता का अंश अधिदैव है । ये तीनों परस्पर एक – दूसरे के आश्रय से सिद्ध होते हैं । और इसलिए अध्यात्म , अधिदैव और अधिभूत – ये तीनों ही परस्पर सापेक्ष हैं । परन्तु आकाश में स्थित सूर्यमण्डल इन तीनों की अपेक्षा से मुक्त है , क्योंकि वह स्वतः सिद्ध है । इसी प्रकार आत्मा भी उपर्युक्त तीनों भेदों का मूल कारण , उनका साक्षी और उनसे परे है । वही अपने स्वयं सिद्ध प्रकाश से समस्त सिद्ध पदार्थों की मूलसिद्धि है उसी के द्वारा सबका प्रकाश होता है । जिस प्रकार चक्षु के तीन भेद बताये गए हैं , उसी प्रकार त्वचा , श्रोत्र , जिह्वा , नासिका और चित्त आदि के भी तीन – तीन भेद होते हैं । 31
योऽसौ गुणक्षोभकृतो विकारः
प्रधान मूलान्महतः प्रसूतः ।
अहं त्रिवृन्मोहविकल्प हेतु-
र्वैकारी कस्तामस ऐन्द्रियश्च ।। 32
प्रकृति से महतत्त्व बनता है और महतत्त्व से अहंकार । इस प्रकार यह अहंकार गुणों के क्षोभ से उत्पन्न हुआ प्रकृति का ही एक विकार है । अहंकार के तीन भेद हैं – सात्विक , तामस और राजस . यह अहंकार ही अज्ञान और सृष्टि की विविधता का मूल कारण है ।। 32
आत्मा परिज्ञानमयो विवादो
ह्यस्तीति नास्तीति भिदार्थनिष्ठः ।
व्यर्थोऽपि नैवोपरमेत पुंसां
मत्तः परावृत्तधियां स्वलोकात ।। 33
आत्मा ज्ञानस्वरूप है ; उसका इन पदार्थों से न तो कोई सम्बन्ध है और न उसमें कोई विवाद की ही बात है । अस्ति – नास्ति ( है – नहीं ) , सगुण – निर्गुण , भाव – अभाव , सत्य – मिथ्या आदि रूप से जितने भी वाद – विवाद हैं , सबका मूल कारण भेद दृष्टि ही है । इसमें संदेह नहीं कि इस विवाद का कोई प्रयोजन नहीं है ; यह सर्वथा व्यर्थ है तथापि जो लोग मुझसे – अपने वास्तविक स्वरूप से विमुख हैं , वे इस विवाद से मुक्त नहीं हो सकते ।। 33
उद्धव उवाच
त्वत्तः परावृत्तधियः स्वकृतैः कर्मभिः प्रभो ।
उच्चावचान यथा देहान गृह्णन्ति विसृजन्ति च ।। 34
उद्धव जी ने पूछा – भगवन ! आपसे विमुख जीव अपने किये हुए पुण्य – पापों के फलस्वरूप ऊंची – नीची योनियों में आते – जाते रहते हैं । अब प्रश्न ये है कि व्यापक आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना , अकर्ता का कर्म करना और नित्य वस्तु का जन्म – मरण कैसे संभव है ? 34
तन्ममाख्याहि गोविन्द दुर्विभाव्यमनात्मभिः ।
न ह्येतत प्रायशो लोके विद्वांसः सन्ति वंचिताः।। 35
गोविन्द ! जो लोग आत्मज्ञान से रहित हैं , वे तो इस विषय को ठीक – ठीक सोच भी नहीं सकते । और इस विषय के विद्वान संसार में प्रायः मिलते नहीं , क्योंकि सभी लोग आपकी माया की भूल – भुलैया में पड़े हुए हैं । इसलिए आप ही कृपा करके मुझे इसका रहस्य समझाइये ।। 35
श्री भगवानुवाच
मनः कर्ममयं नृणामिन्द्रियैः पंचभिर्युतम ।
लोकाल्लोकं प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्तते ।। 36
भगवान श्री कृष्ण ने कहा – प्रिय उद्धव ! मनुष्यों का मन कर्म संस्कारों का पुंज है । उन संस्कारों के अनुसार भोग प्राप्त करने के लिए उसके साथ पांच इन्द्रियाँ भी लगी हुई हैं । इसी का नाम है लिंग शरीर । वही कर्मों के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में , एक लोक से दूसरे लोक में आता जाता रहता है । आत्मा इस लिंग शरीर से सर्वथा पृथक है । उसका आना – जाना नहीं होता ; परन्तु जब वह अपने को लिंग शरीर ही समझ बैठता है , उसी में अहंकार कर लेता है , तब उसे भी अपना आना – जान प्रतीत होने लगता है ।। 36
ध्यायन मनोऽनु विषयों दृस्तान वानुश्रुतानथ।
उद्यत सीदत कर्मतंत्रम स्मृतिस्तदनु शाम्यति ।। 37
मन कर्मों के अधीन है । वह देखे हुए या सुने हुए विषयों का चिंतन करने लगता है और क्षण भर में ही उनमें तदाकार हो जाता है तथा उन्हीं पूर्व चिंतित विषयों में लीन हो जाता है । धीरे – धीरे उसकी स्मृति , पूर्वापर का अनुसंधान भी नष्ट हो जाता है ।। 37
विषयाभिनिवेशेन नात्मानं यात स्मरेत पुनः ।
जन्तोर्वै कस्य चिद्धेतोर्मृत्युरत्यन्त विस्मृतिः ।।38
उन देवादि शरीरों में इसका इतना अभिनिवेश , इतनी तल्लीनता हो जाती है कि जीव को अपने पूर्व शरीर का स्मरण भी नहीं रहता । किसी भी कारण से शरीर को सर्वथा भूल जाना ही मृत्यु है ।। 38
जन्म त्वात्मतया पुंसः सर्वभावेन भूरिद ।
विषय स्वीकृतिं प्राहुर्यता स्वप्नमनोरथः।। 39
उदार उद्धव ! जब यह जीव किसी भी शरीर को अभेद – भाव से ‘ मैं ‘ के रूप में स्वीकार कर लेता है , तब उसे ही जन्म कहते हैं , ठीक वैसे ही जैसे स्वप्नकालीन और मनोरथ कालीन शरीर में अभिमान करना ही स्वप्न और मनोरथ कहा जाता है । । 39
स्वप्नं मनोरथं चेत्थं प्राक्तनं न स्मरत्यसौ ।
तत्र पूर्वमिवात्मानंपूर्वं चानुपश्यति।। 40
यह वर्तमान देह में स्थित जीव जैसे पूर्व देह का स्मरण नहीं करता , वैसे ही स्वप्न या मनोरथ में स्थित जीव भी पहले के स्वप्न और मनोरथ को स्मरण नहीं करता , प्रत्युत उस वर्तमान स्वप्न और मनोरथ में पूर्व सिद्ध होने पर भी अपने को नवीन ही समझता है ।। 40
इन्द्रियायन सृष्ट्येदं त्रैविध्यं भाति वस्तुनि ।
बहिरंतर्भिदा हेतुर्जनोऽसज्जन कृद यथा ।। 41
इन्द्रियों के आश्रय मन या शरीर की सृष्टि से आत्मवस्तु में यह उत्तम , मध्यम और अधम की त्रिविधता भासती है । उनमें अभिमान करने से ही आत्मा वाह्य और आभ्यंतर भेदों का हेतु मालूम पड़ने लगता है, जैसे दुष्ट पुत्र को उत्पन्न करने वाला पिता पुत्र के शत्रु – मित्र आदि के लिए भेद का हेतु बन जाता है ।
नित्यदा ह्यंग भूतानि भवन्ति न भवन्ति च ।
कालेनालक्ष्यवेगेन सूक्ष्मत्वात्तन्न दृश्यते ।। 42
प्यारे उद्धव ! काल की गति सूक्ष्म है । उसे साधारणतः देखा नहीं जा सकता । उसके द्वारा प्रतिक्षण ही शरीरों की उत्पत्ति और नाश होते रहते है । सूक्ष्म होने के कारण ही प्रतिक्षण होने वाले जन्म – मरण नहीं दीख पड़ते ।। 42
यथार्चिषां स्तोत्रसां च फलानां वा वनस्पतेः।
तथैव सर्वभूतानां वयोऽवस्थादयः कृताः ।। 43
जैसे काल के प्रभाव से दिए की लौ , नदियों के प्रवाह अथवा वृक्ष के फलों की विशेष – विशेष अवस्थाएं बदलती रहती है , वैसे ही समस्त प्राणियों के शरीरों की आयु , अवस्था आदि भी बदलती रहती है ।। 43
सोऽयं दीपोऽर्चिषाम यद्वत्स्रोत्सां तदिदं जलम ।
सोऽयम पुमानिति नृणाम मृषा गीर्धीर्मृषायुषां ।। 44
जैसे यह उन्हीं ज्योतियों का वही दीपक है , प्रवाह का यह वही जल है – ऐसा समझना और कहना मिथ्या है , वैसे ही विषय – चिंतन में व्यर्थ आयु बिताने वाले अविवेकी पुरुषों का ऐसा कहना और समझना की यह वही पुरुष है , सर्वथा मिथ्या है ।। 44
मा स्वस्य कर्म बीजेन जायते सोऽप्ययं पुमान ।
म्रियते वामरो भ्रांत्या यथाग्निर्दारु संयुतः ।। 45
यद्यपि वह भ्रांत पुरुष भी अपने कर्मों के बीज द्वारा न पैदा होता है और न तो मरता ही है ; वह भी अजन्मा और अमर ही है , फिर भी भ्रान्ति से वह उत्पन्न होता है और मरता सा भी है , जैसे की काष्ठ से युक्त अग्नि पैदा होता है और नष्ट होता सा दिखाई देता है ।। 45
निषेकगर्भजन्मानि बाल्यकौमारयौवनं ।
वयोमध्यम जरा मृत्युरित्यवस्थास्तनोर्नव । 46
उद्धव जी ! गर्भाधान , गर्भवृद्धि , जन्म , बाल्यावस्था , कुमारावस्था , जवानी , अधेड़ अवस्था , बुढ़ापा और मृत्यु – ये नौ अवस्थाएं शरीर की ही हैं ।। 46
एता मनोरथ मयीर्ह्यन्य स्योच्चा वचास्तनूः।
गुणसंगादुपादत्ते क्वचित कश्चिज्जहाति च ।। 47
यह शरीर जीव से भिन्न है और ये ऊंची – नीची अवस्थाएं उसके मनोरथ के अनुसार ही हैं ; परन्तु वह अज्ञानवश गुणों के संग से इन्हें अपनी मानकर भटकने लगता है और कभी – कभी विवेक हो जाने पर इन्हें छोड़ भी देता है ।। 47
आत्मनः पितृपुत्राभ्यामनुमेयौ भवाप्ययौ ।
न भवाप्ययवस्तूनामभिज्ञो द्वयलक्षणः ।। 48
पिता को पुत्र के जन्म से और पुत्र को पिता की मृत्यु से अपने – अपने जन्म – मरण का अनुमान कर लेना चाहिए । जन्म – मृत्यु से युक्त देहों का दृष्टा जन्म और मृत्यु से युक्त शरीर नहीं है ।। 48
तरोर्बीजविपाकाभ्यां यो विद्वांजन्मसंयमौ ।
तरोर्विलक्षणो द्रष्टा एवं द्रष्टा तनोः पृथक ।। 49
जैसे जौ – गेहूं आदि की फसल बोने पर उग आती है और पक जाने पर काट दी जाती है , किन्तु जो पुरुष उनके उगने और काटने का जानने वाला साक्षी है , वह उनसे सर्वथा पृथक है ।। 49
प्रकृतेरे वमात्मानं विविच्याबुधः पुमान ।
तत्त्वेन स्पर्श सम्मूढः संसारं प्रतिपद्यते ।। 50
अज्ञानी पुरुष इस प्रकार प्रकृति और शरीर से आत्मा का विवेचन नहीं करते । वे उसे उनसे तत्त्वतः अलग अनुभव नहीं करते और विषयभोग में सच्चा सुख मानने लगते हैं और उसी में मोहित हो जाते हैं । इसी से उन्हें जन्म – मृत्यु रूप संसार में भटकना पड़ता है । 50
सत्त्वसंगादृषीन देवान रजसासुरमानुषान ।
तमसा भूततिर्यक्त्वं भ्रामितो याति कर्मभिः ।। 51
जब अविवेकी जीव अपने कर्मों के अनुसार जन्म – मृत्यु के चक्र में भटकने लगता है , तब सात्त्विक कर्मों की आसक्ति से वह ऋषिलोक और देवलोक में , राजसिक कर्मों की आसक्ति से मनुष्य और असुर योनियों में तथा तामसिक कर्मों की आसक्ति से भूत – प्रेत एवं पशु – पक्षी आदि की योनियों में जाता है ।। 51
नृत्यतो गायतः पश्यन यथैवानुकरोति तान ।
एवं बुद्धिगुणान पश्यन्ननीहोऽप्यनुकार्यते ।। 52
जब मनुष्य किसी को नाचते – गाते देखता है , तब वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने – तान तोड़ने लगता है । वैसे ही जब जीव बुद्धि के गुणों को देखता है , तब स्वयं निष्क्रिय होने पर भी उसका अनुकरण करने के लिए बाध्य हो जाता है ।। 52
यथाम्भसा प्रचलता तरवोऽपि चला इव।
चक्षुषा भ्राम्यमाणेन दृश्यते भ्रमतीव भूः ।। 53
यथा मनोरथधियो विषयानुभवो मृषा ।
स्वप्न दृष्टाश्च दाशार्ह तथा संसार आत्मनः ।। 54
जैसे नदी – तालाब आदि के जल के हिलने या चंचल होने पर उसमें प्रतिबिंबित तट के वृक्ष भी उसके साथ हिलते – डोलते से जान पड़ते हैं , जैसे घुमाये जाने वाले नेत्र के साथ – साथ पृथ्वी भी घूमती हुई सी दिखाई पड़ती है , जैसे मन के द्वारा सोचे गए तथा स्वप्न में देखे गए भोग पदार्थ सर्वथा अलीक ही होते हैं , वैसे ही हे दाशार्ह ! आत्मा का विषयानुभवरूप संसार भी सर्वथा असत्य है । आत्मा तो नित्य शुद्ध – बुद्ध – मुक्त स्वभाव ही है ।। 53 – 54
अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ।। 55
विषयों के सत्य न होने पर भी जो जीव विषयों का ही चिंतन करता रहता है , उसका यह जन्म – मृत्यु रूप संसार – चक्र कभी निवृत्त नहीं होता , जैसे स्वप्न में प्राप्त अनर्थ परंपरा जागे बिना निवृत्त नहीं होती ।। 55
तस्मादुद्धव मा भुङ्क्ष्व विषयान सदिंद्रियैः।
आत्माग्रहणनिर्भातं पश्य वैकल्पिकं भ्रमं ।। 56
प्रिय उद्धव ! इसलिए इन दुष्ट ( कभी न तृप्त होने वाली ) इन्द्रियों से विषयों को मत भोगो । आत्म विषयक अज्ञान से प्रतीत होने वाला सांसारिक भेद – भाव भ्रममूलक ही है , ऐसा समझो ।
क्षिप्तोऽवमानितोऽसद्भिः प्रलब्धोऽसूयितोऽथवा ।
ताडितः सन्निबद्धो वा वृत्त्या वा परिहापितः।। 57
निष्ठितो मूत्रितो वाज्ञैर्बहुधैवं प्रकम्पितः।
श्रेयस्कामः कृच्छ्रगत आत्मनाऽऽत्मानमुद्धरेत ।।58
असाधु पुरुष गर्दन पकड़कर बाहर निकाल दें , वाणी द्वारा अपमान करें , उपहास करें , निंदा करें , मारें – पीटें , बांधें , आजीविका छीन लें , ऊपर थूक दें अथवा तरह – तरह से विचलित करें , निष्ठां से डिगाने की चेष्टा करें ; उनके किसी भी उपद्रव से क्षुब्ध नहीं होना चाहिए ; क्योंकि वे तो बेचारे अज्ञानी हैं , उन्हें परमार्थ का तो पता ही नहीं है । अतः जो अपने कल्याण का इच्छुक है , उसे सभी कठिनाईयों से अपनी विवेक – बुद्धि द्वारा ही – किसी वाह्य साधन से नहीं – अपने को बचा लेना चाहिए । वस्तुतः आत्म – दृष्टि ही समस्त विपत्तियों से बचने का एकमात्र साधन है । 57-58
उद्धव उवाच
यथैवमनुबुध्येयं वद नो वदतां वर ।
सुदुःसहमिमं मन्ये आत्मन्यसदतिक्रमम ।। 59
उद्धव जी ने कहा – भगवन ! आप समस्त वक्ताओं के शिरोमणि हैं । मैं इस दुर्जनों से किये गए तिरस्कार को अपने मन में अत्यंत असह्य समझता हूँ । अतः जैसे मैं इसको समझ सकूं , आपका उपदेश जीवन में धारण कर सकूं , वैसे हमें बतलाइये ।। 59
विदुषामपि विश्वात्मन प्रकृतिर्हि बलीयसी ।
ऋते त्वद्धर्मनिरतान शांतांस्ते चरणालयान।। 60
विश्वात्मन ! जो आपके भागवत धर्म के आचरण में प्रेम – पूर्वक संलग्न है , जिन्होंने आपके चरण कमलों का ही आश्रय ले लिया है , उन शांत पुरुषों के अतिरिक्त बड़े – बड़े विद्वानों के लिए भी दुष्टों के द्वारा किया हुआ तिरस्कार सह लेना अत्यंत कठिन है ; क्योंकि प्रकृति अत्यंत बलवती है ।। 60
इति श्रीमदभागवतमहापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः ।।22