uddhav gita

 

 

Previous   Menu     Next 

 

अथ पंचविंशोध्यायः

तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण

श्री भगवानुवाच

गुणानामसमिश्राणां पुमान येन यथा भवेत् ।

तन्मे पुरुषवर्येद मुपधारय शंसतः।। 1

भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं – पुरुष प्रवर उद्धव जी ! प्रत्येक व्यक्ति में अलग – अलग गुणों का प्रकाश होता है। उनके कारण प्राणियों के स्वभाव में भी भेद हो जाता है । अब मैं बतलाता हूँ कि किस गुण से कैसा – कैसा स्वभाव बनता है । तुम सावधानी से सुनो । 1

 

शमो दमस्तितिक्षेक्षा तपः सत्यं दया स्मृतिः ।

तुष्टिस्तयागोस्पृहा श्रद्धा ह्रीरर्दयादिः स्वनिर्वृत्तिः ।। 2

सत्त्व गुण की वृत्तियाँ हैं – शम ( मनः संयम ) , दम ( इन्द्रियनिग्रह ) , तितिक्षा ( सहिष्णुता ), विवेक , तप , सत्य , दया , स्मृति , संतोष , त्याग , विषयों के प्रति अनिच्छा , श्रद्धा , लज्जा ( पाप करने में स्वाभाविक संकोच ), आत्मरति , दान , विनय और सरलता आदि।। 2

 

काम ईहा मदस्तृष्णा स्तम्भ आशीर्भिदा सुखम ।

मदोत्साहो यशः प्रीतिर्हास्यम वीर्यं बलोद्यमः।। 3

  

रजोगुण की वृत्तियाँ हैं – इच्छा , प्रयत्न , घमंड , तृष्णा ( असंतोष ) , ऐंठ या अकड़ , देवताओं से धन आदि की याचना , भेद बुद्धि , विषय भोग , युद्धादि के लिए मद जनित उत्साह , अपने यश में प्रेम , हास्य , पराक्रम और हठपूर्वक उद्योग करना आदि । 3

 

क्रोधो लोभोऽनृतं हिंसा याच्ञा दम्भः क्लमः कलिः।

शोकमोहौ विषादार्ती निद्राऽशा भीर नुद्यमः।। 4

तमोगुण की वृत्तियाँ हैं – क्रोध ( असहिष्णुता ) , लोभ , मिथ्याभाषण , हिंसा , याचना , पाखण्ड , श्रम , कलह , शोक , मोह , विषाद , दीनता , निद्रा , आशा , भय और अकर्मण्यता आदि ।। 4

 

सत्त्वस्य रजसश्चैतास्तमसश्चानुपूर्वशः ।

वृत्तयो वर्णितप्रायाः सन्निपातमथो श्रणु ।। 5

इस प्रकार क्रम से सत्त्वगुण , रजोगुण और तमोगुण की अधिकाँश वृत्तियों का पृथक – पृथक वर्णन किया गया । अब उनके मेल से होने वाली वृत्तियों का वर्णन सुनो ।। 5

 

सन्निपातस्त्वहमिति ममेत्युद्धव या मतिः ।

व्यवहारः सन्निपातो मनोमात्रेंद्रियासुभिः ।। 6

उद्धव जी ! ‘ मैं हूँ और यह मेरा है ‘ इस प्रकार की बुद्धि में तीनों गुणों का मिश्रण है । जिस मन , शब्दादि विषय , इन्द्रिय और प्राणों के कारण पूर्वोक्त वृत्तियों का उदय होता है , वे सब के सब सात्त्विक , राजस और तामस हैं ।। 6

 

धर्मे चार्थे च कामे च यदासौ परिनिष्ठितः ।

गुणानां सन्निकर्षोऽयं श्रद्धारतिधनावहः।। 7

जब मनुष्य धर्म , अर्थ और काम में संलग्न रहता है , तब उसे सत्त्व गुण से श्रद्धा , रजोगुण से रति और तमोगुण से धन की प्राप्ति होती है । यह भी गुणों का मिश्रण ही है ।। 7

 

प्रवृत्तिलक्षणे निष्ठा पुमान यर्हि गृहाश्रमे।

स्वधर्मे चानुतिष्ठेत गुणानां समितिर्हि सा ।। 8

जिस समय मनुष्य सकाम कर्म , गृहस्थाश्रम और स्वधर्माचरण में अधिक प्रीति रखता है , उस समय भी उसमें तीनों गुणों का मेल ही समझना चाहिए ।। 8

 

पुरुषं सत्त्व संयुक्तमनुमीयाच्छ्मादिभिः ।

कामादिभि रजोयुक्तं क्रोधाद्यैस्तमसा युतं ।। 9

मानसिक शान्ति और जितेन्द्रियता आदि गुणों से सत्त्वगुणी पुरुष की , कामना आदि से रजोगुणी पुरुष की और क्रोध – हिंसा आदि से तमोगुणी पुरुष की पहचान करे ।। 9

 

यदा भजति मां भक्त्या निर्पेक्षः स्व कर्मभिः ।

तं सत्त्वप्रकृतिं विद्यात पुरुषं स्त्रियमेव वा ।। 10

पुरुष हो , चाहे स्त्री – जब वह निष्काम होकर अपने नित्य – नैमित्तिक कर्मों द्वारा मेरी आराधना करे तब उसे सत्त्वगुणी जानना चाहिए ।। 10

 

यदा आशिष आशास्य मां भजेत स्वकर्मभिः ।

तं रजः प्रकृतिं विद्याद्धिंसामाशास्य तामसं ।। 11

सकाम भाव से अपने कर्मों के द्वारा मेरा भजन – पूजन करने वाला रजोगुणी है और जो अपने शत्रु की मृत्यु आदि के लिए मेरा भजन पूजन करे उसे तमोगुणी समझना चाहिए ।। 11

 

सत्त्वं रजस्तम इति गुणा जीवस्य नैव मे।

चित्तजा यैस्तु भूतानां सज्जमानो निबध्यते ।। 12

सत्त्व , रज और तम – इन तीनों गुणों का कारण जीव का चित्त है । उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है । इन्हीं गुणों के द्वारा जीव शरीर अथवा धन आदि में आसक्त होकर बंधन में पड़ जाता है ।। 12

 

यदेतरौ जयेत सत्त्वं भास्वरं विशदं शिवम् ।

तदा सुखेन युज्येत धर्म ज्ञानादिभिः पुमान ।। 13

सत्त्व गुण प्रकाशक , निर्मल और शांत है । जिस समय वह रजोगुण और तमोगुण को दबाकर बढ़ता है । उस समय पुरुष सुख , धर्म और ज्ञान आदि का भाजन हो जाता है ।। 13

 

यदा जयेत्तमः सत्त्वं रजः संगम भिड़ा चलम ।

तदा दुःखें युज्येत कर्मणा यशसा श्रिया ।। 14

रजोगुण भेदबुद्धि का कारण है । उसका स्वभाव है आसक्ति और प्रवृत्ति । जिस समय तमोगुण और सत्त्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है , उस समय मनुष्य दुःख , कर्म , यश और लक्ष्मी से संपन्न होता है ।। 14

 

यदा जयेद रजः सत्त्वं तमो मूढं लयं जडम।

युज्येत शोकमोहाभ्यां निद्रया हिंसयाऽऽशया ।।15

तमोगुण का स्वरूप है अज्ञान । उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता । जब वह बढ़कर सत्त्वगुण और रजोगुण को दबा लेता है , तब प्राणी तरह – तरह की आशाएं करता है , शोक – मोह में पड़ जाता है , हिंसा करने लगता है अथवा निद्रा – आलस्य के वशीभूत होकर पड़ रहता है ।। 15

 

यदा चित्तं प्रसीदेत इन्द्रियाणां च निर्वृतिः ।

देहेऽभयं मनोऽसंगम तत सत्त्वं विद्धि मत्पदं ।। 16

जब चित्त प्रसन्न हो , इन्द्रियाँ शांत हों , देह निर्भय हों और मन में आसक्ति न हों , तब सत्त्व गुण की वृद्धि समझनी चाहिए । सत्त्वगुण मेरी प्राप्ति का साधन है ।

 

विकुर्वन क्रियया चाधीर निर्वृत्तिश्च चेतसाम ।

गात्रास्वास्थ्यं मनो  भ्रान्तं रज एतैर्निशामय ।। 17

जब काम करते – करते जीव की बुद्धि चंचल , ज्ञानेन्द्रिय असंतुष्ट , कर्मेन्द्रियाँ विकार युक्त , मन भ्रांत और शरीर अस्वस्थ हों जाये तब समझना चाहिए रजोगुण जोर पकड़ रहा है ।

 

सीदच्चितं विलीयेत चेतसो ग्रहणे अक्षमम् ।

मनो नष्टं तमो ग्लानिस्तमस्त दुप धारय ।। 18

जब चित्त ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा शब्दादि विषयों को ठीक – ठीक समझने में असमर्थ हो जाये और खिन्न होकर लीन होने लगे , मन सूना सा हो जाये तथा अज्ञान और विषाद की वृद्धि हो , तब समझना चाहिए कि तमोगुण वृद्धि पर है ।। 18

 

एधमाने गुणे सत्त्वे देवानां बलमेधते ।

असुराणां च रजसि तमस्युद्धव रक्षसां ।। 19

उद्धव जी ! सत्त्व गुण के बढ़ने पर देवताओं का , रजोगुण के बढ़ने पर असुरों का और तमोगुण के बढ़ने पर राक्षसों का बल बढ़ जाता है । ( वृत्तियों में भी क्रमशः सत्त्वादि गुणों की अधिकता होने पर देवत्व , असुरत्व और राक्षसत्व – प्रधान निवृत्ति , प्रवृत्ति अथवा मोह की प्रधानता हो जाती है ) 19

 

सत्त्वाज्जागरणं विद्याद रजसा स्वप्नमादिशेत ।

प्रस्वापं तमसा जन्तोस्तुरीयं त्रिषु सन्ततं ।। 20

सत्त्वगुण से जाग्रत अवस्था , रजोगुण से स्वप्नावस्था और तमोगुण से सुषुप्ति अवस्था होती है । तुरीय इन तीनों में से एक – सा व्याप्त रहता है । वही शुद्ध और एकरस आत्मा है ।। 20

 

उपर्युपरि गच्छन्ति सत्त्वेन ब्राह्मणा जनाः ।

तमसाधोध आमुख्याद रजसान्तरचारिणः ।। 21

वेदों के अभ्यास में तत्पर ब्राह्मण सत्वगुण के द्वारा उत्तरोत्तर ऊपर के लोकों में जाते हैं । तमोगुण से जीवों को वृक्षादिपर्यन्त अधोगति प्राप्त होती है और रजोगुण से मनुष्य शरीर मिलता है ।। 21

 

सत्त्वे प्रलीनाः स्वर्यान्ति नरलोकं रजोलयाः ।

तमोलयास्तु निरयं यान्ति मामेव निर्गुणाः ।। 22

जिसकी मृत्यु सत्त्वगुणों की वृद्धि के समय होती है , उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है , जिसकी रजोगुण की वृद्धि के समय होती है , उसे मनुष्य लोक मिलता है और जो तमोगुण की वृद्धि के समय मरता है , उसे नरक की प्राप्ति होती है । परन्तु जो पुरुष त्रिगुणातीत – जीवन्मुक्त हो गए हैं , उन्हें मेरी ही प्राप्ति होती है ।। 22

 

मदर्पणं निष्फलं वा सात्विकं निजकर्म तत ।

राजसं फलसंकल्पं हिंसाप्रायादि तामसं ।। 23

जब अपने धर्म का आचरण मुझे समर्पित करके अथवा निष्काम भाव से किया जाता है तब वह सात्विक होता है । जिस कर्म के अनुष्ठान में किसी फल की कामना रहती है , वह राजसिक होता है और जिस कर्म में किसी को सताने का भाव रहता है , वह तामसिक होता है ।। 23

 

कैवल्यं सात्विकं ज्ञानं रजो वैकल्पिकं च यत।

प्राकृतं तामसं ज्ञानं मंनिष्ठं निर्गुणं स्मृतम ।। 24

शुद्ध आत्मा का ज्ञान सात्त्विक है । उसको कर्ता – भोक्ता समझना राजस ज्ञान है और उसे शरीर समझना तो सर्वथा तामसिक है ।। इन तीनों से विलक्षण मेरे स्वरूप का वास्तविक ज्ञान निर्गुण ज्ञान है ।। 24

 

वनं तु सात्त्विको वासो ग्रामो राजस उच्यते ।

तामसं द्यूतसदनं मन्निकेतं तु निर्गुणं ।। 25

वन में रहना सात्त्विक निवास है , गाँव में रहना राजस है और जुआघर में रहना तामसिक है । इन सबसे बढ़कर मेरे मंदिर में निवास करना निर्गुण निवास है ।। 25

 

सात्विकः कारको संगी रागान्धो राजसः स्मृतः ।

तामसः स्मृतिविभ्रष्टो निर्गुणो मदपाश्रयः ।। 26

अनासक्त भाव से कर्म करने वाला सात्त्विक है , रागान्ध होकर कर्म करने वाला राजसिक है और पूर्वापर विचार से रहित होकर करने वाला तामसिक है । इनके अतिरिक्त जो पुरुष केवल मेरी शरण में रहकर बिना अहंकार के कर्म करता है , वह निर्गुण कर्ता है ।। 26

 

सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्मश्रद्धा तु राजसी ।

तामस्यधर्मे या श्रद्धा मत्सेवायां तु निर्गुणा ।। 27

आत्मज्ञानविषयक श्रद्धा सात्विक श्रद्धा है , कर्मविषयक श्रद्धा राजस है और जो श्रद्धा अधर्म में होती है , वह तामस है तथा मेरी सेवा में जो श्रद्धा अधर्म में होती है , वह तामस है तथा मेरी सेवा में जो श्रद्धा है , वह निर्गुण श्रद्धा है ।। 27

 

पथ्यं पूत मनायस्तमाहार्यं सात्त्विकं स्मृतं।

राजसं चेन्द्रियप्रेष्ठं तामसं चार्तिदा शुचि ।। 28

आरोग्यदायक , पवित्र और अनायास प्राप्त भोजन सात्विक है । रसनेन्द्रिय को रुचिकर और स्वाद की दृष्टि से युक्त आहार राजस है तथा दुःखदायी और अपवित्र आहार तामस है ।। 28

 

सात्विकं सुखमात्मोत्थं विषयोत्थं तु राजसं ।

तामसं मोहदैन्योत्थं निर्गुणं मदपाश्रयं ।। 29

अंतर्मुखता से – आत्मचिंतन से प्राप्त होने वाला सुख सात्त्विक है । बहिर्मुखता से – विषयों से प्राप्त होने वाला राजस है तथा अज्ञान और दीनता से प्राप्त होने वाला सुख तामस है और जो सुख मुझ से मिलता है , वह तो गुणातीत और अप्राकृत हैं ।। 29

 

द्रव्यं देशः फलं कालो ज्ञानं कर्म च कारकः ।

श्रद्धावस्थाकृतिर्निष्ठा त्रैगुण्यः सर्व एव हि।। 30

उद्धव जी ! द्रव्य ( वस्तु ) , देश ( स्थान ) , फल , काल , ज्ञान , कर्म , कर्ता , श्रद्धा , अवस्था , देव – मनुष्य – तिर्यगादि शरीर और निष्ठां – सभी त्रिगुणात्मक हैं ।। 30

 

सर्वे गुणमया भावाः पुरुषोव्यक्तधिष्ठिताः ।

दृष्टं श्रुतमनुध्यातं बुद्ध्या वा पुरुषर्षभ ।। 31

नररत्न ! पुरुष और प्रकृति के आश्रित जितने भी भाव हैं , सभी गुणमय हैं – वे चाहे नेत्रादि इन्द्रियों से अनुभव किये हुए हों , शास्त्रों के द्वारा लोक – लोकान्तरों के सम्बन्ध में सुने गए हों अथवा बुद्धि के द्वारा सोचे – विचारे गए हों ।। 31

 

एताः संसृतयः पुंसो गुण कर्मनिबन्धनः ।

येनेमे निर्जिताः सौम्य गुणा जीवेन चित्तजाः।

भक्तियोगेन न्निष्ठो मद्भावाय प्रपद्यते ।। 32

जीव को जितनी भी योनियाँ अथवा गतियाँ प्राप्त होती हैं , वे सब उनके गुणों और कर्मों के अनुसार ही होती हैं। हे सौम्य ! सब – के – सब गुण चित्त से ही सम्बन्ध रखते हैं ( इसलिए जीव उन्हें अनायास ही जीत सकता है ) जो जीव उन पर विजय प्राप्त कर लेता है , वह भक्तियोग के द्वारा मुझमें ही परिनिष्ठित हो जाता है और अंततः मेरा वास्तविक स्वरूप , जिसे मोक्ष भी कहते हैं , प्राप्त कर लेता है ।। 32

 

तस्माद देहमिमं लब्ध्वा ज्ञानविज्ञानसम्भवम।

गुणसंगं विनिर्धूय मां भजन्तु विचक्षणाः ।। 33

निःसंगो मां भजेद विद्वानप्रमत्तो जितेन्द्रियः ।

रजस्तमश्चाभिजयेत सत्त्वसंसेवया मुनिः ।। 34

सत्त्वं चाभिजयेद युक्तौ नैरपेक्ष्येण शान्तधीः ।

सम्पद्यते गुणैर्मुक्तो जीवो जीवम विहाय मां।। 35

योगयुक्ति से चित्तवृत्तियों को शांत कर के निरपेक्षता के द्वारा सत्त्व गुण पर भी विजय प्राप्त कर ले। इस प्रकार गुणों से मुक्त हो कर जीव अपने जीव भाव को छोड़ देता है और मुझसे एक हो जाता है ।। 35

 

जीवो जीव विनिर्मुक्तो गुणैश्चाशयसम्भवैः ।

मयैव ब्रह्मणा पूर्णो न बहिर्नान्तरश्चरेत।। 36

जीव लिंगशरीर रूप अपनी उपाधि जीवत्त्व से तथा अन्तः करण में उदय होने वाली सत्त्वादि गुणों की वृत्तियों से मुक्त होकर मुझ ब्रह्म की अनुभूति से एकत्व दर्शन से पूर्ण हो जाता है और वह फिर वाह्य अथवा आंतरिक किसी भी विषय में नहीं जाता ।। 36

 

 

इति श्रीमदभागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे पंचविंशो ध्यायः ।।25

 

   Next 

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!