अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग
28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः॥1.41॥
अधर्म-अधर्म; अभिभवात्-प्रबलता होने से; कृष्ण-श्रीकृष्ण; प्रदुष्यन्ति-अपवित्र हो जाती हैं; परिवार-कुल; स्त्रिय-परिवार की स्त्रियां; स्त्रीषू-स्त्रीत्व; दुष्टासु-अपवित्र होने से वार्ष्णेय-वृष्णिवंशी; जायते-उत्पन्न होती है; वर्णसङ्कर -अवांछित सन्तान।
अधर्म की प्रबलता के साथ हे कृष्ण! कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं और स्त्रियों के दुराचारिणी होने से हे वृष्णिवंशी! अवांछित संतानें जन्म लेती हैं।।1.41।।
‘अधर्माभिभवात्कृष्ण ৷৷. प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः’ – धर्म का पालन करने से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। अन्तःकरण शुद्ध होने से बुद्धि सात्त्विकी बन जाती है। सात्त्विकी बुद्धि में क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इसका विवेक जाग्रत रहता है परन्तु जब कुल में अधर्म बढ़ जाता है तब आचरण अशुद्ध होने लगते हैं जिससे अन्तःकरण अशुद्ध हो जाता है। अन्तःकरण अशुद्ध होने से बुद्धि तामसी बन जाती है। बुद्धि तामसी होने से मनुष्य अकर्तव्य को कर्तव्य और कर्तव्य को अकर्तव्य मानने लग जाता है अर्थात् उसमें शास्त्रमर्यादा से उलटी बातें पैदा होने लग जाती हैं। इस विपरीत-बुद्धि से कुल की स्त्रियाँ दूषित अर्थात् व्यभिचारिणी हो जाती हैं। ‘स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः’ – स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर पैदा हो जाता है (टिप्पणी प0 29) । पुरुष और स्त्री दोनों अलग-अलग वर्ण के होने पर उनसे जो संतान पैदा होती है वह वर्णसंकर कहलाती है। अर्जुन यहाँ ‘कृष्ण’ सम्बोधन देकर यह कह रहे हैं कि आप सबको खींचने वाले होने से ‘कृष्ण’ कहलाते हैं तो आप यह बतायें कि हमारे कुल को आप किस तरफ खींचेंगे अर्थात् किधर ले जायँगे ? वार्ष्णेय सम्बोधन देने का भाव है कि आप वृष्णिवंश में अवतार लेने के कारण ‘वार्ष्णेय’ कहलाते हैं परन्तु जब हमारे कुल (वंश ) का नाश हो जायेगा तब हमारे वंशज किस कुल के कहलायेंगे ? अतः कुल का नाश करना उचित नहीं है – स्वामी रामसुखदास जी