भगवद गीता अध्याय 1 " अर्जुन विषाद योग "

 

 

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अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग 

28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या

 

 

Arjun Vishad Yog

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥1.45॥

 

अहो-ओह; बत-कितना; महत्-महान; पापम्-पाप कर्म; कर्तुम् -करने के लिए; व्यवसिता-निश्चय किया है; वयम्-हमने; यत्-क्योंकि; राज्यसुखलोभेने-राजसी सुख की इच्छा से; हन्तुम् – मारने के लिए; स्वजनम्-अपने सम्बन्धियों को; उद्यता:-तत्पर।

 

हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी कितना महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं॥1.45॥

अहो बत ৷৷. स्वजनमुद्यताः – ये दुर्योधन आदि  दुष्ट हैं। इनकी धर्म पर दृष्टि नहीं है। इन पर लोभ सवार हो गया है। इसलिये ये युद्ध के लिये तैयार हो जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है परन्तु हम लोग तो धर्म-अधर्म को , कर्तव्य-अकर्तव्य को , पुण्य-पाप को जानने वाले हैं। ऐसे जानकार होते हुए भी अनजान मनुष्यों की तरह हम लोगों ने बड़ा भारी पाप करने का निश्चय विचार कर लिया है। इतना ही नहीं युद्ध में अपने स्वजनों को मारने के लिये अस्त्र-शस्त्र लेकर तैयार हो गये हैं । यह हम लोगों के लिये बड़े भारी आश्चर्य की और खेद (दुःख) की बात है अर्थात् सर्वथा अनुचित बात है। हमारी जो जानकारी है , हमने जो शास्त्रों से सुना है , गुरुजनों से शिक्षा पायी है ,अपने जीवन को सुधारने का विचार किया है , उन सबका अनादर करके आज हमने युद्धरूपी पाप करने के लिये विचार कर लिया है – यह बड़ा भारी पाप है – महत्पापम् । इस श्लोक में ‘अहो’ और ‘बत’ ये दो पद आये हैं। इनमें से ‘अहो’ पद आश्चर्य का वाचक है। आश्चर्य यही है कि युद्ध से होने वाली अनर्थ परम्परा को जानते हुए भी हम लोगों ने युद्ध-रूपी बड़ा भारी पाप करने का पक्का निश्चय कर लिया है । दूसरा  ‘बत’ पद खेद का , दुःख का वाचक है। दुःख यही है कि थोड़े दिन रहने वाले राज्य और सुख के लोभ में आकर हम अपने कुटुम्बियों को मारने के लिये तैयार हो गये हैं । पाप करने का निश्चय करने में और स्वजनों को मारने के लिए तैयार होने में केवल राज्य का और सुख का लोभ ही कारण है। तात्पर्य है कि अगर युद्ध में हमारी विजय हो जायगी तो हमें राज्य-वैभव मिल जायेगा , हमारा आदर-सत्कार होगा , हमारी महत्ता बढ़ जायगी , पूरे राज्य पर हमारा प्रभाव रहेगा , सब जगह हमारा हुक्म चलेगा , हमारे पास धन होने से हम मनचाही भोग-सामग्री जुटा लेंगे , फिर खूब आराम करेंगे , सुख भोगेंगे । इस तरह हम पर राज्य और सुख का लोभ छा गया है जो हमारे जैसे मनुष्यों के लिये सर्वथा अनुचित है। इस श्लोक में अर्जुन यह कहना चाहते हैं कि अपने सद्- विचारों का , अपनी जानकारी का आदर करने से ही शास्त्र , गुरुजन आदि की आज्ञा मानी जा सकती है परन्तु जो मनुष्य अपने सद् – विचारों का निरादर करता है वह शास्त्रों की , गुरुजनों की और सिद्धान्तों की अच्छी-अच्छी बातों को सुनकर भी उन्हें धारण नहीं कर सकता। अपने सद्विचारों का बार-बार निरादर , तिरस्कार करने से सद्विचारों की सृष्टि बंद हो जाती है। फिर मनुष्य को दुर्गुण-दुराचार से रोकने वाला है ही कौन ? ऐसे ही हम भी अपनी जानकारी का आदर नहीं करेंगे तो फिर हमें अनर्थ-परम्परा से कौन रोक सकता है ? अर्थात् कोई नहीं रोक सकता। यहाँ अर्जुन की दृष्टि युद्धरूपी क्रिया की तरफ है। वे युद्धरूपी क्रिया को दोषी मानकर उससे हटना चाहते हैं परन्तु वास्तव में दोष क्या है ? इस तरफ अर्जुन की दृष्टि नहीं है। युद्ध में कौटुम्बिक मोह , स्वार्थ-भाव , कामना ही दोष है पर इधर दृष्टि न जाने के कारण अर्जुन यहाँ आश्चर्य और खेद प्रकट कर रहे हैं जो कि वास्तव में किसी भी विचारशील , धर्मात्मा , शूरवीर क्षत्रिय के लिये उचित नहीं है। अर्जुन ने पहले 38वें श्लोक में दुर्योधनादि के युद्ध में प्रवृत्त होने में , कुलक्षय के दोष में और मित्र-द्रोह के पाप में लोभ को कारण बताया और यहाँ भी अपने को राज्य और सुख के लोभ के कारण महान पाप करने को उद्यत बता रहे हैं। इससे सिद्ध होता है कि अर्जुन पाप के होने में लोभ को कारण मानते हैं। फिर भी आगे तीसरे अध्याय के 36वें श्लोक में अर्जुन ने ‘मनुष्य न चाहते हुए भी पाप का आचरण क्यों कर बैठता है ? ऐसा प्रश्न क्यों किया ? इसका समाधान है कि यहाँ तो कौटुम्बिक मोह के कारण अर्जुन युद्ध से निवृत्त होने को धर्म और युद्ध में प्रवृत्त होने को अधर्म मान रहे हैं अर्थात् उनकी शरीर आदि को लेकर केवल लौकिक दृष्टि है । इसलिये वे युद्ध में स्वजनों को मारने में लोभ को कारण मान रहे हैं परन्तु आगे गीता का उपदेश सुनते-सुनते उनमें अपने श्रेय की , कल्याण की इच्छा जाग्रत हो गयी (गीता 3। 2)। इसलिये वे कर्तव्य को छोड़कर न करने योग्य काम में प्रवृत्त होने में कौन कारण है ? ऐसा पूछते हैं अर्थात् वहाँ (3। 36 में) अर्जुन कर्तव्य की दृष्टि से , साधक की दृष्टि से पूछते हैं। सम्बन्ध   आश्चर्य और खेद में निमग्न हुए अर्जुन आगे के श्लोक में अपनी दलीलों का अन्तिम निर्णय बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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