भगवद गीता अध्याय 1 " अर्जुन विषाद योग "

 

 

Previous       Menu      Next

 

अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग 

28-47 अर्जुनका विषाद,भगवान के नामों की व्याख्या

 

 

Arjun Vishad Yog

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥1.46॥

 

यदि-यदि; माम्-मुझको; अप्रतीकारम्-प्रतिरोध न करने पर; अशस्त्रम्-बिना शास्त्र के; शस्त्र-पाणयः-वे जिन्होंने हाथों में शस्त्र धारण किए हुए हैं; धार्तराष्ट्राः-धृतराष्ट्र के पुत्र; रणे-युद्धभूमि में; हन्यु:-मार देते है; तत्-वह; मे–मेरे लिए; क्षेम-तरम् श्रेयस्कर; भवेत् होगा।

 

भावार्थ : यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा॥1.46॥

 

यदि माम् ৷৷. क्षेमतरं भवेत् – अर्जुन कहते हैं कि अगर मैं युद्ध से सर्वथा निवृत्त हो जाऊँगा तो शायद ये दुर्योधन आदि भी युद्ध से निवृत्त हो जायँगे। कारण कि हम कुछ चाहेंगे ही नहीं , लड़ेंगे भी नहीं तो फिर ये लोग युद्ध करेंगे ही क्यों ? परन्तु कदाचित जोश में भरे हुए तथा हाथों में शस्त्र धारण किये हुए ये धृतराष्ट्र के पक्षपाती लोग सदा के लिये हमारे रास्ते का काँटा निकल जाय , वैरी समाप्त जो जाय – ऐसा विचार करके सामना न करने वाले तथा शस्त्ररहित मेरे को मार भी दें तो उनका वह मारना मेरे लिये हितकारक ही होगा। कारण कि मैंने युद्ध में गुरुजनों को मार कर बड़ा भारी पाप करने का जो निश्चय किया था उस निश्चयरूप पाप का प्रायश्चित्त हो जायेगा , उस पाप से मैं शुद्ध हो जाऊँगा। तात्पर्य है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो मैं भी पाप से बचूँगा और मेरे कुल का भी नाश नहीं होगा। जो मनुष्य अपने लिये जिस किसी विषय का वर्णन करता है उस विषय का उसके स्वयं पर असर पड़ता है। अर्जुन ने भी जब शोकाविष्ट होकर 28वें श्लोक से बोलना आरम्भ किया तब वे उतने शोकाविष्ट नहीं थे जितने वे अब शोकाविष्ट हैं। पहले अर्जुन युद्ध से उपरत नहीं हुए पर शोक आविष्ट होकर बोलते-बोलते अन्त में वे युद्ध से उपरत हो जाते हैं और बाणसहित धनुष का त्याग करके बैठ जाते हैं। भगवान ने यह सोचा कि अर्जुन के बोलने का वेग निकल जाय तो मैं बोलूँ अर्थात् बोलने से अर्जुन का शोक बाहर आ जाये , भीतर में कोई शोक बाकी न रहे तभी मेरे वचनों का उस पर असर होगा। अतः भगवान बीच में कुछ नहीं बोले। विशेष बात – अब तक अर्जुन ने अपने को धर्मात्मा मानकर युद्ध से निवृत्त होने में जितनी दलीलें , युक्तियाँ दी हैं – संसार में रचे-पचे लोग अर्जुन की उन दलीलों को ही ठीक समझेंगे और आगे भगवान अर्जुन को जो बातें समझायेंगे उनको ठीक नहीं समझेंगे । इसका कारण यह है कि जो मनुष्य जिस स्थिति में हैं उस स्थिति की उस श्रेणी की बात को ही वे ठीक समझते हैं , उससे ऊँची श्रेणी की बात वे समझ ही नहीं सकते। अर्जुन के भीतर कौटुम्बिक मोह है और उस मोह से आविष्ट होकर ही वे धर्म की साधुता की बड़ी अच्छी-अच्छी बातें कह रहे हैं। अतः जिन लोगों के भीतर कौटुम्बिक मोह है उन लोगों को ही अर्जुन की बातें ठीक लगेंगी परन्तु भगवान की दृष्टि जीव के कल्याण की तरफ है कि उसका कल्याण कैसे हो ? भगवान की इस ऊँची श्रेणी की दृष्टि को वे (लौकिक दृष्टि वाले) लोग समझ ही नहीं सकते। अतः वे भगवान की बातों को ठीक नहीं मानेंगे बल्कि ऐसा मानेंगे कि अर्जुन के लिये युद्धरूपी पाप से बचना बहुत ठीक था पर भगवान ने उनको युद्ध में लगाकर ठीक नहीं किया। वास्तव में भगवान ने अर्जुन से युद्ध नहीं कराया है बल्कि उनको अपने कर्तव्य का ज्ञान कराया है। युद्ध तो अर्जुन को कर्तव्यरूप से स्वतः प्राप्त हुआ था। अतः युद्ध का विचार तो अर्जुन का खुद का ही था , वे स्वयं ही युद्ध में प्रवृत्त हुए थे तभी वे भगवान को निमन्त्रण देकर लाये थे परन्तु उस विचार को अपनी बुद्धि से अनिष्टकारक समझकर वे युद्ध से विमुख हो रहे थे अर्थात् अपने कर्तव्य के पालन से हट रहे थे। इस पर भगवान ने कहा कि यह जो तू युद्ध नहीं करना चाहता यह तेरा मोह है। अतः समय पर जो कर्तव्य स्वतः प्राप्त हुआ है उसका त्याग करना उचित नहीं है।कोई बद्रीनारायण जा रहा था परन्तु रास्ते में उसे दिशाभ्रम हो गया अर्थात् उसने दक्षिण को उत्तर और उत्तर को दक्षिण समझ लिया। अतः वह बद्रीनारायण की तरफ न चलकर उलटा चलने लग गया। सामने से उसको एक आदमी मिल गया। उस आदमी ने पूछा कि भाई कहाँ जा रहे हो ? वह बोला बद्रीनारायण। वह आदमी बोला कि भाई ! बद्रीनारायण इधर नहीं है , उधर है। आप तो उलटे जा रहे हैं । अतः वह आदमी उसको बद्रीनारायण भेजने वाला नहीं है किन्तु उसको दिशा का ज्ञान करा कर ठीक रास्ता बताने वाला है। ऐसे ही भगवान ने अर्जुन को अपने कर्तव्य का ज्ञान कराया है , युद्ध नहीं कराया है। स्वजनों को देखने से अर्जुन के मन में यह बात आयी थी कि मैं युद्ध नहीं करूँगा – न योत्स्ये  (2। 9) पर भगवान का उपदेश सुनने पर अर्जुन ने ऐसा नहीं कहा कि मैं युद्ध नहीं करूँगा किन्तु ऐसा कहा कि मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा – करिष्ये वचनं तव  (18। 73) अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन करूँगा। अर्जुन के इन वचनों से यही सिद्ध होता है कि भगवान ने अर्जुन को अपने कर्तव्य का ज्ञान कराया है। वास्तव में युद्ध होना अवश्यम्भावी था क्योंकि सबकी आयु समाप्त हो चुकी थी। इसको कोई भी टाल नहीं सकता था। स्वयं भगवान ने विश्वरूपदर्शन के समय अर्जुन से कहा है कि मैं बढ़ा हुआ काल हूँ और सबका संहार करने के लिये यहाँ आया हूँ। अतः तेरे युद्ध किये बिना भी ये विपक्ष में खड़े योद्धालोग बचेंगे नहीं (11। 32)। इसलिये यह नरसंहार अवश्यम्भावी होनहार ही था। यह नरसंहार अर्जुन युद्ध न करते तो भी होता। अगर अर्जुन युद्ध नहीं करते तो जिन्होंने माँ की आज्ञा से द्रौपदी के साथ अपने सहित पाँचों भाइयों का विवाह करना स्वीकार कर लिया था , वे युधिष्ठिर तो माँ की युद्ध करने की आज्ञा से युद्ध अवश्य करते ही। भीमसेन भी युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते क्योंकि उन्होंने कौरवों को मारने की प्रतिज्ञा कर रखी थी। द्रौपदी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि अगर मेरे पति (पाण्डव) कौरवों से युद्ध नहीं करेंगे तो मेरे पिता (द्रुपद) , भाई (धृष्टद्युम्न) और मेरे पाँचों पुत्र तथा अभिमन्यु कौरवों से युद्ध करेंगे  (टिप्पणी प0 33) । इस तरह ऐसे कई कारण थे जिससे युद्ध को टालना सम्भव नहीं था। होनहार को रोकना मनुष्य के हाथ की बात नहीं है परन्तु अपने कर्तव्य का पालन करके मनुष्य अपना उद्धार कर सकता है और कर्तव्यच्युत होकर अपना पतन कर सकता है। तात्पर्य है कि मनुष्य अपना इष्ट-अनिष्ट करने में स्वतन्त्र है। इसलिये भगवान ने अर्जुन को कर्तव्य का ज्ञान करा कर मनुष्यमात्र को उपदेश दिया है कि उसे शास्त्र की आज्ञा के अनुसार अपने कर्तव्य के पालन में तत्पर रहना चाहिये उससे कभी च्युत नहीं होना चाहिये। पूर्वश्लोक में अर्जुन ने अपनी दलीलों का निर्णय सुना दिया। उसके बाद अर्जुन ने क्या किया ? इसको सञ्जय आगे के श्लोकमें बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

Next Page

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!