uddhav gita

 

 

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अथ द्वादशोध्यायः

सत्संग की महिमा और कर्म तथा कर्म त्याग की विधि

 

 

श्री भगवानुवाच

रोधयति मां योगो सांख्यं धर्म एव

स्वाध्यायस्त पस्त्यागो नेष्टा पूर्तं दक्षिणा ।। 1

व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमाः

यथा वरुन्धे सत्सङ्गः सर्व संगापहो हि माम।। 2

 

भगवान श्री कृष्ण कहते हैंप्रिय उद्धव ! जगत मे जितनी आसक्तियां हैं , उन्हें सत्संग नष्ट कर देता है यही कारण है कि सत्संग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है वैसा साधन योग है सांख्य , धर्मपालन और स्वाध्याय तपस्या , त्याग , इष्टापूर्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता  कहाँ तक कहूँव्रत , यज्ञ , वेद , तीर्थ और यमनियम भी सत्संग के समान मुझे वश में करने में समर्थ नहीं हैं।। 1-2

 

सत्संगेन हि दैतेया यातुधाना मृगाः खगाः

गन्धर्वाप्सरसो नागाः सिद्धाश्चारण गुह्यकाः ।। 3

विद्याधरा मनुष्येषु वैश्याः शूद्राः स्त्रियोंान्त्यजाः

रजस्तमः प्रकृत यस्तस्मिन्स्त युगेनघ।।4

बहवो मत्पदम प्राप्तास्त्वाष्ट्र कायाध वादयः

वृष पर्वा बलिर्बाणो मयश्चाथ विभीषणः ।। 5

सुग्रीवो हनुमानृक्षो गजो गृध्रो वणिक्पथः

व्याधः कुब्जा व्रजे गोप्यो यज्ञ पत्न्यस्तथा परे ।। 6

 

निष्पाप उद्धव ! यह एक युग की नहीं , सभी युगों की एक सी बात है सत्संग के द्वारा ही दैत्यराक्षस , पशुपक्षी , गन्धर्वअप्सरा , नागसिद्ध , चारणगुह्यक और विद्याधरों को मेरी प्राप्ति हुई है मनुष्यों में वैश्य , शूद्र , स्त्री और अन्त्यज आदि रजोगुणीतमोगुणी प्रकृति के बहुत से जीवों ने मेरा परम पद प्राप्त किया है वृत्रासुर , प्रह्लाद , वृषपर्वा , बलि , बाणासुर, मय दानव , विभीषण , सुग्रीव , हनुमान , जांबवान , गजेंद्र , जटायु , तुलाधार वैश्य , धर्म व्याध , कुब्जा , व्रज की गोपियाँ , यज्ञ पत्नियां और दूसरे लोग भी सत्संग के प्रभाव से ही मुझे प्राप्त कर सके हैं ।। 3-6

 

ते नाधीत श्रुति गणा नोपसित महत्तमाः

अव्रतातप्ततपसः सत्संगान्मामुपागताः ।। 7

 

उन लोगों ने तो वेदों का स्वाध्याय किया था और विधिपूर्वक महापुरुषों की उपासना की थी इसी प्रकार उन्होंने कृच्छ्र चांद्रायण आदि व्रत और कोई तपस्या भी नहीं की थी बस केवल सत्संग के प्रभाव से ही वे मुझे प्राप्त हो गए ।। 7

 

केवलेन हि भावेन गोप्यो गावो नगा मृगाः

ये अन्ये मूढ़ धियो नागाः सिद्धा मामी रन्जसा।। 8

 

गोपियाँ, गायें , यमलार्जुन आदि वृक्ष , व्रज के हिरन आदि पशु , कालिया आदि नागये तो साधन साध्य के सम्बन्ध में सर्वथा ही मूढ़ बुद्धि थे इतने ही नहीं , ऐसेऐसे और भी बहुत हो गए हैं , जिन्होंने केवल प्रेमपूर्ण भाव के द्वारा ही अनायास मेरी प्राप्ति कर ली और कृतकृत्य हो गए ।।8

 

यं  योगेन सांख्येन दान व्रत तपो अध्वरैः

व्याख्या स्वाध्याय संन्यासैः प्राप्नुयाद यत्नवानपि।। 9

 

उद्धव ! बड़ेबड़े प्रयत्न शील साधक योग , सांख्य , दान , व्रत , तपस्या , यज्ञ , श्रुतियों की व्याख्या , स्वाध्याय और संन्यास आदि साधनों के द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते ; परन्तु सत्संग के द्वारा तो मैं अत्यंत सुलभ हो जाता हूँ 9

 

रामेन सार्धं मथुराम प्रणीते

श्वाफल्किना मय्य नुरक्तचित्ताः।

विगाढ़ भावेन मे वियोग

तीव्रा धयो अन्यम ददृशुः सुखाय।। 10

 

उद्धव ! जिस समय अक्रूर जी भैया बलराम जी के साथ मुझे व्रज से मथुरा ले आये , उस समय गोपियों का ह्रदय गाढ़ प्रेम के कारण मेरे अनुराग के रंग में रंगा हुआ था मेरे वियोग की तीव्र व्याधि से वे vyakul  हो रही थीं और मेरे अतिरिक्त कोई भी दूसरी वस्तु उन्हें सुख कारक नहीं जान पड़ती थी ।। 10

 

तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठ तमेन नीता

मय्यैव वृन्दावन गोचरेण।

क्षणार्ध वत्ताः पुनरंग तासां

हीना मया कल्पसमा बभूवुः ।। 11

 

तुम जानते हो कि मैं ही उनका एकमात्र प्रियतम हूँ जब मैं वृन्दावन में था , तब उन्होंने बहुत सी रात्रियाँवे रास की रात्रियाँ मेरे साथ आधे क्षण के समान बिता दी थीं ; परन्तु प्यारे उद्धव ! मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिए एकएक कल्प के समान हो गयीं ।। 11

 

ता नाविदन मय्य नुषंग बद्ध

धियः स्वमात्मा नम दस्तथेदं

यथा समाधौ मुनयोब्धितोये

नद्यः प्रविष्टा इव नाम रूपे।। 12

 

जैसे बड़ेबड़े ऋषिमुनि समाधि में स्थित होकर तथा गंगा आदि बड़ीबड़ी नदियाँ समुद्र में मिलकर अपने नामरूप खो देती हैं , वैसे ही वे गोपियाँ परम प्रेम के द्वारा मुझमें इतनी तन्मय हो गयी थीं कि उन्हें लोकपरलोक , शरीर और अपने कहलाने वाले पतिपुत्रादि की भी सुधबुध नहीं रह गई थी 12

 

मत्कामा रमणं जारम स्वरूप विदोबलाः

ब्रह्म मां परमं प्रापुः संगाच्छत सहस्रशः ।। 13

 

उद्धव ! उन गोपियों में बहुत सी तो ऐसी थीं, जो मेरे वास्तविक स्वरूप को नहीं जानती थीं वे मुझे भगवान् जानकर केवल प्रियतम ही समझती थीं और जार भाव से मुझसे मिलने की आकांक्षा किया करती थीं। उन साधन हीन सैंकड़ों , हजारों अबलाओं ने केवल संग के प्रभाव से ही मुझ परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लिया ।13

 

तस्मात्त्व मुद्ध वोत सृज्य चोदनाम प्रति चोदनाम 

प्रवृत्तम निवृत्तम श्रोतव्यं श्रुतमेव ।। 14

मामेकमेव शरण मात्मानं सर्व देहिनां

याहि सर्वात्मभावेन मया स्या ह्यकुतोभयः ।। 15

 

इसलिए उद्धव ! तुम श्रुतिस्मृति , विधिनिषेध , प्रवृत्तिनिवृत्ति और सुनने योग्य तथा सुने हुए विषय का भी परित्याग कर के सर्वत्र मेरी ही भावना करते हुए समस्त प्राणियों के आत्म स्वरूप मुझ एक की ही शरण सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करो ; क्योंकि मेरी शरण में जाने से तुम सर्वथा निर्भय हो जाओगे ।। 14-15

 

उद्धव उवाच

संशयः शृण्वतो वाचम तव योगेश्वरेश्वर

निर्वतत आत्मस्थो येन भ्राम्यति में मनः ।। 16

 

उद्धव जी ने कहासनकादि योगेश्वरों के भी परमेश्वर प्रभु ! यों तो मै आपका उपदेश सुन रहा हूँ परन्तु इस से मेरे मन का संदेह नहीं मिट रहा है मुझे स्वधर्म का पालन करना चाहिए या सब कुछ छोड़ कर आपकी शरण ग्रहण करनी चाहिए , मेरा मन इसी दुविधा में लटक रहा है। आप कृपा कर के मुझे भलीभांति समझाइये

 

श्री भगवानुवाच

एष जीवो विवर प्रसूतिः

प्राणेन घोषेण गुहाम प्रविष्टः

मनोमयं सूक्ष्म मुपेत्य रूपं

मात्रा स्वरो वर्ण इति स्थविष्ठः।। 17

 

भगवान श्री कृष्ण बोलेप्रिय उद्धव ! जिस परमात्मा का परोक्ष रूप से वर्णन किया जाता है , वे साक्षात अपरोक्षप्रत्यक्ष ही हैं , क्योंकि वे ही निखिल वस्तुओं को सत्तास्फूर्तिजीवनदान देने वाले हैं। वे ही पहले अनाहत नाद स्वरूप परा वाणी नामक प्राण के साथ मूलाधार में प्रवेश करते हैं उसके बाद मणि पूरक चक्र ( नाभि स्थान ) में आकर पश्यन्ति वाणी का मनोमय सूक्ष्म रूप धारण करते हैं तदनन्तर कण्ठदेश में स्थित विशुद्ध नामक चक्र में आते हैं और वहाँ मध्यमा वाणी के रूप में व्यक्त होते हैं फिर क्रमशः मुख में आकर हृस्वदीर्घादि मात्रा , उदात्तअनुदात्त आदि स्वर तथा ककारादि वर्ण रूप स्थूलवैखरी वाणी का रूप ग्रहण कर लेते हैं ।। 17

 

यथानलः खेअनिलबंधुरूष्मा

बलेन दारुण्यधिमथ्यमानः

अणुः प्रजातो हविषा समिध्यते 

तथैव मे व्यक्तिरियं हि वाणी ।। 18

 

अग्नि आकाश में ऊष्मा अथवा विद्युत के रूप से अव्यक्त रूप में स्थित है जब बलपूर्वक काष्ठ मंथन किया जाता है , तब वायु की सहायता से वह पहले अत्यंत सूक्ष्म चिंगारी के रूप में प्रकट होती है और फिर आहुति देने पर प्रचंड रूप धारण कर लेती है , वैसे ही मैं भी शब्द ब्रह्म स्वरूप से क्रमशः परा , पश्यन्ति , मध्यमा और वैखरी वाणी के रूप में प्रकट होता हूँ ।। 18

 

एवं गदिः कर्म गतिर्विसर्गो

घ्राणो रसो द्रिक स्पर्शः श्रुतिश्च

संकल्प विज्ञान मथाभिमानः 

सूत्रं रजः सत्त्व तमो विकारः ।। 19

 

इसी प्रकार बोलना , हाथों से काम करना , पैरों से चलना , मूत्रेन्द्रिय तथा गुदा से मलमूत्र त्यागना , सूंघना , चखना , देखना , छूना, सुनना, मन से संकल्पविकल्प करना , बुद्धि से समझना , अहंकार के द्वारा अभिमान करना , महतत्त्व के रूप में सबका तानाबाना बुनना, तथा सत्त्व गुण , रजो गुण और तमो गुण के सारे विकार ; कहाँ तक कहूँसमस्त कर्ता , करण और कर्म मेरी ही अभिव्यक्तियाँ है ।। 19

 

अयं हि जीवस्त्रि वृदब्ज योनिर

व्यक्त एको वयसा आद्यः।

विश्लिष्ट शक्तिर्बहुधेव भाति

बीजानि योनिं प्रति पद्य यद्वत ।। 20

 

यह सबको जीवित करने वाला परमेश्वर ही इस त्रिगुणमय ब्रह्माण्डकमल का कारण है यह आदिपुरुष पहले एक और अव्यक्त था जैसे उपजाऊ खेत में बोया हुआ बीज शाखापत्रपुष्पादि अनेक रूप धारण कर लेता है , वैसे ही काल गति से माया का आश्रय लेकर शक्तिविभाजन के द्वारा परमेश्वर ही अनेक रूपों में प्रतीत होने लगता है ।। 20

 

यस्मिन्निदं प्रोतं शेष मोतम

पटो यथा तंतु वितान संस्थः।

एष संसार तरुः पुराणः

कर्मात्मकः पुष्प फले प्रसूते ।। 21

 

जैसे धागों के तानेबाने में वस्त्र ओतप्रोत रहता है , वैसे ही इस जगत के ना रहने पर भी परमात्मा रहता है ; किन्तु यह जगत परमात्म स्वरूप ही हैपरमात्मा के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है यह संसार वृक्ष अनादि और प्रवाह रूप से नित्य है इसका स्वरूप ही हैकर्म की परंपरा तथा इस वृक्ष के फलफूल हैंमोक्ष और भोग ।। 21

 

द्वे अस्य बीजे शत मूलस्त्रि नालः

पंचस्कंधः पंच रस प्रसूतिः

दशैक शाखो द्वि सुपर्ण नीड

स्त्रिवल्कलो द्वि फलो अर्कम प्रविष्टः ।। 22

 

इस संसार वृक्ष के दो बीज हैंपाप और पुण्य असंख्य वासनाएं जड़ें हैं और तीन गुण ताने हैं पांच भूत इसकी मोटीमोटी प्रधान शाखाएं हैं और शब्दादि पांच विषय रस हैं , ग्यारह इन्द्रियाँ शाखा हैं तथा जीव और ईश्वरदो पक्षी इसमें घोंसला बनाकर निवास करते हैं इस वृक्ष में वात , पित्त और कफ रूप तीन तरह की छाल हैं इसमें दो तरह के फल लगते हैंसुख और दुःख यह विशाल वृक्ष सूर्यमण्डल तक फैला हुआ है ( इस सूर्यमण्डल का भेदन कर जाने वाले मुक्त पुरुष फिर संसारचक्र में नहीं पड़ते )

 

अदंति चैकं फल मस्य गृध्रा

ग्रामे चरा एकमरण्य वासाः।

हंसा एकं बहु रूप

मिज्यैर्मायामयं वेद वेद वेदम ।। 23

 

जो गृहस्थ शब्दरूपरस आदि विषयों में फंसे हुए हैं , वे कामना से भरे हुए होने के कारण गीध के समान हैं वे इस वृक्ष का दुःख रूप फल भोगते हैं , क्योंकि वे अनेक प्रकार के कर्मों के बंधन में फंसे रहते हैं जो अरण्यवासी परमहंस विषयों से विरक्त हैं , वे इस वृक्ष में राजहंस के समान हैं और वे इसका सुख रूप फल भोगते हैं प्रिय उद्धव ! वास्तव में मैं एक ही हूँ यह मेरा जो अनेकों प्रकार का रूप है वह तो केवल मायामय है जो इस बात को गुरुओं के द्वारा समझ लेता है , वही वास्तव में समस्त वेदों का रहस्य जानता है ।।  

 

एवं गुरुपासन यैक भक्त्या

विद्या कुठारेण शितेन धीरः।

विवृश्च्य जीवा शयम प्रमत्तः

सम्पद्य चात्मानमथ त्यजास्त्रं।। 24

 

अतः उद्धव ! तुम इस प्रकार गुरुदेव की उपासना रूप अनन्य भक्ति के द्वारा अपने ज्ञान की कुल्हाड़ी को तीखी कर लो और उसके द्वारा धैर्य एवं सावधानी से जीव भाव को काट डालो फिर परमात्म स्वरूप होकर उस वृत्ति रूप अस्त्रों को भी छोड़ दो और अपने अखंड स्वरूप में ही स्थित हो रहो 24

 

 

इति श्रीमदभागवत महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे द्वादशोअध्यायः ।। 12

 

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