अथैकादशो अध्यायः
बद्ध , मुक्त और भक्त जनों के लक्षण
श्री भगवानुवाच
बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो में न वस्तुतः ।
गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न बन्धनं ।। 1
भगवान श्री कृष्ण ने कहा – प्यारे उद्धव ! आत्मा बद्ध है या मुक्त है , इस प्रकार की व्याख्या या व्यवहार मेरे अधीन रहने वाले सत्वादि गुणों की उपाधि से ही होता है । वस्तुतः – तत्त्व दृष्टि से नहीं। सभी गुण मायमूलक हैं – इंद्रजाल हैं – जादू के खेल के समान हैं । इसलिए न मेरा मोक्ष है , न तो मेरा बंधन ही है ।। 1
शोक मोहौ सुखं दुःखं देहापत्तिश्च मायया ।
स्वप्नो यथाऽऽत्मनः ख्यातिः संसृतिर्न तू वास्तवी।। 2
जैसे स्वप्न में जीव जो भी देखता है वह उस समय उसे सत्य प्रतीत होता है परन्तु जागने के बाद उसे आभास होता है कि वह सत्य नहीं – मिथ्या है ; वैसे ही शोक-मोह , सुख – दुःख , शरीर की उत्पत्ति और मृत्यु – यह सब संसार एक स्वप्न है जो अविद्या रुपी माया के कारण प्रतीत होने पर भी वास्तविक नहीं है ; वास्तव में यह सब कुछ नहीं है ।। 2
विद्या विद्ये मम तनू विद्ध युद्धव शरीरिणाम ।
मोक्षबन्धकरि आद्ये मायया में विनिर्मिते ।। 3
उद्धव ! शरीरधारियों को मुक्ति का अनुभव कराने वाली आत्म विद्या और बंधन का अनुभव कराने वाली अविद्या – ये दोनों ही मेरी अनादि शक्तियां हैं । मेरी माया से ही इनकी रचना हुई है । इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है । 3
एकस्यैव ममाम शस्य जीवस्यैव महामते
बँधोऽस्या विद्यया नादिर्विद्या च तथे तरः।। 4
भाई! तुम तो स्वयं बड़े बुद्धिमान हो , विचार करो – जीव तो एक ही है । वह व्यवहार के लिए ही मेरे अंश के रूप में कल्पित हुआ है , वस्तुतः मेरा स्वरूप ही है । आत्मज्ञान से संपन्न होने पर उसे मुक्त कहते हैं और आत्मा का ज्ञान न होने पर बद्ध ( बंधन युक्त ) और यह अज्ञान अनादि होने से बंधन भी अनादि कहलाता है ।। 4
अथ बद्धस्य मुक्तस्य वैलक्षण्यं वदामि ते
विरुद्ध धर्मिणोस्तात स्थित योरेक धर्मिणी ।। 5
इस प्रकार मुझ एक ही धर्मी में रहने पर भी जो शोक और आनंद रूप विरुद्ध धर्म वाले जान पड़ते हैं , उन बद्ध और मुक्त जीव का भेद मैं बतलाता हूँ ।
सुपर्णा वेतौ सदृशौ सखायौ
यदृच्छयैतौ कृत नीडो च वृक्षे
एकस्तयोः खादति पिप्प्लान्न मान्यो
निरन्नो अपि बलेन भूयान।। 6
वह भेद दो प्रकार का है – एक तो “नित्यमुक्त ईश्वर से जीव का भेद” और दूसरा “मुक्त – बद्ध जीव का भेद” । पहला सुनो – जीव और ईश्वर बद्ध और मुक्त के भेद से भिन्न-भिन्न होने पर भी एक ही शरीर में नियंता और नियंत्रित के रूप में स्थित हैं । ऐसा समझो कि शरीर एक वृक्ष है । इसमें ह्रदय का घोंसला बना कर जीव और ईश्वर नाम के दो पक्षी रहते हैं । वे दोनों चेतन होने के कारण समान हैं और कभी न बिछुड़ने के कारण सखा हैं । इनके निवास करने का कारण केवल लीला ही है । इतनी समानता होने पर भी जीव तो शरीर रुपी वृक्ष के फल सुख-दुःख आदि भोगता है , परन्तु ईश्वर उन्हें न भोग कर कर्म फल सुख-दुःख आदि से असंग और उनका साक्षी मात्र रहता है । अभोक्ता होने पर भी ईश्वर की यह विलक्षणता है कि वह ज्ञान , ऐश्वर्य , आनंद और सामर्थ्य आदि में भोक्ता जीव से बढ़ कर है ।। 6
आत्मान मन्यम च स वेद विद्वान
पिप्पलादि न तु पिप्पलादः।
यो अविद्यया युक स तु नित्यबद्धो
विद्या मयो यः स तु नित्य मुक्तः ।। 7
साथ ही एक यह भी विलक्षणता है कि अभोक्ता ईश्वर तो अपने वास्तविक रूप और इसके अतिरिक्त इस जगत को भी जानता है , परन्तु भोक्ता जीव न अपने वास्तविक रूप को जानता है और न अपने से अतिरिक्त को ! इन दोनों में जीव तो अविद्या से युक्त होने के कारण नित्यबद्ध है और ईश्वर विद्या स्वरूप होने के कारण नित्य मुक्त हैं ।। 7
देहस्थोऽपि न देहस्थो विद्वान स्वप्नाद यथोत्थितः ।
अदेहस्थोऽपि देहस्थः कुमतिः स्वप्नदृग यथा ।। 8
प्यारे उद्धव ! ज्ञान संपन्न पुरुष भी मुक्त ही है ; जैसे स्वप्न टूट जाने पर जगा हुआ पुरुष स्वप्न के स्मर्यमाण शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं रखता , वैसे ही ज्ञानी पुरुष सूक्ष्म और स्थूल शरीर में रहने पर भी उनसे किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता , परन्तु अज्ञानी पुरुष वास्तव में शरीर से कोई सम्बन्ध न रखने पर भी अज्ञान के कारण शरीर में ही स्थित रहता है , जैसे स्वप्न देखने वाला पुरुष स्वप्न देखते समय स्वप्निक शरीर से बंध जाता है ।। 8
इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेषु गुणैरपि गुणेषु च ।
गृह्यमाणेष्व हँकुर्यान्न विद्वान यस्त्व विक्रियः ।। 9
व्यवहार आदि में इन्द्रियाँ शब्द – स्पर्श आदि विषयों को ग्रहण करती हैं ; क्योंकि यह तो नियम ही है कि गुण ही गुण को ग्रहण करते हैं , आत्मा नहीं । इसलिए जिसने अपने निर्विकार आत्मस्वरूप को समझ लिया है , वह उन विषयों के ग्रहण – त्याग में किसी प्रकार का अभिमान नहीं करता ।। 9
दैवाधीने शरीरेऽस्मिन गुण भाव्येन कर्मणा
वर्तमानो ऽबुध स्तत्र कर्ता स्मीति निबध्यते ।। 10
यह शरीर प्रारब्ध के अधीन है । इस से शारीरिक और मानसिक जितने भी कर्म होते हैं , सब गुणों की प्रेरणा ऐसे ही होते हैं । अज्ञानी पुरुष झूठ – मूठ अपने को उन ग्रहण – त्याग आदि कर्मों का कर्ता मान बैठता है इसी अभिमान के कारण वह बँध जाता है ।। 10
एवं विरक्तः शयने आसनाटन मज्जने
दर्शन स्पर्श न घ्राण भोजन श्रवणादिषु ।। 11
न तथा बद्ध्य्ते विद्वामस्तत्र तत्रा दयन गुणान।
प्रकृतिस्ठो ऽप्यो संसक्तो यथा खं सवितानिलः ।। 12
वैशारद्येक्षया संग शितया छिन्न संशयः
प्रति बुद्ध इव स्वप्नानानात्वाद विनिवर्तते ।। 13
प्यारे उद्धव ! पूर्वोक्त पद्धति से विचार कर के विवेकी पुरुष समस्त विषयों से विरक्त रहता है और सोने – बैठने , घूमने – फिरने , नहाने , देखने , छूने , सूंघने , खाने और सुनने आदि क्रियाओं में अपने को कर्ता नहीं मानता , बल्कि गुणों को ही कर्ता मानता है । गुण ही सभी कर्मों के कर्ता-भोक्ता हैं । ऐसा जान कर विद्वान पुरुष कर्म वासना और फलों से नहीं बँधते। वे प्रकृति में रह कर भी वैसे ही असंग रहते हैं , जैसे स्पर्श आदि आकाश , जल की आर्द्रता आदि से सूर्य और गंध आदि से वायु । उनकी विमल बुद्धि की तलवार असंग – भावना की सान से या धार से और भी तीखी हो जाती है , और वे उस से अपने सारे संशय – संदेहों को काट – कूट कर फेंक देते हैं । जैसे कोई स्वप्न से जाग उठा हो , उसी प्रकार वे इस भेद बुद्धि के भ्रम से मुक्त हो जाते हैं ।। 11- 13
यस्य स्युर्वीत संकल्पाः प्राणेन्द्रिय मनोधियाम।
वृत्तयः स विनिर्मुक्तो देहस्थो ऽपि हि तद गुणैः ।। 14
जिनके प्राण , इन्द्रिय , मन और बुद्धि की समस्त चेष्टाएं बिना संकल्प के होती हैं , वे देह में स्थित रह कर भी उसके गुणों से मुक्त हैं ।। 14
यस्यात्मा हिंस्यते हिन्स्त्रैर्येन किंचिद यदृच्छया ।
अर्च्यते वा क्वचित्तत्र न व्यति क्रियते बुधः ।। 15
उन तत्वज्ञ मुक्त पुरुषों के शरीर को चाहे हिंसक लोग पीड़ा पहुचाएं और चाहे कभी कोई दैवयोग से पूजा करने लगे – वे न तो किसी के सताने से दुःखी होते हैं और न पूजा करने से सुखी ।। 15
न स्तुवीत न निन्देत कुर्वतः साध्व साधु वा।
वदतो गुण दोषाभ्यां वर्जितः समदृंगमुनिः ।। 16
जो समदर्शी महात्मा गुण और दोष की भेद दृष्टि से ऊपर उठ गए हैं , वे न तो अच्छे काम करने वाले की स्तुति करते हैं और न बुरे काम करने वाले की निंदा ; न वे किसी की अच्छी बात सुन कर उसकी सराहना करते हैं और न बुरी बात सुन कर किसी को झिड़कते ही हैं ।
न कुर्यान्न वदेत किंचिन्न ध्यायेत साध्वसाधु वा
आत्मरामो अनया वृत्त्या विचरेज्जड वन्मुनिः।। 17
जीवन मुक्त पुरुष न तो कुछ भला या बुरा कहते हैं और न सोचते ही हैं । वे व्यवहार में अपनी समान वृत्ति रख कर आत्मानंद में ही मग्न रहते हैं और जड के समान मानो कोई मूर्ख हो इस प्रकार विचरण करते रहते हैं।। 17
शब्द ब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात परे यदि
श्रमस्तस्य श्रम फलो ह्यधे नुमिव रक्षतः ।। 18
प्यारे उद्धव ! जो पुरुष वेदों का तो पारगामी विद्वान हो , परन्तु परम ब्रह्म के ज्ञान से शून्य हो , उसके परिश्रम का कोई फल नहीं है वह तो वैसा ही है , जैसे बिना दूध की गाय का पालन करने वाला ।। 18
गाम दुग्ध दोहा मसतीम च भार्यां
देहम पराधीनं सत्प्रजां च
वित्तम त्व तीर्थी कृत मंग वाचं
हीनां मया रक्षति दुःख दुःखी ।। 19
दूध न देने वाली गाय , व्याभिचारिणी स्त्री , पराधीन शरीर , दुष्ट पुत्र , सत्पात्र के प्राप्त होने पर भी दान न किया हुआ धन और मेरे गुणों से रहित वाणी व्यर्थ है । इन वस्तुओं की रखवाली करने वाला दुःख ही दुःख भोगता है ।। 19
यस्याम न मे पावन मंग कर्म
स्थित्युद्भव प्राण निरोध मस्य
लीलावतारेप्सित जन्म वा स्याद
वंध्याम गिरं तां विभ्रयान्न धीराः ।।20
इसलिए उद्धव ! जिस वाणी में जगत की उत्पत्ति , स्थिति और प्रलयरूप मेरी लोक – पावन लीला का वर्णन न हो और लीलावतारों मे भी मेरे लोकप्रिय राम – कृष्ण आदि अवतारों का यशोगान न हो , वह वाणी वन्ध्या है । बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि ऐसी वाणी का उच्चारण एवं श्रवण न करे ।। 20
एवं जिज्ञासयापोह्य नानात्व भ्रम मात्मनि।
उपारमेत विरजं मनो मय्यर्प्य सर्वगे ।। 21
प्रिय उद्धव ! जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है , आत्म जिज्ञासा और विचार के द्वारा आत्मा में जो अनेकता का भ्रम है उसे दूर कर दे और मुझ सर्व व्यापी परमात्मा में अपना निर्मल मन लगा दे तथा संसार के व्यवहारों से उपराम हो जाये ।। 21
यद्य नीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलं
मयि सर्वाणि कर्माणि निर्पेक्षः समाचर।। 22
यदि तुम अपना मन परब्रह्म में स्थित न कर सको तो सारे कर्म निरपेक्ष हो कर मेरे लिए ही करो ।। 22
श्रद्धा लुर्मे कथाः शृण्वन सुभद्रा लोक पावनीः ।
गायन्ननुस्मरन कर्म जन्म चाभिनयन मुहुः ।। 23
मेरी कथाएं समस्त लोकों को पवित्र करने वाली एवं कल्याण स्वरूपणी हैं। श्रद्धा के साथ उन्हें सुनना चाहिए । बार – बार मेरे अवतार और लीलाओं का का गान , स्मरण और अभिनय करना चाहिए ।। 23
मदर्थे धर्म कामार्थ नाचरन मदपाश्रयः
लभते निश्चलां भक्तिं मय्युद्धव सनातने।। 24
मेरे आश्रित रह कर मेरे ही लिए धर्म , काम और अर्थ का सेवन करना चाहिए । प्रिय उद्धव ! जो ऐसा करता है , उसे मुझ अविनाशी पुरुष के प्रति अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है।। 24
सत्संग लब्धया भक्त्या मयि मां स उपसिता ।
स वै मे दर्शितं सद्भिरंजसा विन्दते पदम् ।। 25
भक्ति की प्राप्ति सत्संग से होती है , जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है वह मेरी उपासना करता है , मेरे सान्निध्य का अनुभव करता है । इस प्रकार जब उसका अन्तः करण शुद्ध हो जाता है , तब वह संतों के उपदेशों के अनुसार उनके बताये हुए मेरे परम पद को – वास्तविक स्वरूप को सहज में ही प्राप्त हो जाता है । 25
उद्धव उवाच
साधुस्तवोत्तम श्लोक मतः कीदृग्विधः प्रभो ।
भक्तिस्त्वय्युपयुज्येत कीदृशी सद्भिराद्रिता ।। 26
उद्धव जी ने पूछा – भगवन ! बड़े – बड़े संत आपकी कीर्ति का गान करते हैं । आप कृपया बतलाइये कि आपके विचार से संत पुरुष का क्या लक्षण है ? आपके प्रति कैसी भक्ति करनी चाहिए , जिसका संतलोग आदर करते हैं ? 26
एतन्मे पुरुषाध्यक्ष लोकाध्यक्ष जगत्प्रभो ।
प्रणतयानुरक्ताय प्रपन्नाय च कथ्यतां।। 27
भगवन ! आप ही ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता , सत्यादि लोक और चराचर जगत के स्वामी हैं । मैं आपका विनीत , प्रेमी और शरणागत भक्त हूँ । आप मुझे भक्ति और भक्त का रहस्य बतलाइये ।। 27
त्वं ब्रह्म परमं व्योम पुरुषः प्रकृतेः परः ।
अवतीर्णो असि भगवन स्वेच्छो पात्त पृथग्वपुः ।। 28
भगवन ! मैं जानता हूँ कि आप प्रकृति से परे पुरुषोत्तम एवं चिदाकाश स्वरूप ब्रह्म हैं । आपसे भिन्न कुछ भी नहीं है ; फिर भी आपने लीला के लिए स्वेच्छा से ही यह अलग शरीर धारण करके अवतार लिया है । इसलिए वास्तव में आप ही भक्ति और भक्त का रहस्य बतला सकते हैं ।
श्री भगवानुवाच
कृपालुर कृत द्रोहस्ति तिक्षुः सर्व देहिनां ।
सत्य सारो अनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः ।। 29
भगवान् श्री कृष्ण ने कहा – प्यारे उद्धव ! मेरा भक्त कृपा की मूर्ति होता है । वह किसी भी प्राणी से वैर भाव नहीं रखता और घोर से घोर दुःख भी प्रसन्नता पूर्वक सहता है । उसके जीवन का सार है सत्य , और उसके मन में किसी प्रकार की पाप वासना कभी नहीं आती । वह समदर्शी और सबका भला करने वाला होता है ।
कामैर हत धीर्दान्तो मृदुः शुचिर किञ्चनः ।
अनीहो मितभुक शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः ।।30
उसकी बुद्धि कामनाओं से कलुषित नहीं होती । वह संयमी , मधुर स्वभाव और पवित्र होता है । संग्रह – परिग्रह से सर्वथा दूर रहता है । किसी भी वस्तु के लिए कोई चेष्टा नहीं करता । परिमित भोजन करता है और शांत रहता है । उसकी बुद्धि स्थिर होती है । उसे केवल मेरा ही भरोसा होता है और वह आत्म तत्व के चिंतन में सदा संलग्न रहता है ।। 30
अप्रमत्तो गभीरात्मा धृति मान्जित षड्गुणः।
अमानी मानदः कल्पो मैत्रः कारुणिकः कविः ।। 31
वह प्रमाद रहित , गंभीर स्वभाव और धैर्यवान होता है । भूख – प्यास , शोक – मोह और जन्म – मृत्यु – ये छहों उसके वश में रहते हैं । वह स्वयं तो कभी किसी से किसी प्रकार का सम्मान नहीं चाहता , परन्तु दूसरों का सम्मान करता रहता है । मेरे सम्बन्ध की बातें दूसरों को समझाने में बड़ा निपुण होता है और सभी के साथ मित्रता का व्यव्हार करता है । उसके ह्रदय में करुणा भरी होती है । मेरे तत्व का उसे यथार्थ ज्ञान होता है । 31
आज्ञायैवं गुणां दोषान मया आदिष्टानपि स्वकान ।
धर्मान सन्त्यज्य यः सर्वाण मां भजेत स सत्तमः ।। 32
प्रिय उद्धव ! मैंने वेदों और शास्त्रों के रूप में मनुष्यों के धर्म का उपदेश किया है , उनके पालन से अन्तः – करण शुद्धि आदि गुण और उल्लंघन से नरकादि दुःख प्राप्त होते हैं ; परन्तु मेरा जो भक्त उन्हें भी अपने ध्यान आदि में विक्षेप समझकर त्याग देता है और केवल मेरे ही भजन में लगा रहता है , वह परम संत है ।। 32
ज्ञात्वा ज्ञात्वाथ ये वै मां यावान यश्चास्मि यादृशाः ।
भजन्त्य नन्य भावेन ते मे भक्त तमा मताः ।। 33
मैं कौन हूँ , कितना बड़ा हूँ , कैसा हूँ – इन बातों को जाने , चाहे न जाने ; किन्तु जो अनन्य भाव से मेरा भजन करते हैं , वे मेरे विचार से मेरे परम भक्त हैं।। 33
मल्लिङ्गमद्भक्त जन दर्शन स्पर्श नार्चनं ।
परिचर्या स्तुतिः प्रह्वगुण कर्मानु कीर्तनम ।। 34
प्यारे उद्धव ! मेरी मूर्ति और मेरे भकजनों का दर्शन , स्पर्श , पूजा , सेवा – शुश्रुषा, स्तुति और प्रणाम करे तथा मेरे गुण और कर्मों का कीर्तन करे ।। 34
मत्कथाश्रवणे श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव ।
सर्वलाभोपहरणं दास्येनात्म निवेदनम।। 35
उद्धव ! मेरी कथा सुनने मे श्रद्धा रखे और निरंतर मेरा ध्यान करता रहे । जो कुछ मिले , वह मुझे समर्पित कर दे और दास्यभाव से मुझे आत्मनिवेदन करे ।। 35
मज्जन्म कर्म कथनं मम पर्वानुमोदनम।
गीत तांडव वादित्र गोष्ठी भिर्मद गृहोत्सवः ।। 36
मेरे दिव्य जन्म और कर्मों की चर्चा करे । जन्माष्टमी , रामनवमी आदि पर्वों पर आनंद मनावे और संगीत , नृत्य , बाजे और समाजों द्वारा मेरे मंदिरों मे उत्सव करे – करावे ।। 36
यात्रा बलिविधानं च सर्व वार्षिक पर्वसु ।
वैदिकी तांत्रिकी दीक्षा मदीय व्रत धारणम।। 37
वार्षिक त्योहारों के दिन मेरे स्थानों की यात्रा करे , जुलूस निकाले तथा विविध उपहारों से मेरी पूजा करे । वैदिक या तांत्रिक पद्धति से दीक्षा ग्रहण करे । मेरे व्रतों का पालन करे । 37
ममार्चास्थापने श्रद्धा स्वतः संहत्य चोद्यमः ।
उद्यानोपवना क्रीड पुर मंदिर कर्मणि।। 38
मंदिरों मे मेरी मूर्तियों की स्थापना में श्रद्धा रखे । यदि यह काम अकेला न कर सके , तो औरों के साथ मिलकर उद्योग करे । मेरे लिए पुष्प वाटिका , बगीचे , क्रीड़ा के स्थान , नगर और मंदिर बनवावे ।। 38
सम्मार्जनो पलेपाभ्यां सेक मंडल वर्त्तनैः।
गृहशुश्रूषणं मह्यं दासवद यद् मायया ।। 39
सेवक की भाँति श्रद्धा भक्ति के साथ मेरे मंदिरो की निष्कपट भाव से मेरे मंदिरों की सेवा – शुश्रुषा करे – झाड़े – बुहारे , लीपे – पोते , छिड़काव करे और तरह – तरह के चौक पूरे । 39
अमानित्वमदंभित्वं कृतस्या परिकीर्तनम ।
अपि दीपवलोकम मे नोप युञ्ज्यान्निवेदितं ।। 40
अभिमान न करे , दम्भ न करे । साथ ही अपने शुभ कर्मों का ढिंढोरा भी न पीटे। प्रिय उद्धव ! मेरे चढ़ावे की , अपने काम में लगाने की बात तो दूर रही , मुझे समर्पित दीपक के प्रकाश से भी अपना काम न लें । किसी दूसरे देवता की चढ़ाई हुई वस्तु मुझे न चढ़ावे ।। 40
यद् यदिष्टतम लोके यच्चाति प्रिय मात्मनः ।
तत्तन्नि वेद येन्मह्यं तदा नन्त्याय कल्पते ।। 41
संसार में जो वस्तु अपने को सबसे प्रिय , सबसे अभीष्ट जान पड़े वह मुझे समर्पित कर दे । ऐसा करने से वह वस्तु अनंत फल देने वाली हो जाती है।। 41
सूर्योग्निर्ब्राह्मणो गावो वैष्णवः खं मरुज्जलं ।
भूरात्मा सर्व भूतानि भद्र पूजा पदानि मे ।। 42
भद्र ! सूर्य, अग्नि , ब्राह्मण , गौ , वैष्णव , आकाश , वायु , जल , पृथ्वी , आत्मा और समस्त प्राणी – ये सब मेरी पूजा के स्थान हैं ।। 42
सूर्ये तु विद्या त्रय्या हविषाग्नौ यजेत माम।
आतिथ्येन तु विप्राग्रये गोष्वंग यवसादिना।। 43
प्यारे उद्धव ! ऋग्वेद , यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्रों के द्वारा सूर्य में मेरी पूजा करनी चाहिए । हवन के द्वारा अग्नि में , आतिथ्य के द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मण में और हरी – हरी घास आदि के द्वारा गौ में मेरी पूजा करे । । 43
वैष्णवे बंधु सत्कृत्या हृदि खे ध्यान निष्ठया।
वायौ मुख्यधिया तोये द्रव्यै स्तोय पुरस्कृतैः ।। 44
भाई – बंधु के समान सत्कार के द्वारा वैष्णव में , निरंतर ध्यान में लगे रहने से हृदयाकाश में , मुख्य प्राण समझने से वायु में और जल – पुष्प आदि सामग्रियों द्वारा जल में मेरी आराधना की जाती है ।। 44
स्थण्डिले मंत्र हृदयैर्भोगै रात्मान मात्मनि ।
क्षेत्रज्ञं सर्वभूतेषु समत्वेन यजेत माम।। 45
गुप्त मन्त्रों के द्वारा न्यास कर के मिट्टी की वेदी में , उपयुक्त भोगों के द्वारा आत्मा में और समदृष्टि द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों में मेरी आराधना करनी चाहिए , क्योंकि मैं सभी में क्षेत्रज्ञ आत्मा के रूप से स्थित हूँ । 45
धिष्ण्येष्वेष्विति मद् रूपं शंख चक्र गदाम्बुजैः ।
युक्तं चतुर्भुजं शान्तं ध्यायन्नर्चेत समाहितः ।। 46
इन सभी स्थानों मे शंख – चक्र – गदा – पद्म धारण किये चार भुजाओं वाले शांत मूर्ति श्री भगवान विराजमान हैं , ऐसा ध्यान करते हुए एकाग्रता के साथ मेरी पूजा करनी चाहिए ।। 46
इष्टा पूर्तेन मामेवं यो यजेत समाहितः ।
लभते मयि सद्भक्तिं मत्स्मृतिः साधु सेवया।। 47
इस प्रकार जो मनुष्य एकाग्र चित्त से यज्ञ – यागादि इष्ट और कुआं – बावली बनवाना आदि पूर्त्त कर्मों के द्वारा मेरी पूजा करता है , उसे मेरी श्रेष्ठ भक्ति प्राप्त होती है तथा संत – पुरुषों की सेवा करने से मेरे स्वरूप का ज्ञान भी हो जाता है ।। 47
प्रायेण भक्तियोगेन सत्संगेन विनोद्भव ।
नोपायो विद्यते सध्रयंगप्रायणं हि सतामहम ।। 48
प्यारे उद्धव ! अब मैं तुम्हें एक अत्यंत गोपनीय परम रहस्य की बात बतलाऊंगा , क्योंकि तुम मेरे प्रिय सेवक , हितैषी , सुहृद और प्रेमी सखा हो ; साथ ही सुनने के भी इच्छुक हो ।
इति श्रीमदभागवत महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकादशोध्यायः