भगवद गीता अध्याय 1 " अर्जुन विषाद योग "

 

 

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अध्याय-एक : अर्जुन विषाद योग 

12-19 दोनों सेनाओं की शंख-ध्वनि का वर्णन

 

 

भगवद गीता अध्याय 1 " अर्जुन विषाद योग "

 

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।

माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः॥1.14॥

 

ततः-तत्पश्चात; श्वेत-श्वेत; हयैः-अश्व से; युक्ते–युक्त; महति-भव्य; स्यन्दने– रथ में; स्थितौ-आसीन; माधव:-कृष्ण,भाग्य की देवी लक्ष्मी के पति; पाण्डवः-पाण्डु पुत्र अर्जुन ; च-और; एव-निश्चय ही; दिव्यौ-दिव्य; शङ्खौ-शंख; प्रदध्मतुः-बजाये।

 

तत्पश्चात पाण्डवों की सेना के बीच श्वेत अश्वों द्वारा खींचे जाने वाले भव्य रथ पर आसीन माधव और अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये।। 1.14 ।।

 

 ‘ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते ‘ – चित्ररथ गन्धर्व ने अर्जुन को सौ दिव्य घोड़े दिये थे। इन घोड़ों में यह विशेषता थी कि इनमें से युद्ध में कितने ही घोड़े क्यों न मारे जायँ पर ये संख्या में सौ के सौ ही बने रहते थे कम नहीं होते थे। ये पृथ्वी , स्वर्ग आदि सभी स्थानों में जा सकते थे। इन्हीं सौ घोड़ों में से सुन्दर और सुशिक्षित चार सफेद घोड़े अर्जुन के रथ में जुते हुए थे। ‘महति स्यन्दने स्थितौ’ – यज्ञों में आहुतिरूप से दिये गये घी को खाते-खाते अग्नि को अजीर्ण हो गया था। इसीलिये अग्निदेव खाण्डव वन की विलक्षण-विलक्षण जड़ी-बूटियाँ खाकर (जलाकर) अपना अजीर्ण दूर करना चाहते थे परन्तु देवताओं के द्वारा खाण्डव वन की रक्षा की जाने के कारण अग्निदेव अपने कार्य में सफल नहीं हो पाते थे। वे जब-जब खाण्डव वन को जलाते तब-तब इन्द्र वर्षा करके उसको (अग्नि को) बुझा देते। अन्त में अर्जुन की सहायता से अग्नि ने उस पूरे वन को जलाकर अपना अजीर्ण दूर किया और प्रसन्न होकर अर्जुन को यह बहुत बड़ा रथ दिया। नौ बैलगाड़ियों में जितने अस्त्र-शस्त्र आ सकते हैं उतने अस्त्र-शस्त्र इस रथ में पड़े रहते थे। यह सोने से मढ़ा हुआ और तेजोमय था। इसके पहिये बड़े ही दृढ़ एवं विशाल थे। इसकी ध्वजा बिजली के समान चमकती थी। यह ध्वजा एक योजन (चार कोस) तक फहराया करती थी। इतनी लम्बी होने पर भी इसमें न तो बोझ था न यह कहीं रुकती थी और न कहीं वृक्ष आदिमें अटकती ही थी। इस ध्वजा पर हनुमान जी विराजमान थे। ‘स्थितौ’ कहने का तात्पर्य है कि उस सुन्दर और तेजोमय रथ पर साक्षात भगवान श्रीकृष्ण और उनके प्यारे भक्त अर्जुन के विराजमान होने से उस रथ की शोभा और तेज बहुत ज्यादा बढ़ गया था। ‘माधवः पाण्डवश्चैव’ – ‘मा’ नाम लक्ष्मी का है और ‘धव’ नाम पति का है। अतः ‘माधव’ नाम लक्ष्मीपति का है। यहाँ पाण्डव नाम अर्जुन का है क्योंकिं अर्जुन सभी पाण्डवों में मुख्य हैं – पाण्डवानां धनञ्जयः  (गीता 10। 37)। अर्जुन नर के और श्रीकृष्ण नारायण के अवतार थे। महाभारत के प्रत्येक पर्व के आरम्भ में नर (अर्जुन) और नारायण (भगवान श्रीकृष्ण ) को नमस्कार किया गया है – नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।  इस दृष्टि से पाण्डव सेना में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ये दोनों मुख्य थे। सञ्जय ने भी गीता के अन्त में कहा है कि जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण और गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन रहेंगे वहीं पर श्री , विजय , विभूति और अटल नीति रहेगी (18। 78)। दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः – भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के हाथों में जो शंख थे वे तेजोमय और अलौकिक थे। उन शंखों को उन्होंने बड़े जोर से बजाया। यहाँ शङ्का हो सकती है कि कौरवपक्ष में मुख्य सेनापति पितामह भीष्म हैं । इसलिये उनका सबसे पहले शंख बजाना ठीक ही है परन्तु पाण्डव सेना में मुख्य सेनापति धृष्टद्युम्न के रहते हुए ही सारथी बने हुए भगवान श्रीकृष्ण ने सबसे पहले शंख क्यों बजाया ? इसका समाधान है कि भगवान सारथि बनें चाहे महारथी बनें उनकी मुख्यता कभी मिट ही नहीं सकती। वे जिस किसी भी पद पर रहें सदा सबसे बड़े ही बने रहते हैं। कारण कि वे अच्युत हैं , कभी च्युत होते ही नहीं। पाण्डव सेना में भगवान श्रीकृष्ण ही मुख्य थे और वे ही सबका संचालन करते थे। जब वे बाल्यावस्था में थे उस समय भी नन्द , उपनन्द आदि उनकी बात मानते थे। तभी तो उन्होंने बालक श्रीकृष्ण के कहने से परम्परा से चली आयी इन्द्रपूजा को छोड़कर गोवर्धन की पूजा करनी शुरू कर दी। तात्पर्य है कि भगवान जिस किसी अवस्था में जिस किसी स्थान पर और जहाँ कहीं भी रहते हैं वहाँ वे मुख्य ही रहते हैं। इसलिये भगवान ने पाण्डव सेना में सबसे पहले शंख बजाया। जो स्वयं छोटा होता है वही ऊँचे स्थान पर नियुक्त होने से बड़ा माना जाता है। अतः जो ऊँचे स्थान के कारण अपनेको बड़ा मानता है वह स्वयं वास्तव में छोटा ही होता है परंतु जो स्वयं बड़ा होता है वह जहाँ भी रहता है उसके कारण वह स्थान भी बड़ा माना जाता है। जैसे भगवान यहाँ सारथि बने हैं तो उनके कारण वह सारथि का स्थान (पद ) भी ऊँचा हो गया। अब सञ्जय आगे के चार श्लोकों में पूर्वश्लोक का खुलासा करते हुए दूसरों के शंखवादन का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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