श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः।।17.9।।
कटु-कड़वे; अम्ल- खट्टे ; लवण-नमकीन; अतिउष्ण-अत्यन्त गर्म; तीक्ष्ण-चटपटे; रूक्ष-शुष्क; विदाहीनः-दाहकारक; आहाराः-भोजन; राजसस्य -रजोगुणी व्यक्ति के; इष्टाः-प्रिय, दुःखः-पीड़ा; शोक-दुख; आमय-रोग; प्रदाः-उत्पन्न करना।
अत्यधिक कड़वे, अत्यधिक खट्टे, अत्यधिक नमकीन, अत्यधिक गर्म, अत्यधिक तीखे, अत्यधिक रूखे सूखे तथा अत्यधिक मिर्च युक्त दाहकारक व्यंजन या भोजन रजो गुणी या राजस व्यक्तियों को प्रिय लगते हैं । ऐसे भोज्य पदार्थों के सेवन से पीड़ा, दुख तथा रोग उत्पन्न होते हैं ৷৷17.9॥
कटु – करेला , ग्वारपाठा आदि अधिक कड़वे पदार्थ । अम्ल – इमली , अमचूर , नींबू , छाछ , सड़न पैदा करके बनाया गया सिरका आदि अधिक खट्टे पदार्थ । लवणम् – अधिक नमक वाले पदार्थ । अत्युष्णम् – जिनसे भाप निकल रही हो ऐसे अत्यन्त गरम-गरम पदार्थ । तीक्ष्णम् – जिनको खाने से नाक , आँख , मुख और सिर से पानी आने लगे ऐसे लाल मिर्च आदि अधिक तीखे पदार्थ । रूक्षम् – जिनमें घी , दूध आदि का सम्बन्ध नहीं है ऐसे भुने हुए चने , सतुआ आदि अधिक रूखे पदार्थ और विदाहिनः – राई आदि अधिक दाहकारक पदार्थ (राई को दो-तीन घंटे छाछ में भिगोकर रखा जाय तो उसमें एक खमीर पैदा होता है जो बहुत दाहकारक होता है)। आहारा राजसस्येष्टाः – इस प्रकार के भोजन के (भोज्य , पेय , लेह्य और चोष्य) पदार्थ राजस मनुष्य को प्यारे होते हैं। इससे उसकी निष्ठा की पहचान हो जाती है। दुःखशोकामयप्रदाः – परन्तु ऐसे पदार्थ परिणाम में दुःख , शोक और रोगों को देने वाले होते हैं। खट्टा , तीखा और दाहकारक भोजन करते समय मुख आदि में जो जलन होती है यह दुःख है। भोजन करने के बाद मन में प्रसन्नता नहीं होती प्रत्युत स्वाभाविक चिन्ता रहती है यह शोक है। ऐसे भोजन से शरीर में प्रायः रोग होते हैं।