Bhagwat Gita Chapter 17

 

 

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श्रद्धात्रयविभागयोग-  सत्रहवाँ अध्याय

Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog

 

आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद

 

 

Bhagawad Gita Chapter 17अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।

असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्।।17.22।।

 

अदेश-अपवित्र स्थान; काले-अनुचित समय में; यत्-जो; दानम्-दान; अपात्रेभ्यः-कुपात्र व्यक्तियों को; च-भी; दीयते-दिया जाता है; असत्कृतम ( असत्-कृतम् ) – आदर के बिना; अवज्ञातम् – अवमानना करके; तत्-वह; तामसम् – तामसिक प्रकृति का; उदाहतम् – कहा जाता है।

 

ऐसा दान जो अपवित्र स्थान तथा अनुचित समय पर कुपात्र व्यक्तियों को बिना आदर भाव अथवा तिरस्कार के साथ दिया जाता है, उसे तमोगुणी प्रकृति का दान माना जाता है अर्थात जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र को दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है ৷৷17.22॥

 

असत्कृतमवज्ञातम् – तामस दान असत्कार और अवज्ञापूर्वक दिया जाता है जैसे – तामस मनुष्य के पास कभी दान लेने के लिये ब्राह्मण आ जाय तो वह तिरस्कारपूर्वक उसको उलाहना देगा कि देखो पण्डितजी जब हमारी माता का शरीर शान्त हुआ तब भी आप नहीं आये परन्तु क्या करें आप हमारे घर के गुरु हो इसलिये हमें देना ही पड़ता है इतने में ही घर का दूसरा आदमी बोल पड़ता है कि तुम क्यों ब्राह्मणों के झंझट में पड़ते हो , किसी गरीब को दे दो। जिसको कोई नहीं देता उसको देना चाहिये। वास्तव में वही दान है। ब्राह्मण को तो और कोई भी दे देगा पर बेचारे गरीब को कौन देगा ? पण्डितजी क्या आ गया ? यह तो कुत्ता आ गया टुकड़ा डाल दो नहीं तो भौंकेगा आदिआदि। इस प्रकार शास्त्रविधि का , ब्राह्मणों का तिरस्कार करने के कारण यह दान तामस कहलाता है। अदेशकाले यद्दानम् – मूढ़ता के कारण तामस मनुष्य को अपने मन की बातें ही जँचती हैं जैसे – दान करने के लिये देशकाल की क्या जरूरत है ? जब चाहे तब कर दिया। जब किसी विशेष देश और काल में ही पुण्य होगा तो क्या यहाँ पुण्य नहीं होगा ? इसके लिये अमक समय आयेगा , अमुक पर्व आयेगा – इसकी क्या आवश्यकता ? अपनी चीज खर्च करनी है चाहे कभी दो आदि आदि। इस प्रकार तामस मनुष्य शास्त्रविधि का अनादर , तिरस्कार करके दान करते हैं। कारण कि उनके हृदय में शास्त्रविधि का महत्त्व नहीं होता प्रत्युत रुपयों का महत्त्व होता है।अपात्रेभ्यश्च दीयते – तामस दान अपात्र को किया जाता है। तामस मनुष्य कई प्रकार के तर्क-वितर्क करके पात्र का विचार नहीं करते जैसे – शास्त्रों में देश , काल और पात्र की बातें यों ही लिखी गयी हैं कोई यहाँ दान लेगा तो क्या यहाँ उसका पेट नहीं भरेगा ? तृप्ति नहीं होगी जब पात्र को देने से पुण्य होता है तो इनको देने से क्या पुण्य नहीं होगा ? क्या ये आदमी नहीं हैं ? क्या इनको देने से पाप लगेगा ? अपनी जीविका चलाने के लिये अपना मतलब सिद्ध करने के लिये ही ब्राह्मणों ने शास्त्रों में ऐसा लिख दिया है आदि आदि। तत्तामसमुदाहृतम् — उपर्युक्त प्रकार से दिया जाने वाला दान तामस कहा गया है। शङ्का – गीता में तामस कर्म का फल अधोगति बताया है – अधो गच्छन्ति तामसाः (14। 18) और रामचरितमानस में बताया है कि जिस किसी प्रकार से भी दिया हुआ दान कल्याण करता है – जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।। (मानस 7। 103 ख) इन दोनों में विरोध आता है । समाधान – तामस मनुष्य अधोगति में जाते हैं – यह कानून दान के विषय में लागू नहीं होता। कारण कि धर्म के चार चरण हैं – सत्यं दया तपो दानमिति (श्रीमद्भा0 12। 3। 18)। इन चारों चरणों में से कलियुग में एक ही चरण दान है – दानमेकं कलौ युगे (मनुस्मृति 1। 86)। इसलिये गोस्वामीजी महाराज ने कहा – प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान। जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।। (मानस 7। 103 ख) ऐसा कहने का तात्पर्य है कि किसी प्रकार भी दान दिया जाय उसमें वस्तु आदि के साथ अपनेपन का त्याग करना ही पड़ता है। इस दृष्टि से तामस दान में भी आंशिक त्याग होने से दान देने वाला अधोगति के योग्य नहीं हो सकता। दूसरी बात इस कलियुग के समय मनुष्यों का अन्तःकरण बहुत मलिन हो रहा है। इसलिये कलियुग में एक छूट है कि जिस किसी प्रकार भी किया हुआ दान कल्याण करता है। इससे मनुष्य का दान करने का स्वभाव तो बन ही जायगा जो आगे कभी किसी जन्म में कल्याण भी कर सकता है परन्तु दान की क्रिया ही बन्द हो जायगी तो फिर देने का स्वभाव बनने का कोई अवसर ही प्राप्त नहीं होगा। इसी दृष्टि से एक संत ने ‘श्रद्धया देयमश्रद्धयादेयम्’ (तैत्तिरीय0 1। 11) – इस श्रुति की व्याख्या करते हुए कहा था कि इसमें पहले पद का अर्थ तो यह है कि श्रद्धा से देना चाहिये पर दूसरे पद का अर्थ ‘अश्रद्धया अदेयम्’ (अश्रद्धा से नहीं देना चाहिये) – ऐसा न लेकर अश्रद्धया देयम् (श्रद्धा न हो तो भी देना चाहिये) – इस प्रकार लेना चाहिये। दानसम्बन्धी विशेष बात – अन्न , जल , वस्त्र और औषध – इन चारों के दान में पात्र-कुपात्र आदि का विशेष विचार नहीं करना चाहिये। इनमें केवल दूसरे की आवश्यकता को ही देखना चाहिये। इसमें भी देश , काल और पात्र मिल जाय तो उत्तम बात और न मिले तो कोई बात नहीं। हमें तो जो भूखा है उसे अन्न देना है जो प्यासा है उसे जल देना है जो वस्त्रहीन है उसे वस्त्र देना है और जो रोगी है उसे औषध देनी है। इसी प्रकार कोई किसी को अनुचित रूप से भयभीत कर रहा है , दुःख दे रहा है तो उससे उसको छुड़ाना और उसे अभयदान देना हमारा कर्तव्य है। हाँ , कुपात्र को अन्न-जल इतना नहीं देना चाहिये कि जिससे वह पुनः हिंसा आदि पापों में प्रवृत्त हो जाय जैसे कोई हिंसक मनुष्य अन्न-जल के बिना मर रहा है तो उसको उतना ही अन्न-जल दे कि जिससे उसके प्राण रह जाएँ वह जी जाय। इस प्रकार उपर्युक्त चारों के दान में पात्रता नहीं देखनी है प्रत्युत आवश्यकता देखनी है। भगवान का भक्त भी वस्तु देने में पात्र नहीं देखता वह तो दिये जाता है क्योंकि वह सबमें अपने प्यारे प्रभु को ही देखता है कि इस रूप में तो हमारे प्रभु ही आये हैं। अतः वह दान नहीं करता , कर्तव्यपालन नहीं करता प्रत्युत पूजा करता है – स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य (गीता 18। 46)। तात्पर्य यह है कि भक्त की सम्पूर्ण क्रियाओं का सम्बन्ध भगवान के साथ होता है। कर्मफलसम्बन्धी विशेष बात – ग्यारहवें से 22वें श्लोक तक के इस प्रकरण में जो सात्त्विक यज्ञ , तप और दान आये हैं वे सब के सब दैवीसम्पत्ति हैं और जो राजस तथा तामस यज्ञ , तप और दान आये हैं वे सब के सब आसुरीसम्पत्ति हैं। आसुरी सम्पत्ति में आये हुए राजस यज्ञ , तप और दान के फल के दो विभाग हैं – दृष्ट और अदृष्ट। इनमें भी दृष्ट के दो फल हैं – तात्कालिक और कालान्तरिक। जैसे – राजस भोजन के बाद तृप्ति का होना तात्कालिक फल है और रोग आदि का होना कालान्तरिक फल है। ऐसे ही अदृष्ट के भी दो फल हैं – लौकिक और पारलौकिक। जैसे – दम्भपूर्वक दम्भार्थमपि चैव यत् (17। 12) सत्कारमानपूजा के लिये सत्कारमानपूजार्थम् (17। 18) और प्रत्युपकार के लिये प्रत्युपकारार्थम् (17। 21) किये गये राजस यज्ञ , तप और दान का फल लौकिक है और वह इसी लोक में , इसी जन्म में , इसी शरीर के रहते-रहते ही मिलने की सम्भावना वाला होता है (टिप्पणी प0 859)। स्वर्ग को ही परम प्राप्य वस्तु मानकर उसकी प्राप्ति के लिये किये गये यज्ञ आदि का फल पारलौकिक होता है परन्तु राजस यज्ञ अभिसन्धाय तु फलम् (17। 12) और दान फलमुद्दिश्य वा पुनः (17। 21) का फल लौकिक तथा पारलौकिक – दोनों ही हो सकता है। इसमें भी स्वर्गप्राप्ति के लिये यज्ञ आदि करने वाले (2। 42 — 43 9। 20 — 21) और केवल दम्भ , सत्कार , मान , पूजा , प्रत्युपकार आदि के लिये यज्ञ , तप और दान करने वाले (17। 12। 18? 21) दोनों प्रकार के राजस पुरुष जन्म-मरण को प्राप्त होते हैं (टिप्पणी प0 860.1) परन्तु तामस यज्ञ और तप करने वाले (17। 13? 19) तामस पुरुष तो अधोगति में जाते हैं – अधो गच्छन्ति तामसाः (14। 18) पतन्ति नरकेऽशुचौ (16। 16) आसुरीष्वेव योनिषु (16। 19) ततो यान्त्यधमां गतिम् (16। 20)। जो मनुष्य यज्ञ करके स्वर्ग में जाते हैं उनको स्वर्ग में भी दुःख , जलन , ईर्ष्या आदि होते हैं (टिप्पणी प0 860.2)। जैसे – शतक्रतु इन्द्र को भी असुरों के अत्याचारों से दुःख होता है , कोई तपस्या करे तो उसके हृदय में जलन होती है , वह भयभीत होता है। इसे पूर्वजन्म के पापों का फल भी नहीं कह सकते क्योंकि उनके स्वर्गप्राप्ति के प्रतिबन्धकरूप पाप नष्ट हो जाते हैं – पूतपापाः (9। 20) और वे यज्ञ के पुण्यों से स्वर्गलोक को जाते है। फिर उनको दुःख , जलन , भय आदि का होना किन पापों का फल है ? इसका उत्तर यह है कि यह सब यज्ञ में की हुई पशुहिंसा के पाप का ही फल है। दूसरी बात – यज्ञ आदि सकाम कर्म करने से अनेक तरह के दोष आते हैं। गीता में आया है – सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः (18। 48) अर्थात् धुएँ से अग्नि की तरह सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त हैं। जब सभी कर्मों के आरम्भमात्र में भी दोष रहता है तब सकामकर्मों में तो (सकामभाव होने से) दोषों की सम्भावना ज्यादा ही होती है और उनमें अनेक तरह के दोष बनते ही हैं। इसलिये शास्त्रों में यज्ञ करने के बाद प्रायश्चित्त करने का विधान है। प्रायश्चित्तविधान से यह सिद्ध होता है कि यज्ञ में दोष (पाप) अवश्य होते हैं। अगर दोष न होते तो प्रायश्चित्त किस बात का ? परन्तु वास्तव में प्रायश्चित्त करने पर भी सब दोष दूर नहीं होते उनका कुछ अंश रह जाता है । जैसे – मैल लगे वस्त्र को साबुन से धोने पर भी उसके तन्तुओं के भीतर थोड़ी मैल रह जाती है। इसी कारण इन्द्रादिक देवताओं को भी प्रतिकूलपरिस्थितिजन्य दुःख भोगना पड़ता है। वास्तव में दोषों की पूर्ण निवृत्ति तो निष्कामभावपूर्वक कर्तव्यकर्म करके उन कर्मों को भगवान के अर्पण कर देने से ही होती है। इसलिये निष्कामभावसहित किये गये कर्म ही श्रेष्ठ हैं। सबसे बड़ी शुद्धि (दोषनिवृत्ति) होती है – मैं तो केवल भगवान का ही हूँ । इस प्रकार अहंतापरिवर्तनपूर्वक भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य बनाने से। इससे जितनी शुद्धि होती है उतनी कर्मों से नहीं होती (टिप्पणी प0 860.3)। भगवान ने कहा है – सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।। (मानस 5। 44। 1) तीसरी बात – गीता में अर्जुन ने पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप का आचरण क्यों करता है ? तो उत्तर में भगवान ने कहा – काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः (3। 37)। तात्पर्य है कि रजोगुण से उत्पन्न कामना ही पाप कराती है। इसलिये कामना को लेकर किये जाने वाले राजस यज्ञ की क्रियाओं में पाप हो सकते हैं। राजस तथा तामस यज्ञ आदि करने वाले आसुरीसम्पत्ति वाले हैं और सात्त्विक यज्ञ आदि करने वाले दैवीसम्पत्तिवाले हैं परन्तु दैवीसम्पत्ति के गुणों में भी यदि राग हो जाता है तो रजोगुण का धर्म होने से वह राग भी बन्धनकारक हो जाता है (गीता 14। 6)। 16वें अध्याय के पाँचवें श्लोक में दैवीसम्पत्ति मोक्ष के लिये और आसुरीसम्पत्ति बन्धन के लिये बतायी है। दैवीसम्पत्ति को धारण करने वाले सात्त्विक मनुष्य परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य से जो यज्ञ ,तप और दानरूप कर्म करते हैं उन कर्मों में होने वाली (भाव , विधि , क्रिया आदि की) कमी की पूर्ति के लिये क्या करना चाहिये ? इसे बताने के लिये भगवान आगे का प्रकरण आरम्भ करते हैं।

 

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