श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
ॐ तत् सत के प्रयोग की व्याख्या
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।।17.27।।
यज्ञे-यज्ञ में; तपसि-तपस्या में; दाने-दान में; च-भी; स्थिति:-दृढ़ता से प्रतिस्थापित; सत्-पवित्र अक्षर सत; इति-इस प्रकार; च-तथा; उच्यते-उच्चारण किया जाता है; कर्म-कार्य; एव-वास्तव में; तदर्थीयं ( तत्-अर्थीयम् ) – ऐसे उद्देश्य के लिए; सत्-पवित्र अक्षर सत्यः इति इस प्रकार; एव-वास्तव में; अभिधीयते-नाम दिया गया है।
तप, यज्ञ तथा दान जैसे कार्यों को सम्पन्न करने में प्रतिस्थापित होने के कारण अर्थात यज्ञ, तप और दान में जो दृढ स्थिति या दृढ निष्ठा है, इसे ‘सत्’ शब्द द्वारा वर्णित किया जाता है। अतः ऐसे किसी भी उद्देश्य के लिए अर्थात उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्-ऐसे कहा जाता है ৷৷17.27॥
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते – यज्ञ , तप और दानरूप प्रशंसनीय क्रियाओं में जो स्थिति (निष्ठा) होती है वह ‘सत्’ कही जाती है। जैसे किसी की सात्त्विक यज्ञ में किसी की सात्त्विक तप में और किसी की सात्त्विक दान में जो स्थिति – निष्ठा है अर्थात् इनमें से एक-एक चीज के प्रति हृदय में जो श्रद्धा है और इन्हें करने की जो तत्परता है वह सन्निष्ठा (सत्निष्ठा) कही जाती है। ‘च’ पद देने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार लोगों की सात्त्विक , यज्ञ , तप और दान में श्रद्धा – निष्ठा होती है । ऐसे ही किसी की वर्णधर्म में , किसी की आश्रमधर्म में , किसी की सत्यव्रतपालन में , किसी की अतिथि-सत्कार में , किसी की सेवा में , किसी की आज्ञापालन में , किसी की पातिव्रतधर्म में और किसी की गङ्गाजी में , किसी की यमुनाजी में , किसी की प्रयागराज आदि विशेष तीर्थों में जो हृदय से श्रद्धा है उनमें जो रुचि , विश्वास और तत्परता है वह भी सन्निष्ठा कही जाती है। कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते – उन प्रशंसनीय कर्मों के अलावा कर्मों के दो तरह के स्वरूप होते हैं – लौकिक (स्वरूप से ही संसारसम्बन्धी) और पारमार्थिक (स्वरूप से ही भगवत्सम्बन्धी) (1) वर्ण और आश्रम के अनुसार जीविका के लिये यज्ञ , अध्यापन , व्यापार , खेती आदि व्यावहारिक कर्तव्यकर्म और खाना-पीना , उठना-बैठना , चलना-फिरना , सोना-जगना आदि शारीरिक कर्म – ये सभी लौकिक हैं। (2) जप-ध्यान , पाठ-पूजा , कथा-कीर्तन , श्रवण-मनन , चिन्तन-ध्यान आदि जो कुछ किया जाय सब पारमार्थिक है। इन दोनों प्रकार के कर्मों को अपने सुख-आराम आदि का उद्देश्य न रखकर निष्कामभाव एवं श्रद्धा-विश्वास से केवल भगवान के लिये अर्थात् भगवत्प्रीत्यर्थ किये जाएं तो वे सबकेसब तदर्थीय कर्म हो जाते हैं। भगवदर्थ होने के कारण उनका फल ‘सत्’ हो जाता है अर्थात् सत्स्वरूप परमात्मा के साथ सम्बन्ध होने से वे सभी दैवीसम्पत्ति हो जाते हैं जो कि मुक्ति देनेवाली है। जैसे अग्नि में ठीकरी रख दी जाय तो अग्नि उसको अग्निरूप बना देती है। यह सब अग्नि की ही विशेषता है कि ठीकरी भी अग्निरूप हो जाती है । ऐसे ही उस परमात्मा के लिये जो भी कर्म किया जाय वह सब ‘सत्’ अर्थात् परमात्मस्वरूप हो जाता है अर्थात् उस कर्म से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। उस कर्म में जो भी विशेषता आयी है वह परमात्मा के सम्बन्ध से ही आयी है। वास्तव में तो कर्म में कुछ भी विशेषता नहीं है। यहाँ ‘तदर्थीयम्’ कहनेका तात्पर्य है कि जो ऊँचे से ऊँचे भोगों को , स्वर्ग आदि भोगभूमियों को न चाहकर केवल परमात्मा को चाहता है , अपना कल्याण चाहता है , मुक्ति चाहता है – ऐसे साधक का जितना पारमार्थिक साधन बन गया है वह सब ‘सत्’ हो जाता है। इस विषय में भगवान ने कहा है कि कल्याणकारी काम करने वाले किसी की भी दुर्गति नहीं होती (गीता 6। 40) इतनी ही बात नहीं जो योग (समता अथवा परमात्मतत्त्व) का जिज्ञासु होता है वह भी वेदों में स्वर्ग आदि की प्राप्ति के लिये बताये हुए सकाम कर्मों से ऊँचा उठ जाता है (गीता 6। 44)। कारण कि वे कर्म तो फल देकर नष्ट हो जाते हैं पर उस परमात्मा के लिये किया हुआ साधन – कर्म नष्ट नहीं होता प्रत्युत सत् हो जाता है। पूर्वश्लोक में आया कि परमात्मा के उद्देश्य से किये गये कर्म ‘सत्’ हो जाते हैं परन्तु परमात्मा के उद्देश्य से रहित जो कर्म किये जाते हैं उनकी कौन सी संज्ञा होगी ? इसे आगे के श्लोक में बताते हैं।