श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु।।17.7।।
आहारः-भोजन; तु-वास्तव में; अपि-भी; सर्वस्य-सबका; त्रिविधा-तीन प्रकार का; भवति-होना; प्रियः-प्यारा; यज्ञः-यज्ञ; तपः-तपस्या; तथा-और; दानम्-दान; तेषाम्-उनका; भेदम् – अंतर; इमम्-इसे; शृणु-सुनो।
अपनी – अपनी प्रकृति के अनुसार सबका प्रिय भोजन भी तीन प्रकार का होता है। उसी प्रकार यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं, शास्त्रीय कर्मों में भी तीन प्रकार की रुचि होती है उनके इस पृथक्-पृथक् भेद को तू मुझ से सुन ৷৷17.7॥
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः – चौथे श्लोक में भगवान ने अर्जुन के प्रश्न के अनुसार मनुष्यों की निष्ठा की परीक्षा के लिये सात्त्विक , राजस और तामस – तीन तरह के यजन बताये परन्तु जिसकी श्रद्धा , रुचि , प्रियता यजन-पूजन में नहीं है उनकी निष्ठा की पहचान कैसे हो ? इसके लिये बताया कि जिनकी यजन-पूजन में श्रद्धा नहीं है ऐसे मनुष्यों को भी शरीरनिर्वाह के लिये भोजन तो करना ही पड़ता है । चाहे वे नास्तिक हों , चाहे आस्तिक हों , चाहे वैदिक अथवा ईसाई , पारसी , यहूदी , यवन आदि किसी सम्प्रदाय के हों। उन सबके लिये यहाँ ‘आहारस्त्वपि’ पद देकर कहा है कि निष्ठा की पहचान के लिये केवल यजन-पूजन ही नहीं है प्रत्युत भोजन की रुचि से ही उनकी निष्ठा की पहचान हो जायगी। मनुष्य का मन स्वाभाविक ही जिस भोजन में ललचाता है अर्थात् जिस भोजन की बात सुनकर उसे देखकर और उसे चखकर मन आकृष्ट होता है उसके अनुसार उसकी सात्त्विकी , राजसी या तामसी निष्ठा मानी जाती है। यहाँ कोई ऐसा भी कह सकता है कि सात्त्विक , राजस और तामस आहार कैसा-कैसा होता है ? इसे बताने के लिये यह प्रकरण आया है। स्थूलदृष्टि से देखने पर तो ऐसा ही दिखता है परन्तु विचारपूर्वक गहराई से देखने पर यह बात दिखती नहीं। वास्तव में यहाँ आहार का वर्णन नहीं है प्रत्युत आहारी की रुचि का वर्णन है। अतः आहारी की श्रद्धा की पहचान कैसे हो ? यह बताने के लिये ही यह प्रकरण आया है। यहाँ ‘सर्वस्य’ और ‘प्रियः’ पद यह बताने के लिये आये हैं कि सामान्यरूप से सम्पूर्ण मनुष्यों में एक-एक की किस-किस भोजन में रुचि होती है? जिससे उनकी सात्त्विकी , राजसी और तामसी निष्ठा की पहचान हो। ऐसे ही ‘यज्ञस्तपस्था दानम्’ (टिप्पणी प0 841.1) पद यह बताने के लिये आये हैं कि जितने भी शास्त्रीय कर्म हैं उनमें भी उन मनुष्यों की यज्ञ , तप आदि किस-किस कर्म में कैसी-कैसी रुचि , प्रियता होती है ? यहाँ ‘तथा’ कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे पूजन तीन तरह का होता है और जैसे आहार तीन तरह का प्रिय होता है इसी तरह शास्त्रीय यज्ञ , तप आदि कर्म भी तीन तरह के होते हैं। इससे यहाँ एक और बात भी सिद्ध होती है कि शास्त्र , सत्सङ्ग , विवेचन , वार्तालाप , कहानी , पुस्तक , व्रत , तीर्थ , व्यक्ति आदि जो-जो भी सामने आयेंगे उनमें जो सात्त्विक होगा वह सात्त्विक मनुष्य को , जो राजस होगा वह राजस मनुष्य को और जो तामस होगा वह तामस मनुष्य को प्रिय लगेगा। तेषां भेदमिमं श्रृणु – यज्ञ , तप और दान के भेद सुनो अर्थात् मनुष्य की स्वाभाविक रुचि , प्रवृत्ति और प्रसन्नता किस-किसमें होती है? उसको तुम सुनो। जैसे अपनी रुचि के अनुसार कोई ब्राह्मण को दान देना पसंद करता है तो कोई अन्य साधारण मनुष्य को दान देना ही पसंद करता है। कोई शुद्ध आचरण वाले व्यक्तियों के साथ मित्रता करते हैं तो कोई जिनका खान-पान , आचरण आदि शुद्ध नहीं हैं ऐसे मनुष्यों के साथ ही मित्रता करते हैं आदि आदि (टिप्पणी प0 841.2)। तात्पर्य यह कि सात्त्विक मनुष्यों की रुचि सात्त्विक खान-पान , रहन-सहन , कार्य , समाज , व्यक्ति आदि में होती है और उन्हीं का सङ्ग करना उनको अच्छा लगता है। राजस मनुष्यों की रुचि राजस खान-पान , रहन-सहन , कार्य , समाज , व्यक्ति आदि में होती है और उन्हीं का सङ्ग उनको अच्छा लगता है। तामस मनुष्यों की रुचि तामस खान-पान , रहन-सहन आदि में तथा शास्त्रनिषिद्ध आचरण करने वाले नीच मनुष्यों के साथ उठने-बैठने , खाने-पीने , बातचीत करने , साथ रहने , मित्रता करने आदि में होती है और उन्हीं का संग उनको अच्छा लगता है तथा वैसे ही आचरणों में उनकी प्रवृत्ति होती है।