श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।।17.18।।
सत्कार-आदर; मान – सम्मान; पूजा-पूजा; अर्थम् – के लिए; तपः-तपस्या; दम्भेन-डींग मारना; च-भी; एव-वास्तव में; यत्-जो; क्रियते – सम्पन्न करना; तत्-वह; इस – इस संसार में; प्रोक्तं-कहा जाता है; राजसम्-रजोगुण; चलम्-अस्थिर; अध्रुवम्-अस्थायी।
जो तप सत्कार पाने , मान – सम्मान पाने , पूजा करने के लिये , किसी स्वार्थ भाव के लिए , डींगे मारने के लिए , आडम्बर , पाखण्ड और दिखावे के भाव से किया जाता है, वह इस लोक में अनिश्चित, क्षणिक और नाशवान् फल देने वाला राजस तप कहा गया है। ऐसी तपस्या राजसी कहलाती है और इससे प्राप्त होने वाले लाभ अस्थायी तथा क्षणभंगुर होते हैं ৷৷17.18॥
( ‘अनिश्चित फलवाला’ उसको कहते हैं कि जिसका फल होने न होने में शंका हो )
सत्कारमानपूजार्थं तपः क्रियते — राजस मनुष्य सत्कार , मान और पूजा के लिये ही तप किया करते हैं । जैसे – हम जहाँ कहीं जायेंगे वहाँ हमें तपस्वी समझकर लोग हमारी अगवानी के लिये सामने आयेंगे। गाँव भर में हमारी सवारी निकालेंगे। जगह-जगह लोग हमें उत्थान देंगे , हमें बैठने के लिये आसन देंगे , हमारे नाम का जयघोष करेंगे , हमसे मीठा बोलेंगे , हमें अभिनन्दनपत्र देंगे इत्यादि बाह्य क्रियाओं द्वारा हमारा सत्कार करेंगे। लोग हृदय से हमें श्रेष्ठ मानेंगे कि ये बड़े संयमी , सत्यवादी , अहिंसक सज्जन हैं वे सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा हमारे में विशेष भाव रखेंगे इत्यादि हृदय के भावों से लोग हमारा मान करेंगे। जीतेजी लोग हमारे चरण धोयेंगे , हमारे मस्तक पर फूल चढ़ायेंगे , हमारे गले में माला पहनायेंगे , हमारी आरती उतारेंगे , हमें प्रणाम करेंगे , हमारी चरणरज को सिर पर चढ़ायेंगे और मरने के बाद हमारी वैकुण्ठी निकालेंगे , हमारा स्मारक बनायेंगे और लोग उस पर श्रद्धाभक्ति से पत्र , पुष्प , चन्दन , वस्त्र , जल आदि चढ़ायेंगे हमारे स्मारक की परिक्रमा करेंगे इत्यादि क्रियाओं से हमारी पूजा करेंगे। दम्भेन चैव यत् – भीतर से तप पर श्रद्धा और भाव न होने पर भी बाहर से केवल लोगों को दिखाने के लिये आसन लगाकर बैठ जाना , माला घुमाने लग जाना , देवता आदि का पूजन करने लग जाना , सीधे-सरल चलना , हिंसा न करना आदि। तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् – राजस तप का फल चल और अध्रुव कहा गया है। तात्पर्य है कि जो तप सत्कार , मान और पूजा के लिये किया जाता है उस राजस तप का फल यहाँ चल अर्थात् नाशवान कहा गया है और जो तप केवल दिखावटीपन के लिये किया जाता है उसका फल यहाँ अध्रुव अर्थात् अनिश्चित (फल मिले या न मिले , दम्भ सिद्ध हो या न हो) कहा गया है। ‘इह प्रोक्तम्’ पदों का तात्पर्य यह है कि इस राजस तप का इष्ट फल प्रायः यहाँ ही होता है। कारण कि सात्त्विक पुरुषों का तो ऊर्ध्वलोक है , तामस मनुष्यों का अधोलोक है और राजस मनुष्यों का मध्यलोक है (गीता 14। 18)। इसलिये राजस तप का फल न स्वर्ग होगा और न नरक होगा किन्तु यहाँ ही महिमा होकर , प्रशंसा होकर खत्म हो जायगा। राजस मनुष्य के द्वारा शारीरिक , वाचिक और मानसिक तप हो सकता है । क्या फलेच्छा होने से वह देवता आदि का पूजन कर सकता है। उसमें कुछ सीधा-सरलपन भी रह सकता है। ब्रह्मचर्य रहना मुश्किल है। अहिंसा भी मुश्किल है। पुस्तक आदि पढ़ सकता है। उसका मन हरदम प्रसन्न नहीं रह सकता और सौम्यभाव भी हरदम नहीं रह सकता। कामना के कारण उसके मन में संकल्प-विकल्प होते रहेंगे। वह केवल सत्कार , मान , पूजा और दम्भ के लिये ही तप करता है तो उसके भाव की संशुद्धि कैसे होगी अर्थात् उसके भाव शुद्ध कैसे होंगे ? अतः राजस मनुष्य तीन प्रकार के तप को साङ्गोपाङ्ग नहीं कर सकता।