श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्।।17.21।।
यत्-जो; तु-परंतुः प्रत्युपकारार्थं ( प्रति-उपकार-अर्थम् ) – प्रतिफल की इच्छा से; फलम् – फल; उद्देश्य – प्रयोजन; वा-या; पुनः-फिर; दीयते-दिया जाता है; च-भी; परिक्लिष्टम्-अनिच्छापूर्वक; तत्-उस; दानम्-दान; राजसम्-रजोगुणी; स्मृतम्-कहा जाता है।
परन्तु अनिच्छापूर्वक किया गया अथवा फल प्राप्त करने की इच्छा के साथ किये गये दान को रजोगुणी कहा गया है अर्थात जो दान क्लेशपूर्वक ( प्रायः चन्दे-चिट्ठे आदि में दिया जाने वाला धन ) , प्रत्युपकार के उद्देश्य से अथवा फल की कामना या फल को दृष्टि में रख कर ( मान बड़ाई, प्रतिष्ठा , स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिए) दिया जाता हैं, वह दान राजस माना गया है ৷৷17.21॥
यत्तु प्रत्युपकारार्थम् – राजस दान प्रत्युपकार के लिये दिया जाता है । जैसे – राजस पुरुष किसी विशेष अवसर पर दान की चीजों को गिन कर के निकालता है तो वह विचार करता है कि हमारे सगे-सम्बन्धी के जो कुलपुरोहित हैं उनको हम दान करेंगे जिससे कि हमारे सगे-सम्बन्धी हमारे कुलपुरोहित को दान करें और इस प्रकार हमारे कुलपुरोहित के पास धन आ जायगा। अमुक पण्डितजी बड़े अच्छे हैं और ज्योतिष भी जानते हैं , उनको हम दान करेंगे जिससे वे कभी यात्रा का , पुत्रों का तथा कन्याओं के विवाह का , नया मकान बनवाने का , कुआँ खुदवाने का मुहूर्त निकाल देंगे। हमारे सम्बन्धी हैं अथवा हमारा हित करने वाले हैं उनको हम सहायतारूप में पैसे देंगे तो वे कभी हमारी सहायता करेंगे , हमारा हित करेंगे। हमें दवाई देने वाले जो पण्डितजी हैं उनको हम दान करेंगे क्योंकि दान से राजी होकर वे हमें अच्छी-अच्छी दवाइयाँ देंगे आदि आदि। इस प्रकार प्रतिफल की भावना रखकर अर्थात् इस लोक के साथ सम्बन्ध जोड़कर जो दान किया जाता है वह प्रत्युपकारार्थ कहा जाता है। फलमुद्दिश्य वा पुनः – फल का उद्देश्य रखकर अर्थात् परलोक के साथ सम्बन्ध जोड़कर जो दान किया जाता है उसमें भी राजस मनुष्य देश (गङ्गा , यमुना , कुरुक्षेत्र आदि) , काल (अमावस्या , पूर्णिमा , ग्रहण आदि) और पात्र (वेदपाठी ब्राह्मण आदि) को देखेगा तथा शास्त्रीय विधि-विधान को देखेगा परन्तु इस प्रकार विचारपूर्वक दान करने पर भी फल की कामना होनेसे वह दान राजस हो जाता है। अब उसके लिये दूसरे विधि-विधान का वर्णन करने की भगवान ने आवश्यकता नहीं समझी इसलिये राजस दान में ‘देशे काले च पात्रे’ पदों का प्रयोग नहीं किया। यहाँ ‘पुनः’ पद कहने का तात्पर्य है कि जिससे कुछ उपकार पाया है अथवा जिससे भविष्य में कुछ न कुछ मिलने की सम्भावना है उसका विचार राजस पुरुष पहले करता है फिर पीछे दान देता है। दीयते च परिक्लिष्टम् – राजस दान बहुत क्लेशपूर्वक दिया जाता है जैसे – वक्त आ गया है इसलिये देना पड़ रहा है। इतनी चीजें देंगे तो इतनी चीजें कम हो जायेंगी। इतना धन देंगे तो इतना धन कम हो जायगा। वे समय पर हमारे काम आते हैं इसलिये उनको देना पड़ रहा है। इतने में ही काम चल जाय तो बहुत अच्छी बात है। इतने से काम तो चल ही जायगा फिर ज्यादा क्यों दें ? ज्यादा देंगे तो और कहाँ से लायेंगे और ज्यादा देने से लेने वाले का स्वभाव बिगड़ जायगा। ज्यादा देने से हमारे को घाटा लग जायेगा तो काम कैसे चलेगा ? पर इतना तो देना ही पड़ रहा है आदि आदि। इस प्रकार राजस मनुष्य दान तो थोड़ा सा देते हैं पर कसाकसी करके देते हैं। तद्दानं राजसं स्मृतम् – उपर्युक्त प्रकार से दिया जाने वाला दान राजस कहा गया है।