श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः।।17.11।।
अफलाकाक्षिभिः-किसी प्रकार के फल की इच्छा से रहित; यज्ञः-यज्ञ; विधिदिष्टः-शास्त्रों की आज्ञानुसार; यः-जो; इज्यते – सम्पन्न करना; यष्टव्यमेवेति (यष्टव्यम एव इति ) – इस प्रकार से कर्त्तव्य समझकर; मनः-मन में; समाधाय-दृढ़ निश्चय करके; सः-वह; सात्त्विकः-सत्वगुण।
धर्मशास्त्रों की आज्ञा के अनुसार किसी पारितोषिक या फल की आकांक्षा या इच्छा किए बिना और मन की दृढ़ता के साथ “यह मेरा कर्तव्य है” ऐसा अपना कर्त्तव्य समझते हुए शास्त्र विधि के अनुसार नियत किया गया यज्ञ सत्वगुणी प्रकृति का या सात्विक है अर्थात जो यज्ञ शास्त्रविधि से नियन्त्रित किया हुआ तथा जिसे “यह मेरा कर्तव्य है” ऐसा मन में निश्चय कर फल की आकांक्षा नहीं रखने वाले मनुष्यों के द्वारा किया जाता है, वह यज्ञ सात्त्विक है ৷৷17.11॥
यष्टव्यमेवेति – जब मनुष्यशरीर मिल गया और अपना कर्तव्य करने का अधिकार भी प्राप्त हो गया तो अपने वर्णआश्रम में शास्त्र की आज्ञा के अनुसार यज्ञ करनामात्र मेरा कर्तव्य है। एव इति – ये दो अव्यय लगाने का तात्पर्य है कि इसके सिवाय दूसरा कोई भाव न रखे अर्थात् इस यज्ञ से लोक में और परलोक में मेरे को क्या मिलेगा ? इससे मेरे को क्या लाभ होगा ? ऐसा भाव भी न रहे । केवल कर्तव्यमात्र रहे। जब उससे कुछ मिलने की आशा ही नहीं रखनी है तो फिर (फलेच्छा का त्याग करके) यज्ञ करने की जरूरत ही क्या है ? इसके उत्तर में भगवान कहते हैं – ‘मनः समाधाय’ अर्थात् यज्ञ करना हमारा कर्तव्य है ऐसे मन को समाधान करके यज्ञ करना चाहिये।अफलाकाङ्क्षिभिः – मनुष्य फल की इच्छा रखने वाला न हो अर्थात् लोक-परलोक में मेरे को इस यज्ञ का अमुक फल मिले – ऐसा भाव रखने वाला न हो। यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते – शास्त्रों में विधि के विषय में जैसी आज्ञा दी गयी है उसके अनुसार ही यज्ञ किया जाय। इस प्रकार से जो यज्ञ किया जाता है वह सात्त्विक होता है – स सात्त्विकः। सात्त्विकता का तात्पर्य – सात्त्विकता का क्या तात्पर्य होता है ? अब इस पर थोड़ा विचार करें। यष्टव्यम् (टिप्पणी प0 846) – यज्ञ करनामात्र कर्तव्य है – ऐसा जब उद्देश्य रहता है तब उस यज्ञ के साथ अपना सम्बन्ध नहीं जुड़ता परन्तु जब कर्ता में वर्तमान में मान , आदर , सत्कार आदि मिलें मरने के बाद स्वर्गादि लोक मिलें तथा आगे के जन्म में धनादि पदार्थ मिलें – इस प्रकार की इच्छाएँ होंगी तब उसका उस यज्ञ के साथ सम्बन्ध जुड़ जायगा। तात्पर्य है कि फल की इच्छा रखने से ही यज्ञ के साथ सम्बन्ध जुड़ता है। केवल कर्तव्यमात्र का पालन करने से उससे सम्बन्ध नहीं जुड़ता प्रत्युत उससे सम्बन्धविच्छेद हो जाता है और (स्वार्थ तथा अभिमान न रहने से) कर्ता की अहंता शुद्ध हो जाती है। इसमें एक बड़ी मार्मिक बात है कि कुछ भी कर्म करने में कर्ता का कर्म के साथ सम्बन्ध रहता है। कर्म कर्ता से अलग नहीं होता। कर्म कर्ता का ही चित्र होता है अर्थात् जैसा कर्ता होगा वैसे ही कर्म होंगे। इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने कहा है – यो यच्छ्रद्धः स एव सः अर्थात् जो जैसी श्रद्धावाला है वैसा ही उसका स्वरूप होता है और वैसा ही (श्रद्धाके अनुसार) उससे कर्म होता है। तात्पर्य यह है कि कर्ता का कर्म के साथ सम्बन्ध होता है और कर्म के साथ सम्बन्ध होने से ही कर्ता का बन्धन होता है। केवल कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करने से कर्ता का कर्म के साथ सम्बन्ध नहीं रहता अर्थात् कर्ता मुक्त हो जाता है। केवल कर्तव्यमात्र समझकर कर्म करना क्या है ? अपने लिये कुछ नहीं करना है । सामग्री के साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है । मेरा देश , काल आदि से भी कोई सम्बन्ध नहीं है केवल मनुष्य होने के नाते जो कर्तव्य प्राप्त हुआ है उसको कर देना है – ऐसा भाव होने से कर्ता फलाकाङ्क्षी नहीं होगा और कर्मों का फल कर्ता को बाँधेगा नहीं अर्थात् यज्ञ की क्रिया और यज्ञ के फल के साथ कर्ता का सम्बन्ध नहीं होगा। गीता कहती है – कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि। (5। 11) अर्थात् करण (शरीर , इन्द्रियाँ आदि) उपकरण (यज्ञ करने में उपयोगी सामग्री) और अधिकरण (स्थान) आदि किसी के भी साथ हमारा सम्बन्ध न हो। यज्ञ की क्रिया का आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। ऐसे ही उसके फल का भी आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। क्रिया और फल दोनों उत्पन्न होकर नष्ट होने वाले हैं और स्वयं (आत्मा) नित्य-निरन्तर रहने वाला है परन्तु यह (स्वयं) क्रिया और फल के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। इस माने हुए सम्बन्ध को यह जब तक नहीं छोड़ता तब तक यह जन्ममरणरूप बन्धन में पड़ा रहता है – फले सक्तो निबध्यते (गीता 5। 12)। एक विलक्षण बात है कि गीता में जो सत्त्वगुण कहा है वह संसार से सम्बन्धविच्छेद करके परमात्मा की तरफ ले जाने वाला होने से सत् अर्थात् निर्गुण हो जाता है (टिप्पणी प0 847)। दैवीसम्पत्ति में भी जितने गुण हैं वे सब सात्त्विक ही हैं परन्तु दैवीसम्पत्तिवाला तभी परमात्मा को प्राप्त होगा जब वह सत्त्वगुण से ऊँचा उठ जायगा अर्थात् जब गुणों के सङ्ग से सर्वथा रहित हो जायगा।