श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।17.13।।
विधिहीनम्-धर्म ग्रन्थों की निषेधाज्ञा के विरुद्ध; असृष्टअन्नं – अन्न अर्पित किये बिना; मन्त्रहीनम्-वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किये बिना; अदक्षिणम्-पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना; श्रद्धा-श्रद्धा; विरहितम्-बिना; यज्ञम् – यज्ञ; तामसम्-तमोगुणः परचिक्षते–माना जाता है।
शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं अर्थात श्रद्धा विहीन होकर तथा धर्मग्रन्थों की आज्ञाओं के विरुद्ध किया गया यज्ञ जिसमें भोजन अर्पित न किया गया हो, मंत्रोच्चारण न किए गए हों तथा दान न दिया गया हो, ऐसे यज्ञ की प्रकृति तमोगुणी होती है ৷৷17.13॥
विधिहीनम् –> अलग-अलग यज्ञों की अलग-अलग विधियाँ होती हैं और उसके अनुसार यज्ञकुण्ड , स्रुवा आदि पात्र ; बैठने की दिशा , आसन आदि का विचार होता है। अलग-अलग देवताओं की अलग-अलग सामग्री होती है जैसे – देवी के यज्ञ में लाल वस्त्र और लाल सामग्री होती है परन्तु तामस यज्ञ में इन विधियों का पालन नहीं होता प्रत्युत उपेक्षापूर्वक विधि का त्याग होता है। असृष्टान्नम् – तामस मनुष्य जो द्रव्ययज्ञ करते हैं उसमें ब्राह्मणादि को अन्नदान नहीं किया जाता। तामस मनुष्यों का यह भाव रहता है कि मुफ्त में रोटी मिलने से वे आलसी हो जायेंगे , काम-धंधा नहीं करेंगे। मन्त्रहीनम् – वेदों में और वेदानुकूल शास्त्रों में कहे हुए मन्त्रों से ही द्रव्ययज्ञ किया जाता है परन्तु तामस यज्ञ में वैदिक तथा शास्त्रीय मन्त्रों से यज्ञ नहीं किया जाता। कारण कि तामस पुरुषों का यह भाव रहता है कि आहुति देने मात्र से यज्ञ हो जाता है , सुगन्ध हो जाती है , गंदे परमाणु नष्ट हो जाते हैं फिर मन्त्रों की क्या जरूरत है आदि। अदक्षिणम् – तामस यज्ञ में दान नहीं किया जाता। कारण कि तामस पुरुषों का यह भाव रहता है कि हमने यज्ञ में आहुति दे दी और ब्राह्मणों को अच्छी तरह से भोजन करा दिया । अब उनको दक्षिणा देने की क्या जरूरत रही ? यदि हम उनको दक्षिणा देंगे तो वे आलसी-प्रमादी हो जाएंगे , पुरुषार्थहीन हो जाएंगे जिससे दुनिया में बेकारी फैलेगी । दूसरी बात – जिन ब्राह्मणों को दक्षिणा मिलती है वे कुछ कमाते ही नहीं इसलिये वे पृथ्वी पर भाररूप रहते हैं इत्यादि। वे तामस मनुष्य यह नहीं सोचते कि ब्राह्मणादि को अन्नदान , दक्षिणा आदि न देने से वे तो प्रमादी बनें चाहे न बनें पर शास्त्रविधि का अपने कर्तव्यकर्म का त्याग करने से हम तो प्रमादी बन ही गये । श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते — अग्नि में आहुति देने के विषय में तामस मनुष्यों का यह भाव रहता है कि अन्न , घी , जौ , चावल , नारियल , छुहारा आदि तो मनुष्य के निर्वाह के काम की चीजें हैं। ऐसी चीजों को अग्नि में फूँक देना कितनी मूर्खता है (टिप्पणी प0 849.1) अपनी प्रसिद्धि , मान-बड़ाई के लिये वे यज्ञ करते भी हैं तो बिना शास्त्रविधि के , बिना अन्नदान के , बिना मन्त्रों के और बिना दक्षिणा के करते हैं। उनकी शास्त्रों पर , शास्त्रोक्त मन्त्रों पर और उनमें बतायी हुई विधियों पर तथा शास्त्रोक्त विधिपूर्वक की गयी यज्ञ की क्रिया पर और उसके पारलौकिक फल पर भी श्रद्धा-विश्वास नहीं होते। कारण कि उनमें मूढ़ता होती है। उनमें अपनी तो अक्ल होती नहीं और दूसरा कोई समझा दे तो उसे मानते नहीं। इस तामस यज्ञ में ‘यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः’ (गीता 16। 23) और ‘अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्’ (गीता 17। 28) – ये दोनों भाव होते हैं। अतः वे इहलोक और परलोक का जो फल चाहते हैं वह उनको नहीं मिलता – न सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् न च तत्प्रेत्य नो इह। तात्पर्य है कि उनको उपेक्षापूर्वक किये गये शुभकर्मों का इच्छित फल तो नहीं मिलेगा पर अशुभकर्मों का फल (अधोगति) तो मिलेगा ही – अधो गच्छन्ति तामसाः (14। 18)। कारण कि अशुभ फल में अश्रद्धा ही कारण है और वे अश्रद्धापूर्वक ही शास्त्रविरुद्ध आचरण करते हैं । अतः इसका दण्ड तो उनको मिलेगा ही। इन यज्ञों में कर्ता , ज्ञान , क्रिया , धृति , बुद्धि , सङ्ग , शास्त्र , खान-पान आदि यदि सात्त्विक होंगे तो वह यज्ञ सात्त्विक हो जायगा , यदि राजस होंगे तो वह यज्ञ राजस हो जायगा और यदि तामस होंगे तो वह यज्ञ तामस हो जायगा। ग्यारहवें , बारहवें और तेरहवें श्लोक में क्रमशः सात्त्विक , राजस और तामस यज्ञ का वर्णन करके अब आगे के तीन श्लोकों में क्रमशः शारीरिक , वाचिक और मानसिक तप का वर्णन करते हैं (जिसका सात्त्विक , राजस और तामस भेद आगे करेंगे)।