श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।17.14।।
देव-परम प्रभु; द्विज-ब्राह्मण; गुरु-आध्यात्मिक आचार्यः प्राज्ञ-बुद्धिमान व्यक्तियों की; पूजनम्-पूजा; शौचम्-पवित्रता; आर्जवम्-पवित्रता; ब्रह्मचर्यम्-ब्रह्मचर्य, अहिंसा-अहिंसा; च-भी; शरीरम्-देह संबंधी; तपः-तपस्या; उच्यते-कहा जाता है।
परमपिता परमात्मा, ब्राह्मणजन , गुरु जन , ज्ञानी और जीवन्मुक्त महापुरुषों और सन्तजनों का पूजन , तन और मन की पवित्रता या शुद्धि रखना , सादगी और सरलता , ब्रह्मचर्य तथा अहिंसा का पालन करना तब इसे शरीर सम्बन्धी तप या शरीर की तपस्या कहा जाता है ৷৷17.14॥
(यहाँ ‘गुरु’ शब्द से माता, पिता, आचार्य और वृद्ध एवं अपने से जो किसी प्रकार भी बड़े हों, उन सबको समझना चाहिए)
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम् – यहाँ ‘देव ‘ शब्द मुख्यरूप से विष्णु , शङ्कर , गणेश , शक्ति और सूर्य – इन पाँच ईश्वरकोटि के देवताओं के लिये आया है। इन पाँचों में जो अपना इष्ट है जिस पर अधिक श्रद्धा है उसका निष्कामभाव से पूजन करना चाहिये (टिप्पणी प0 849.2)। बारह आदित्य , आठ वसु , ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार – ये तैंतीस शास्त्रोक्त देवता भी ‘देव ‘ शब्द के अन्तर्गत आते हैं। यज्ञ , तीर्थ , व्रत आदि में दीपमालिका आदि विशेष पर्वों में और जातकर्म , चूड़ाकर्म , यज्ञोपवीत , विवाह आदि संस्कारों के समय जिन देवताओं के पूजन का शास्त्रों में विधान आता है उन सब देवताओं को भी ‘देव’ शब्द के अन्तर्गत मानना चाहिये। इन देवताओं का यथावसर पूजन करने के लिये शास्त्रों की आज्ञा है। अतः हमें तो केवल शास्त्रमर्यादा को सुरक्षित रखने के लिये अपना कर्तव्य समझकर निष्कामभाव से इनका पूजन करना है – ऐसे भाव से इन देवताओं का भी यथावसर पूजन करना चाहिये। तात्पर्य है कि शास्त्रों ने जिन-जिन तिथि , वार , नक्षत्र आदि के दिन जिन-जिन देवताओं का पूजन करने का विधान बताया है उन-उन तिथि आदि के दिन उन-उन देवताओं का पूजन करना चाहिये। ‘द्विज’ शब्द ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य – इन तीनों का वाचक हैं परन्तु यहाँ पूजन का विषय होने से इसे केवल ब्राह्मण का ही वाचक समझना चाहिये क्षत्रिय और वैश्य का नहीं। जिनसे हमें शिक्षा प्राप्त होती है ऐसे हमारे माता-पिता , बड़े-बूढ़े , कुल के आचार्य , पढ़ाने वाले अध्यापक और आश्रम , अवस्था , विद्या आदि में जो हमारे से बड़े हैं उन सभी को गुरु शब्द के अन्तर्गत समझना चाहिये। द्विज (ब्राह्मण) एवं अपने माता-पिता , आचार्य आदि गुरुजनों की आज्ञा का पालन करना , उनकी सेवा करना और उनकी प्रसन्नता प्राप्त करना तथा पत्र-पुष्प , आरती आदि से उनकी पूजा करना – यह सब उनका पूजन है। यहाँ ‘प्राज्ञ’ शब्द जीवन्मुक्त महापुरुष के लिये आया है। यदि वह वर्ण और आश्रम में ऊँचा होता तो ‘द्विज’ पद में आ जाता और यदि शरीर के सम्बन्ध में (जन्म और विद्या से) बड़ा होता तो ‘गुरु’ पद में आ जाता। इसलिये जो वर्ण और आश्रम में ऊँचा नहीं है एवं जिसके साथ गुरु का सम्बन्ध भी नहीं है – ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुष को यहाँ ‘प्राज्ञ’ कहा गया है। ऐसे जीवन्मुक्त महापुरुष के वचनों का , सिद्धान्तों का आदर करते हुए उनके अनुसार अपना जीवन बनाना ही वास्तव में उसका पूजन है। वास्तव में देखा जाय तो द्विज और गुरु तो सांसारिक दृष्टि से आदरणीय हैं , पूजनीय हैं परन्तु प्राज्ञ (जीवन्मुक्त) तो आध्यात्मिक दृष्टि से आदरणीय – पूजनीय है। अतः जीवन्मुक्त का हृदय से आदर करना चाहिये क्योंकि केवल बाहरी (बाह्य दृष्टिसे) आदर ही आदर नहीं है प्रत्युत हृदय का आदर ही वास्तविक आदर है , पूजन है। शौचम् – जल , मृत्तिका आदि से शरीर को पवित्र बनाने का नाम शौच है। शारीरिक शुद्धि से अन्तःकरण की शुद्धि होती है। शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः। (योगदर्शन 2। 40) शौच से अपने शरीर में घृणा होगी कि हम इस शरीर को रात-दिन इतना साफ करते हैं फिर भी इससे मल , मूत्र , पसीना , नाक का कफ , आँख और कान की मैल , लार , थूक आदि निकलते ही रहते हैं। यह शरीर हड्डी , मांस , मज्जा आदि घृणित (अपवित्र) चीजों का बना हुआ है। इस हड्डी-माँस के थैले में तोलाभर भी कोई शुद्ध , पवित्र , निर्मल और सुगन्धयुक्त वस्तु नहीं है। यह केवल गंदगी का पात्र है। इसमें कोरी मलिनता ही मलिनता भरी पड़ी है। यह केवल मल-मूत्र पैदा करने की एक फैक्टरी है , मशीन है। इस प्रकार शरीर की अशुद्धि , मलिनता का ज्ञान होने से मनुष्य शरीर से ऊँचा उठ जाता है। शरीर से ऊँचा उठने पर उसको वर्ण , आश्रम , अवस्था आदि को लेकर अपने में बड़प्पन का अभिमान नहीं होता। इन्हीं बातों के लिये शौच रखा जाता है। आजकल प्रायः लोग कहते हैं कि जो शौचाचार रखते हैं वे तो दूसरों का अपमान करते हैं , दूसरों से घृणा करते हैं। उनका ऐसे कहना बिलकुल गलत है क्योंकि शौच का फल यह नहीं बताया गया कि तुम दूसरों का तिरस्कार करो प्रत्युत यह बताया गया कि इससे दूसरों के साथ संसर्ग नहीं होगा – परैरसंसर्गः। तात्पर्य है कि शरीरमात्र से ग्लानि हो जायगी कि ये सब पुतले ऐसे ही अशुद्ध हैं। जैसे मिट्टी के ढेले को जल से धोते चले जाएं तो अन्त में वह सब (गलकर) समाप्त हो जायगा पर उसमें मिट्टी के सिवाय कोई बढ़िया चीज नहीं मिलेगी । ऐसे ही शरीर को कितना ही शुद्ध करते रहें पर वह कभी शुद्ध होगा नहीं क्योंकि इसके मूल में ही अशुद्धि है – स्थानाद् बीजादुपष्टम्भान्निःस्यन्दान्निधनादपि। कायमाधेयशौचत्वात् पण्डिता ह्यशुचिं विदुः।। (योगदर्शन 2। 5 का व्यासभाष्य) विद्वान लोग शरीर को स्थान (माता के उदर में स्थित) , बीज (माता-पिता के रजोवीर्य से उद्भूत) , उपष्टम्भ (खाये-पीये हुए आहार के रस से परिपुष्ट) , निःस्यन्द (मल , मूत्र , थूक , लार , स्वेद आदि स्राव से युक्त) , निधन (मरणधर्मा) और आधेय शौच (जलमृत्तिका आदि से प्रक्षालित करने योग्य) होने के कारण अपवित्र मानते हैं। आर्जवम् – शरीर की ऐंठ-अकड़ का त्याग करके उठने , बैठने आदि शारीरिक क्रियाओं को सीधी-सरलता से करने का नाम ‘आर्जव’ है। अभिमान अधिक होने से ही शरीर में टेढ़ापन आता है। अतः जो अपना कल्याण चाहता है ऐसे साधकको अपनेमें अभिमान नहीं रखना चाहिये। निरभिमानता होने से शरीर में और शरीर की चलने , उठने , बैठने , बोलने , देखने आदि सभी क्रियाओं में स्वाभाविक ही सरलता आ जाती है जो ‘आर्जव’ है। ब्रह्मचर्यम् – ये आठ क्रियाएँ ब्रह्मचर्य को भंग करने वाली हैं – (1) पहले कभी स्त्रीसङ्ग किया है उसको याद करना (2) स्त्रियों से रागपूर्वक बातें करना (3) स्त्रियों के साथ हँसी-दिल्लगी करना (4) स्त्रियों की तरफ रागपूर्वक देखना (5) स्त्रियों के साथ एकान्त में बातें करना (6) मन में स्त्रीसङ्ग का संकल्प करना (7) स्त्रीसङ्ग का पक्का विचार करना और (8) साक्षात् स्त्रीसङ्ग करना। ये आठ प्रकार के मैथुन विद्वानों ने बतायें हैं (टिप्पणी प0 851.1)। इनमें से कोई भी क्रिया कभी न हो उसका नाम ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचारी , वानप्रस्थ और संन्यासी – इन तीनों का तो बिलकुल ही वीर्यपात नहीं होना चाहिये और न ऐसा संकल्प ही होना चाहिये। गृहस्थ केवल सन्तानार्थ शास्त्रविधि के अनुसार ऋतुकाल में स्त्रीसङ्ग करता है तो वह गृहस्थाश्रममें रहता हुआ भी ब्रह्मचारी माना जाता है। विधवाओं के विषय में भी ऐसी ही बात आती है कि जो स्त्री अपने पति के रहते पातिव्रतधर्म का पालन करती रही है और पति की मृत्यु के बाद ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करती है उस विधवा की वही गति होती है जो आबाल ब्रह्मचारी की होती है। वास्तव में तो ‘ब्रह्मचारिव्रते स्थितः’ (गीता 6। 14) – ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित रहना ही ब्रह्मचर्य है परन्तु इसमें भी यदि स्वप्नदोष हो जाय अथवा प्रमेह आदि शरीर की खराबी से वीर्यपात हो जाय तो उसे ब्रह्मचर्यभङ्ग नहीं माना गया है। भीतर के भावों में गड़बड़ी आने से जो वीर्यपात आदि होते हैं वही ब्रह्मचर्यभङ्ग माना गया है। कारण कि ब्रह्मचर्य का भावों के साथ सम्बन्ध है। इसलिये ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को चाहिये कि अपने भाव शुद्ध रखने के लिये वह अपने मन को परस्त्री की तरफ कभी जाने ही न दे। सावधानी रखने पर कभी मन चला भी जाय तो भीतर में यह दृढ़ विचार रखे कि यह मेरा काम नहीं है , मैं ऐसा काम करूँगा ही नहीं क्योंकि मेरा ब्रह्मचर्यपालन करने का पक्का विचार है , मैं ऐसा काम कैसे कर सकता हूँ ? अहिंसा – सभी प्रकार की हिंसा का अभाव अहिंसा है। हिंसा , स्वार्थ , क्रोध , लोभ और मोह (मूढ़ता) को लेकर होती है। जैसे अपने स्वार्थ में आकर किसी का धन दबा लिया , दूसरों का नुकासन करा दिया – यह स्वार्थ को लेकर हिंसा है। क्रोध में आकर किसी को थोड़ी चोट पहुँचायी , ज्यादा चोट पहुँचायी अथवा खत्म ही कर दिया – यह क्रोध को लेकर हिंसा है। चमड़ा मिलेगा , मांस मिलेगा इसके लिये किसी पशु को मार दिया अथवा धन के कारण किसी को मार दिया – यह लोभ को लेकर हिंसा है। रास्ते पर चलते-चलते किसी कुत्ते को लाठी मार दी , वृक्ष की डाली तोड़ दी , किसी घास को ही तोड़ दिया , किसी को ठोकर मार दी तो इसमें न क्रोध है , न लोभ है और न कुछ मिलने की सम्भावना ही है – यह मोह (मूढ़ता) को लेकर हिंसा है। अहिंसा में इन सभी हिंसाओं का अभाव है (टिप्पणी प0 851.2)। शारीरं तप उच्यते – देव आदि का पूजन , शौच , आर्जव , ब्रह्मचर्य और अहिंसा – यह पाँच प्रकार का शारीरिक तप कहा गया है। इस शारीरिक तप में तीर्थ , व्रत , संयम आदि भी ले लेने चाहिये। जब कष्ट उठाना पड़ता है , तपन होती है तब वह तप होता है परन्तु उपर्युक्त शारीरिक तप में तो ऐसी कोई बात नहीं है फिर यह तप किस प्रकार हुआ ? कष्ट उठाकर जो तप किया जाता है वह वास्तव में श्रेष्ठ कोटि का तप नहीं है। तप में कष्ट की मुख्यता रखने वालों को भगवान ने ‘आसुरनिश्चयान्’ (17। 6) – आसुर निश्चय वाले बताया है। तप तो वही श्रेष्ठ है जिसमें उच्छृङ्खल वृत्तियों को रोककर शास्त्र , कुलपरम्परा और लोकपरम्परा की मर्यादा के अनुसार संयमपूर्वक चलना होता है। ऐसे ही साधन करते हुए स्वाभाविक ही देश , काल , परिस्थिति , घटना आदि अपने विपरीत आ जाएं तो उनको साधनसिद्धि के लिये प्रसन्नतापूर्वक सहना भी तप है। इस तप में शरीर , इन्द्रिय , मन आदि का संयम होता है। अष्टाङ्गयोग में जहाँ यमनियमादि आठ अङ्गों का वर्णन किया गया है (टिप्पणी प0 851.3) वहाँ यम को सबसे पहले बताया है। यद्यपि पाँच ही यम हैं — अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः (योगदर्शन 2। 30) और पाँच ही नियम हैं – शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः (योगदर्शन 2। 32) तथापि इन दोनों में से नियम की अपेक्षा यम की ज्यादा महिमा है। कारण कि नियम में व्रतों का पालन करना पड़ता है और यम में इन्द्रियों , मन आदि का संयम करना पड़ता है (टिप्पणी प0 851.4)। लोगों की दृष्टि में यह बात हो सकती है कि शरीर को कष्ट देना तप है और आराम से रहकर संयम करना , त्याग करना तप नहीं है परंतु वास्तव में देखा जाय तो समस्त सांसारिक विषयों में अनासक्त होकर जो संयम , त्याग किया जाता है वह तप से कम नहीं है प्रत्युत पारमार्थिक मार्ग में उसी का ऊँचा दर्जा है। कारण कि त्याग से परमात्मा की प्राप्ति होती है – त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् (गीता 12। 12)। केवल बाहरी तप से परमात्मा की प्राप्ति नहीं बतायी गयी है किंतु अन्तःकरण की शुद्धि का कारण होने से वह तप परमात्मप्राप्ति में सहायक हो सकता है। इसलिये साधक को मुख्यरूप से यमों का सेवन करते हुए समय-समय पर नियमों का भी पालन करते रहना चाहिये।