श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
ॐ तत् सत के प्रयोग की व्याख्या
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभि:।।17.25।।
तत्-पवित्र अक्षर ; इति -इस प्रकार; अनभिसन्धाय-बिना इच्छा के ; फलम् – फल; यज्ञ-यज्ञ; तपः- तप की; क्रियाः-क्रियाएँ; दान-दान की; च-भी; विविधाः-विभिन्न; क्रियन्ते – की जाती हैं; मोक्षकाङ्क्षिभिः-मोक्ष की इच्छा।
‘तत्’ नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये ही सब कुछ है और उन्हीं परमात्मा का यह सब कुछ है – ऐसा मानकर मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों या मुमुक्षुजनों द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर अनेक प्रकार की यज्ञ , तप तथा दान रूप क्रियाएँ की जाती हैं अर्थात ऐसे व्यक्ति जो किसी फल की कामना नहीं करते और भौतिक उलझनों से मुक्त रहना चाहते हैं वे तप, यज्ञ तथा दान जैसे कार्य करते समय ‘तत्’ शब्द का उच्चारण करते हैं । ऐसे कल्याण की इच्छा वाले मनुष्य परमात्मा का ही सब कुछ है इस भाव से फल को न चाह कर नाना प्रकार के यज्ञ, तप तथा दान रूप कर्म करते हैं ৷৷17.25॥
तदित्यनभिसंधाय ৷৷. मोक्षकाङ्क्षिभिः — केवल उस परमात्मा की प्रसन्नता के उद्देश्य से किञ्चिन्मात्र भी फल की इच्छा न रख कर शास्त्रीय यज्ञ , तप , दान आदि शुभकर्म किये जाएं । कारण कि विहित – निषिद्ध , शुभ-अशुभ आदि क्रियामात्र का आरम्भ होता है और समाप्ति होती है। ऐसे ही उस क्रिया का जो फल होता है उसका भी संयोग होता है और वियोग होता है अर्थात् कर्मफल के भोग का भी आरम्भ होता है और समाप्ति होती है परन्तु परमात्मा तो उस क्रिया और फलभोग के आरम्भ होने से पहले भी हैं तथा क्रिया और फलभोग की समाप्ति के बाद भी हैं एवं क्रिया और फलभोग के समय भी वैसे के वैसे हैं। परमात्मा की सत्ता नित्य-निरन्तर है। नित्य-निरन्तर रहने वाली इस सत्ता की तरफ ध्यान दिलाने में ही ‘तत् इति’ पदों का तात्पर्य है और उत्पत्तिविनाशशील फल की तरफ ध्यान न देने में ही ‘अनभिसंधाय फलम्’ पदों का तात्पर्य है अर्थात् नित्यनिरन्तर रहने वाले तत्त्व की स्मृति रहनी चाहिये और नाशवान फल की अभिसंधि (इच्छा) बिलकुल नहीं रहनी चाहिये। नित्यनिरन्तर वियुक्त होने वाले प्रतिक्षण अभाव में जाने वाले इस संसार में जो कुछ देखने , सुनने और जानने में आता है उसी को हम प्रत्यक्ष , सत्य मान लेते हैं और उसी की प्राप्ति में हम अपनी बुद्धिमानी और बल को सफल मानते हैं। इस परिवर्तनशील संसार को प्रत्यक्ष मानने के कारण ही सदा-सर्वदा सर्वत्र परिपूर्ण रहता हुआ भी वह परमात्मा हमें प्रत्यक्ष नहीं दिखता। इसलिये एक परमात्मप्राप्ति का ही उद्देश्य रखकर उस संसार का अर्थात् अहंता-ममता (मैं-मेरेपन) का त्याग करके उन्हीं की दी हुई शक्ति से यज्ञ आदि को उन्हीं का मानकर निष्कामभावपूर्वक उन्हीं के लिये यज्ञ आदि शुभकर्म करने चाहिये। इसी में ही मनुष्य की वास्तविक बुद्धिमानी और बल (पुरुषार्थ) की सफलता है। तात्पर्य यह है कि जो संसार प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है उसका तो निराकरण करना है और जिसको अप्रत्यक्ष मानते हैं उस ‘तत्’ नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का अनुभव करना है जो नित्यनिरन्तर प्राप्त है।भगवान के भक्त (भगवान का उद्देश्य रखकर) ‘तत्’ पद के बोधक राम , कृष्ण , गोविन्द , नारायण , वासुदेव , शिव आदि नामों का उच्चारण करके सब क्रियाएँ आरम्भ करते हैं। अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्य यज्ञ , दान , तप , तीर्थ , व्रत , जप , स्वाध्याय , ध्यान , समाधि आदि जो भी क्रियाएँ करते हैं वे सब भगवान के लिये भगवान की प्रसन्नता के लिये , भगवान की आज्ञापालन के लिये ही करते हैं अपने लिये नहीं। कारण कि जिनसे क्रियाएँ की जाती हैं वे शरीर , इन्द्रियाँ , अन्तःकरण आदि सभी परमात्मा के ही हैं हमारे नहीं हैं। जब शरीर आदि हमारे नहीं हैं तो घर , जमीन-जायदाद , रुपये-पैसे , कुटुम्ब आदि भी हमारे नहीं हैं। ये सभी प्रभु के हैं और इनमें जो सामर्थ्य समझ आदि है वह भी सब प्रभु की है और हम खुद भी प्रभु के ही हैं। हम प्रभु के हैं और प्रभु हमारे हैं – इस भाव से वे सब क्रियाएँ प्रभु की प्रसन्नता के लिये ही करते हैं। 24वें श्लोक में की और 25वें श्लोक में तत् शब्द की व्याख्या करके अब भगवान आगे के दो श्लोकों में पाँच प्रकार से सत् शब्द की व्याख्या करते हैं।