श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्।।17.10।।
यातयामम् – बासी भोजन; गतरसम् – स्वादरहित; पूति-दुर्गन्धयुक्त; पर्युषितम्-प्रदूषित, दुर्गन्धयुक्त ; च-भी; यत्-जो; उच्छिष्टम्-जूठा भोजन; भोजन-आहार; अपि-भी; च-और; अमेध्यम्-अशुद्ध; भोजनम-भोजन; तामस-तमोगुणी व्यक्ति को; प्रियम्-प्रिय।
जो भोजन अधपका, स्वादरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी , जूठा है तथा जो अत्यंत अपवित्र भी है, वह तामस मनुष्य या तमोगुणी व्यक्ति को प्रिय होता है ৷৷17.10॥
यातयामम् – पकने के लिये जिनको पूरा समय प्राप्त नहीं हुआ है ऐसे अधपके या उचित समय से ज्यादा पके हुए अथवा जिनका समय बीत गया है ऐसे बिना ऋतु के पैदा किये हुए एवं ऋतु चली जाने पर फ्रिज आदि की सहायता से रखे हुए साग , फल आदि भोजन के पदार्थ। गतरसम् – धूप आदि से जिनका स्वाभाविक रस सूख गया है अथवा मशीन आदि से जिनका सार खींच लिया गया है ऐसे दूध , फल आदि। पूति – सड़न से पैदा की गयी मदिरा (टिप्पणी प0 842) और स्वाभाविक दुर्गन्ध वाले प्याज , लहसुन आदि। पर्युषितम् – जल और नमक मिलाकर बनाये हुए साग , रोटी आदि पदार्थ रात बीतने पर बासी कहलाते हैं परन्तु केवल शुद्ध दूध , घी , चीनी आदि से बने हुए अथवा अग्नि पर पकाये हुए पेड़ा , जलेबी , लड्डू आदि जो पदार्थ हैं उनमें जब तक विकृति नहीं आती तब तक वे बासी नहीं माने जाते। ज्यादा समय रहने पर उनमें विकृति (दुर्गन्ध आदि) पैदा होने से वे भी बासी कहे जायेंगे। उच्छिष्टम् – ‘भुक्तावशेष’ अर्थात् भोजन के बाद पात्र में बचा हुआ अथवा जूठा हाथ लगा हुआ और जिसको गाय , बिल्ली , कुत्ता , कौआ आदि पशु-पक्षी देख ले , सूँघ ले या खा ले – वह सब जूठन माना जाता है। अमेध्यम् – रजवीर्य से पैदा हुए मांस , मछली , अंडा आदि महान अपवित्र पदार्थ जो मुर्दा हैं और जिनको छूनेमात्र से स्नान करना पड़ता है (टिप्पणी प0 843.1)। अपि च – इन अव्ययों के प्रयोग से उन सब पदार्थों को ले लेना चाहिये जो शास्त्रनिषिद्ध हैं। जिस वर्ण , आश्रम के लिये जिन-जिन पदार्थों का निषेध है उस वर्णआश्रम के लिये उन-उन पदार्थों को निषिद्ध माना गया है जैसे मसूर , गाजर , शलगम आदि। भोजनं तामसप्रियम् – ऐसा भोजन तामस मनुष्य को प्रिय लगता है। इससे उसकी निष्ठा की पहचान हो जाती है। उपर्युक्त भोजनों में से सात्त्विक भोजन भी अगर रागपूर्वक खाया जाये तो वह राजस हो जाता है और लोलुपतावश अधिक खाया जाये (जिससे अजीर्ण आदि हो जाय) तो वह तामस हो जाता है। ऐसे ही भिक्षुक को विधि से प्राप्त भिक्षा आदि में रूखा , सूखा , तीखा और बासी भोजन प्राप्त हो जाय जो कि राजस-तामस है पर वह उसको भगवान को भोग लगाकर भगवन्नाम लेते हुए स्वल्प मात्रा में (टिप्पणी प0 843.2) खाये तो वह भोजन भी भाव और त्याग की दृष्टि से सात्त्विक हो जाता है। प्रकरणसम्बन्धी विशेष बात – चार श्लोकों के इस प्रकरण में तीन तरह के – सात्त्विक , राजस और तामस आहार का वर्णन दिखता है परन्तु वास्तव में यहाँ आहार का प्रसङ्ग नहीं है प्रत्युत आहारी की रुचि का प्रसङ्ग है। इसलिये यहाँ आहारी की रुचि का ही वर्णन हुआ है – इसमें निम्नलिखित युक्तियाँ दी जी सकती हैं – (1) 16वें अध्याय के 23वें श्लोक में आये ‘यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः’ पदों को लेकर अर्जुन ने प्रश्न किया कि मनमाने ढंग से श्रद्धापूर्वक काम करने वाले की निष्ठा की पहचान कैसे हो ? तो भगवान ने इस अध्याय के दूसरे श्लोक में श्रद्धा के तीन भेद बताकर तीसरे श्लोक में ‘सर्वस्य’ पद से मनुष्यमात्र की अन्तःकरण के अनुरूप श्रद्धा बतायी और चौथे श्लोक में पूज्य के अनुसार पूजक की निष्ठा की पहचान बतायी। सातवें श्लोक में उसी ‘सर्वस्य’ पद का प्रयोग करके भगवान यह बताते हैं कि मनुष्यमात्र को अपनी-अपनी रूचि के अनुसार तीन तरह का भोजन प्रिय होता है – आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः। उस प्रियता से ही मनुष्य की निष्ठा (स्थिति) की पहचान हो जायगी। ‘प्रियः’ शब्द केवल सातवें श्लोक में ही नहीं आया है प्रत्युत आठवें श्लोक में ‘सात्त्विकप्रियाः नवें श्लोक में ‘राजसस्येष्टाः’ और दसवें श्लोक में ‘तामसप्रियम्’ में भी ‘प्रियः’ और ‘इष्ट’ शब्द आये हैं जो रुचि के वाचक हैं। यदि यहाँ आहार का ही वर्णन होता तो भगवान प्रिय और इष्ट शब्दों का प्रयोग न करके ये सात्त्विक आहार हैं , ये राजस आहार हैं , ये तामस आहार हैं – ऐसे पदों का प्रयोग करते। (2) दूसरी प्रबल युक्ति यह है कि सात्त्विक आहार में पहले ‘आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः’ पदों से भोजन का फल बताकर बाद में भोजन के पदार्थों का वर्णन किया। कारण कि सात्त्विक मनुष्य भोजन करने आदि किसी भी कार्य में विचारपूर्वक प्रवृत्त होता है तो उसकी दृष्टि सबसे पहले उसके परिणाम पर जाती है। रागी होने से राजस मनुष्य की दृष्टि सबसे पहले भोजन पर ही जाती है इसलिये राजस आहार के वर्णन में पहले भोजन के पदार्थों का वर्णन करके बाद में ‘दुःखशोकामयप्रदाः’ पद से उसका फल बताया है। तात्पर्य यह कि राजस मनुष्य अगर आरम्भ में ही भोजन के परिणाम पर विचार करेगा तो फिर उसे राजस भोजन करने में हिचकिचाहट होगी क्योंकि परिणाम में मुझे दुःख , शोक और रोग हो जाएं – ऐसा कोई मनुष्य नहीं चाहता परन्तु राग होने के कारण राजस पुरुष परिणाम पर विचार करता ही नहीं। सात्त्विक भोजन का फल पहले और राजस भोजन का फल पीछे बताया गया परन्तु तामस भोजन का फल बताया ही नहीं गया। कारण कि मूढ़ता होने के कारण तामस मनुष्य भोजन और उसके परिणाम पर विचार करता ही नहीं। भोजन न्याययुक्त है या नहीं , उसमें हमारा अधिकार है या नहीं , शास्त्रों की आज्ञा है या नहीं और परिणाम में हमारे मन-बुद्धि के बल को बढ़ाने में हेतु है या नहीं – इन बातों का कुछ भी विचार न करके तामस मनुष्य पशु की तरह खाने में प्रवृत्त होते हैं। तात्पर्य है कि सात्त्विक भोजन करने वाला तो दैवीसम्पत्तिवाला होता है और राजस तथा तामस भोजन करने वाला आसुरीसम्पत्ति वाला होता है। (3) यदि भगवान को यहाँ आहार का ही वर्णन करना होता तो वे आहार की विधि का और उसके लिये कर्मों की शुद्धि-अशुद्धि का वर्णन करते जैसे – शुद्ध कमाई के पैसों से अनाज आदि पवित्र खाद्य पदार्थ खरीदे जाएं , रसोई में चौका देकर और स्वच्छ वस्त्र पहनकर पवित्रतापूर्वक भोजन बनाया जाय , भोजन को भगवान के अर्पण किया जाय और भगवान का चिन्तन तथा उनके नाम का जप करते हुए प्रसादबुद्धि से भोजन ग्रहण किया जाय – ऐसा भोजन सात्त्विक होता है। स्वार्थ और अभिमान की मुख्यता को लेकर सत्य-असत्य का कोई विचार न करते हुए पैसे कमाये जाएं , स्वाद शरीर की पुष्टि , भोग भोगने की सामर्थ्य बढ़ाने आदि का उद्देश्य रखकर भोजन के पदार्थ खरीदे जाएं , जिह्वा को स्वादिष्ट लगें और दिखने में भी सुन्दर दिखें – इस दृष्टि से , रीति से उनको बनाया जाय और आसक्तिपूर्वक खाया जाय – ऐसा भोजन राजस होता है। झूठ-कपट , चोरी , डकैती , धोखेबाजी आदि किसी तरह से पैसे कमाये जाएं , अशुद्धि-शुद्धि का कुछ भी विचार न करके मांस , अंडे आदि पदार्थ खरीदे जाएं , विधि-विधान का कोई खयाल न करके भोजन बनाया जाय और बिना हाथ-पैर धोये एवं चप्पल-जूती पहनकर ही अशुद्ध वायुमण्डल में उसे खाया जाय – ऐसा भोजन तामस होता है परन्तु भगवान ने यहाँ केवल सात्त्विक , राजस और तामस पुरुषों को प्रिय लगने वाले खाद्य पदार्थों का वर्णन किया है जिससे उनकी रुचि की पहचान हो जाय। (4) इसके सिवाय गीता में जहाँ-जहाँ आहार की बात आयी है वहाँ-वहाँ आहारी का ही वर्णन हुआ है जैसे – ‘नियताहाराः’ (4। 30) पद में नियमित आहार करने वाले का ‘नात्यश्नतस्तु और युक्ताहारविहारस्य ‘ (6। 16 — 17) पदों में अधिक खाने वाले और नियत खाने वालों का ‘यदश्नासि’ (9। 27) पद में भोजन के पदार्थ को भगवान के अर्पण करने वाले का और ‘लघ्वाशी’ (18। 52) पद में अल्प भोजन करने वालों का वर्णन हुआ है। इसी प्रकार इस अध्याय में सातवें श्लोक में ‘यज्ञस्तपस्तथा दानम्’ पदों में आया तथा (वैसे ही) पद यह कह रहा है कि जो मनुष्य यज्ञ , तप , दान आदि कार्य करते हैं वे भी अपनी-अपनी (सात्त्विक , राजस अथवा तामस) रुचि के अनुसार ही कार्य करते हैं। आगे 11वें से 22वें श्लोक तक का जो प्रकरण है उसमें भी यज्ञ , तप और दान करने वालों के स्वभाव का ही वर्णन हुआ है। भोजन के लिये आवश्यक विचार उपनिषदों में आता है कि जैसा अन्न होता है वैसा ही मन बनता है – अन्नमयं ही सोम्य मनः। (छान्दोग्य0 6। 5। 4) अर्थात् अन्न का असर मन पर प़ड़ता है। अन्न के सूक्ष्म सार भाग से मन (अन्तःकरण) बनता है , दूसरे नम्बर के भाग से वीर्य , तीसरे नम्बर के भाग से रक्त आदि और चौथे नम्बर के स्थूल भागसे मल बनता है जो कि बाहर निकल जाता है। अतः मन को शुद्ध बनाने के लिये भोजन शुद्ध , पवित्र होना चाहिये। भोजन की शुद्धि से मन (अन्तःकरण) की शुद्धि होती है – आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः (छान्दोग्य0 2। 26। 2)। जहाँ भोजन करते हैं वहाँ का स्थान , वायुमण्डल , दृश्य तथा जिस पर बैठकर भोजन करते हैं वह आसन भी शुद्ध , पवित्र होना चाहिये। कारण कि भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैं तब वे शरीर के सभी रोमकूपों से आस- पास के परमाणुओं को भी खींचते – ग्रहण करते हैं। अतः वहाँ का स्थान , वायुमण्डल आदि जैसे होंगे प्राण वैसे ही परमाणु खींचेंगे और उन्हीं के अनुसार मन बनेगा। भोजन बनाने वाले के भाव , विचार भी शुद्ध सात्त्विक हों। भोजन के पहले दोनों हाथ , दोनों पैर और मुख – ये पाँचों शुद्ध , पवित्र जल से धो ले। फिर पूर्व या उत्तर की ओर मुख कर के शुद्ध आसन पर बैठकर भोजन की सब चीजों को ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।’ (गीता 9। 26) – यह श्लोक पढ़कर भगवान के अर्पण कर दे। अर्पण के बाद दायें हाथ में जल लेकर ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।’ (गीता 4। 24) – यह श्लोक पढ़कर आचमन करे और भोजन का पहला ग्रास भगवान का नाम लेकर ही मुख में डाले। प्रत्येक ग्रास को चबाते समय ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।’ – इस मन्त्र को मन से दो बार पढ़ते हुए या अपने इष्ट का नाम लेते हुए ग्रास को चबाये और निगले। इस मन्त्र में कुल सोलह नाम हैं और दो बार मन्त्र पढ़ने से बत्तीस नाम हो जाते हैं। हमारे मुख में भी बत्तीस ही दाँत हैं। अतः (मन्त्र के प्रत्येक नाम के साथ) बत्तीस बार चबाने से वह भोजन सुपाच्य और आरोग्यदायक होता है एवं थोड़े अन्न से ही तृप्ति हो जाती है तथा उसका रस भी अच्छा बनता है और इसके साथ ही भोजन भी भजन बन जाता है। भोजन करते समय ग्रास-ग्रास में भगन्नामजप करते रहने से अन्नदोष भी दूर हो जाता है (टिप्पणी प0 845.1)। जो लोग ईर्ष्या , भय और क्रोध से युक्त हैं तथा लोभी हैं और रोग तथा दीनता से पीड़ित और द्वेषयुक्त हैं वे जिस भोजन को करते हैं वह अच्छी तरह पचता नहीं अर्थात् उससे अजीर्ण हो जाता है (टिप्पणी प0 845.2)। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह भोजन करते समय मन को शान्त तथा प्रसन्न रखे। मन में काम , क्रोध , लोभ , मोह आदि दोषों की वृत्तियों को न आने दे। यदि कभी आ जाएं तो उस समय भोजन न करे क्योंकि वृत्तियों का असर भोजन पर पड़ता है और उसी के अनुसार अन्तःकरण बनता है। ऐसा भी सुनने में आया है कि फौजी लोग जब गाय को दुहते हैं तब दुहने से पहले बछ़ड़ा छोड़ते हैं और उस बछड़े के पीछे कुत्ता छोड़ते हैं। अपने बछ़ड़े के पीछे कुत्ते को देखकर जब गाय गुस्से में आ जाती है तब बछड़े को लाकर बाँध देते हैं और फिर गाय को दुहते हैं। वह दूध फौजियों को पिलाते हैं जिससे वे लोग खूँखार बनते हैं। ऐसे ही दूध का भी असर प्राणियों पर पड़ता है। एक बार किसी ने परीक्षा के लिये कुछ घोड़ों को भैंस का दूध और कुछ घोड़ों को गाय का दूध पिलाकर उन्हें तैयार किया। एक दिन सभी घोड़े कहीं जा रहे थे। रास्ते में नदी का जल था। भैंस का दूध पीने वाले घोड़े उस जल में बैठ गये और गाय का दूध पीने वाले घोड़े उस जल को पार कर गये। इसी प्रकार बैल और भैंसे का परस्पर युद्ध कराया जाय तो भैंसा बैल को मार देगा परन्तु यदि दोनों को गाड़ी में जोता जाय तो भैंसा धूप में जीभ निकाल देगा जबकि बैल धूप में भी चलता रहेगा। कारण कि भैंस के दूध में सात्त्विक बल नहीं होता जबकि गाय के दूध में सात्त्विक बल होता है। जैसे प्राणियों की वृत्तियों का पदार्थों पर असर पड़ता है ऐसे ही प्राणियों की दृष्टि का भी असर पड़ता है। बुरे व्यक्ति की अथवा भूखे कुत्ते की दृष्टि भोजन पर पड़ जाती है तो वह भोजन अपवित्र हो जाता है। अब वह भोजन पवित्र कैसे हो ? भोजन पर उसकी दृष्टि पड़ जाय तो उसे देखकर मन में प्रसन्न हो जाना चाहिये कि भगवान पधारे हैं । अतः उसको सबसे पहले थोड़ा अन्न देकर भोजन करा दे। उसको देने के बाद बचे हुए शुद्ध अन्न को स्वयं ग्रहण करे तो दृष्टिदोष मिट जाने से वह अन्न पवित्र हो जाता है। दूसरी बात – लोग बछ़ड़े को पेट भर दूध न पिलाकर सारा दूध स्वयं दुह लेते हैं। वह दूध पवित्र नहीं होता क्योंकि उसमें बछड़े का हक आ जाता है। बछड़े को पेटभर दूध पिला दे और इसके बाद जो दूध निकले वह चाहे पावभर ही क्यों न हो बहुत पवित्र होता है। भोजन करने वाले और कराने वाले के भाव का भी भोजन पर असर पड़ता है जैसे – (1) भोजन करने वाले की अपेक्षा भोजन कराने वाले की जितनी अधिक प्रसन्नता होगी वह भोजन उतने ही उत्तम दर्जे का माना जायगा। (2) भोजन कराने वाला तो बड़ी प्रसन्नता से भोजन कराता है परन्तु भोजन करने वाला मुफ्त में भोजन मिल गया अपने इतने पैसे बच गये इससे मेरे में बल आ जायगा आदि स्वार्थ का भाव रख लेता है तो वह भोजन मध्यम दर्जे का हो जाता है और (3) भोजन कराने वाले का यह भाव है कि यह घर पर आ गया तो खर्चा करना पड़ेगा , भोजन बनाना पड़ेगा , भोजन कराना ही पड़ेगा आदि और भोजन करने वाले में भी स्वार्थभाव है तो वह भोजन निकृष्ट दर्जे का हो जायगा। इस विषय में गीता ने सिद्धान्तरूप से कह दिया है – सर्वभूतहिते रताः (5। 25? 12। 4)। तात्पर्य यह है कि जिसका सम्पूर्ण प्राणियों के हित का भाव जितना अधिक होगा उसके पदार्थ , क्रियाएँ आदि उतनी ही पवित्र हो जायेंगीं।भोजन के अन्त में आचमन के बाद ये श्लोक पढ़ने चाहिये – अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।। कर्म ब्रह्मोद्भं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्। तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।(गीता 3। 14 — 15) फिर भोजन के पाचन के लिये ‘अहं वैश्वानरो भूत्वा0’ (गीता 15। 14) श्लोक पढ़ते हुए मध्यमा अंगुली से नाभि को धीरे-धीरे घुमाना चाहिये। पहले यजन-पूजन और भोजन के द्वारा जो श्रद्धा बतायी उससे शास्त्रविधि का अज्ञतापूर्वक त्याग करने वालों की स्वाभाविक निष्ठा – रुचि की तो पहचान हो जाती है परन्तु जो मनुष्य व्यापार , खेती आदि जीविका के कार्य करते हैं अथवा शास्त्रविहित यज्ञादि शुभकर्म करते हैं उनकी स्वाभाविक रुचि की पहचान कैसे हो ? यह बताने के लिये यज्ञ , तप और दान के तीन-तीन भेदों का प्रकरण आरम्भ करते हैं।