Bhagwat Gita Chapter 17

 

 

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श्रद्धात्रयविभागयोग-  सत्रहवाँ अध्याय

Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog

 

ॐ तत् सत के प्रयोग की व्याख्या

 

 

Bhagawad Gita Chapter 17सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।

प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते।।17.26।।

 

सद्भावे ( सत्-भावे ) – शाश्वत सत्य और सत्वगुण की भावना के साथ; साधु भावे – पवित्र भाव के साथ; च-भी; सत् – सत् शब्द; इति–इस प्रकार; एतत्-इस; प्रयुज्यते-प्रयुक्त किया जाता है; प्रशस्ते-पवित्रः कर्मणि-कर्मों में; तथा – भी; सच्छब्दः ( सत्-शब्द ) – पवित्र अक्षर; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; युज्यते-प्रयोग किया जाता है;

 

हे पार्थ ! परमात्मा के सत् शब्द का अर्थ शाश्वत और साधुता है। इसका प्रयोग शुभ , उत्तम और पवित्र कर्मों को सम्पन्न करने के लिए किया जाता है। इस प्रकार परमात्मा का यह ‘ सत ‘ नाम सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है ৷৷17.26॥

 

सद्भावे – परमत्मा हैं इस प्रकार परमात्मा की सत्ता (होनेपन) का नाम सद्भाव है। उस परमात्मा के सगुण-निर्गुण , साकार-निराकार आदि जितने रूप हैं और सगुण-साकार में भी उसके विष्णु , राम , कृष्ण , शिव , शक्ति , गणेश , सूर्य आदि जितने अवतार हैं वे सब के सब सद्भाव के अन्तर्गत हैं। इस प्रकार जिसका किसी देश , काल , वस्तु आदि में कभी अभाव नहीं होता – ऐसे परमात्मा के जो अनेक रूप हैं , अनेक नाम हैं , अनेक तरह की लीलाएँ हैं वे सब के सब सद्भाव के अन्तर्गत हैं। साधुभावे – परमात्मप्राप्ति के लिये अलग-अलग सम्प्रदायों में अलग-अलग जितने साधन बताये गये हैं उनमें हृदय के जो दया , क्षमा आदि श्रेष्ठ उत्तम भाव हैं वे सब के सब साधुभाव के अन्तर्गत हैं। सदित्येतत्प्रयुज्यते – सत्ता में और श्रेष्ठता में ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है अर्थात् जो सदा है जिसमें,कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी और अभाव नहीं होता — ऐसे परमात्मा के लिये और उस परमात्मा की प्राप्ति के लिये दैवीसम्पत्ति के जो सत्य  , क्षमा , उदारता , त्याग आदि श्रेष्ठ गुण हैं उनके लिये ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जैसे – सत्तत्त्व , सद्गुण , सद्भाव आदि। प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते – परमात्मप्राप्ति के लिये अलग-अलग सम्प्रदायों में अलग-अलग जितने साधन बताये गये हैं उनमें क्रियारूप से जितने श्रेष्ठ आचरण हैं वे सब के सब प्रशस्ते कर्मणि के अन्तर्गत हैं। इसी प्रकार शास्त्रविधि के अनुसार यज्ञोपवीत , विवाह आदि संस्कार अन्नदान , भूमिदान , गोदान आदि दान और कुआँ-बावड़ी खुदवाना , धर्मशाला बनवाना , मन्दिर बनवाना , बगीचा लगवाना आदि श्रेष्ठ कर्म भी ‘प्रशस्ते कर्मणि’ के अन्तर्गत आते हैं। इन सब श्रेष्ठ आचरणों में , श्रेष्ठ कर्मों में ‘सत्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जैसे – सदाचार , सत्कर्म , सत्सेवा , सद्- व्यवहार आदि।

 

 

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