श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
श्रद्धा और शास्त्रविपरीत घोर तप करने वालों का विषय
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्।।17.6।।
कर्षयन्त:-कष्ट देना; शरीरस्थम् – शरीर के भीतर; भूतग्रामम्-शरीर के तत्त्व; अचेतसः-अचेतन; माम्-मुझे ; विद्धि-जानो; आसुरनिश्चयान्-असुर प्रकृति वाला।
जो शरीर में स्थित पाँच भूतों को अर्थात् पाञ्चभौतिक शरीर को तथा अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कष्ट देने वाले हैं उन अज्ञानियों को तू निश्चित रूप से आसुरी सम्पदा वाले समझ। वे न केवल अपने शरीर के अंगों को कष्ट देते हैं बल्कि मुझे, जो उनके शरीर में परमात्मा के रूप में स्थित रहता हूँ, मुझको भी कष्ट पहुँचाते हैं। ऐसे मूर्ख लोगों को पैशाचिक प्रवृति वाला कहा जाता है।
(शास्त्र से विरुद्ध उपवास आदि घोर आचरणों के द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान् के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ”कृश करना” या कष्ट देना है ) ৷৷17.6॥
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः – शास्त्र में जिसका विधान नहीं है प्रत्युत निषेध है ऐसे घोर तप को करने में उनकी रुचि होती है अर्थात् उनकी रुचि सदा शास्त्र से विपरीत ही होती है। कारण कि तामसी बुद्धि (गीता 18। 32) होने से वे स्वयं तो शास्त्रों को जानते नहीं और दूसरा कोई बता भी दे तो वे न उसको मानना चाहते हैं तथा न वैसा करना ही चाहते हैं। दम्भाहंकारसंयुक्ताः – उनके भीतर यह बात गहरी बैठी हुई रहती है कि आज संसार में जितने भजन , ध्यान , स्वाध्याय आदि करते हैं वे सब दम्भ करते हैं , दम्भ के बिना दूसरा कुछ है ही नहीं। अतः वे खुद भी दम्भ करते हैं। उनके भीतर अपनी बुद्धिमानी का , चतुराई का , जानकारी का अभिमान रहता है कि हम बड़े जानकार आदमी हैं , हम लोगों को समझा सकते हैं , उनको रास्ते पर ला सकते हैं , हम शास्त्रों की बातें क्यों सुनें ? हम कोई कम जानते हैं क्या ? हमारी बातें सुनो तो तुम्हारे को पता चले आदि आदि। कामरागबलान्विताः – काम शब्द भोगपदार्थों का वाचक है। उन पदार्थों में रँग जाना , तल्लीन हो जाना , एकरस हो जाना राग है और उनको प्राप्त करने का अथवा उनको बनाये रखने का जो हठ , दुराग्रह है वह बल है। इनसे वे सदा युक्त रहते हैं। उन आसुर स्वभाव वाले लोगों में यह भाव रहता है कि मनुष्यशरीर पाकर इन भोगों को नहीं भोगा तो मनुष्यशरीर पशु की तरह ही है। सांसारिक भोगसामग्री को मनुष्य ने प्राप्त नहीं किया तो फिर उसने क्या किया ? मनुष्यशरीर पाकर मनचाही भोगसामग्री नहीं मिली तो फिर उसका जीवन ही व्यर्थ है आदिआदि। इस प्रकार वे प्राप्त सामग्री को भोगने में सदा तल्लीन रहते हैं और धन-सम्पत्ति आदि भोग-सामग्री को प्राप्त करने के लिये हठपूर्वक जिद से तप किया करते हैं।कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्रामम् – वे शरीर में स्थित पाँच भूतों (पृथ्वी , जल , तेज , वायु और आकाश) को कृश करते हैं , शरीर को सुखाते हैं और इसी को तप समझते हैं। शरीर को कष्ट दिये बिना तप नहीं होता – ऐसी उनकी स्वाभाविक धारणा रहती है। आगे 14वें , 15वें और 16वें श्लोक में जहाँ शरीर , वाणी और मन के तप का वर्णन हुआ है वहाँ शरीर को कष्ट देने की बात नहीं है। वह तप बड़ी शान्ति से होता है परन्तु यहाँ जिस तप की बात है वह शास्त्रविरुद्ध घोर तप है और अविधिपूर्वक शरीर को कष्ट देकर किया जाता है। मां चैवान्तःशरीरस्थम् – भगवान कहते हैं कि ऐसे लोग अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करते हैं , दुःख देते हैं। कैसे वे मेरी आज्ञा , मेरे म तके अनुसार नहीं चलते प्रत्युत उसके विपरीत चलते हैं। अर्जुन ने पूछा था कि वे कौन सी निष्ठा वाले हैं ? सात्त्विक हैं कि राजस-तामस दैवीसम्पत्ति वाले हैं कि आसुरीसम्पत्ति वाले तो भगवान कहते हैं कि उनको आसुर निश्चय वाले समझो – तान्विद्धि आसुरनिश्चयान्। यहाँ ‘आसुरनिश्चयान्’ पद सामान्य आसुरीसम्पत्ति वालों का वाचक नहीं है प्रत्युत उनमें भी जो अत्यन्त नीच – विशेष नास्तिक हैं उनका वाचक है। विशेष बात – चौथे श्लोक में शास्त्रविधि को न जानने वाले श्रद्धायुक्त मनुष्यों के द्वारा किये जाने वाले पूजन के लिये ‘यजन्ते’ पद आया है परन्तु यहाँ शास्त्रविधि का त्याग करने वाले श्रद्धारहित मनुष्यों के द्वारा किये जाने वाले पूजन के लिये ‘तप्यन्ते’ पद आया है। इसका कारण यह है कि आसुर निश्चयवाले मनुष्यों की तप करने में ही पूज्यबुद्धि होती है – तप ही उनका यज्ञ होता है और वे मनगढ़ंत रीति से शरीर को कष्ट देने को ही तप मानते हैं। उनके तप का लक्षण है – शरीर को सुखाना , कष्ट देना। वे तप को बहुत महत्त्व देते हैं , उसे बहुत अच्छा मानते हैं परन्तु भगवान को , शास्त्र को नहीं मानते। तप भी वही करते हैं जो शास्त्र के विरुद्ध है। बहुत ज्यादा भूखे रहना , काँटों पर सोना , उलटे लटकना , एक पैर से खड़े होना , शास्त्राज्ञा से विरुद्ध अग्नि तपना ; अपने शरीर , मन , इन्द्रियों को किसी तरह कष्ट पहुँचाना आदि – ये सब आसुर निश्चयवालों के तप होते हैं। 16वें अध्याय के 23वें श्लोक में शास्त्रविधि को जानते हुए भी उसकी उपक्षा करके दान-सेवा , उपकार आदि शुभकर्मों को करने की बात आयी है जो इतनी बुरी नहीं है क्योंकि उनके दान आदि कर्म शास्त्रविधियुक्त तो नहीं हैं पर शास्त्रनिषिद्ध भी नहीं हैं परन्तु यहाँ जो शास्त्रों में विहित नहीं हैं उनको ही श्रेष्ठ मानकर मनमाने ढंग से विपरीत कर्म करने की बात है। दोनों में फरक क्या हुआ ? 23वें श्लोक में कहे लोगों को सिद्धि , सुख और परमगति नहीं मिलेगी अर्थात् उनके नाममात्र के शुभकर्मों का पूरा फल नहीं मिलेगा परन्तु यहाँ कहे लोगों को तो नीच योनियों तथा नरकों की प्राप्ति होगी क्योंकि इनमें दम्भ , अभिमान आदि हैं। ये शास्त्रों को मानते भी नहीं , सुनते भी नहीं और कोई सुनाना चाहे तो सुनना चाहते भी नहीं। 16वें अध्याय के 23वें श्लोक में शास्त्र का उपेक्षापूर्वक त्याग है इसी अध्याय के पहले श्लोक में शास्त्र का अज्ञतापूर्वक त्याग है और यहाँ शास्त्र का विरोधपूर्वक त्याग है। आगे तामस यज्ञादि में भी शास्त्र की उपेक्षा है परन्तु यहाँ श्रद्धा , शास्त्रविधि , प्राणिसमुदाय और भगवान – इन चारों के साथ विरोध है। ऐसा विरोध दूसरी जगह आये राजसी-तामसी वर्णनमें नहीं है। अगर कोई मनुष्य किसी प्रकार भी यजन न करे तो उसकी श्रद्धा कैसे पहचानी जायगी ? – इसे बताने के लिये भगवान आहार की रुचि से आहारी की निष्ठा की पहचान का प्रकरण आरम्भ करते हैं।