श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
ॐ तत् सत के प्रयोग की व्याख्या
तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।।17.23।।
ॐ तत् सत् – परम सत्य को अभिव्यक्त करने वाला शब्द; इति-इस प्रकार; निर्देशः- प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियाँ; ब्राह्मणः-ब्रह्म का; त्रिविध-तीन प्रकार का; स्मृतः-माना जाता है; ब्राह्मणा:-ब्राह्मण लोग; तेन-उससे; वेदा:-धार्मिक ग्रंथ; च-भी; यज्ञाः-यज्ञ; विहिता:-प्रयुक्त; पुरा-आदिकाल में।
सृष्टि के आरंभ से ‘ॐ-तत्-सत्’ शब्दों को सर्वोच्च परम सत्य की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति माना है। ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानन्दघन ब्रह्म का नाम कहा है । उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञ आदि रचे गए। अर्थात ‘ ऊँ, तत् सत्’ ऐसा यह ब्रह्म का तीन प्रकार का नाम कहा गया है । इन तीनों नामों से जिस परमात्मा का निर्देश किया गया है उसी परमात्मा ने सृष्टि के आदि में वेदों, ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना की है ৷৷17.23॥
तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः – ॐ , तत् और सत् – यह तीन प्रकार का परमात्मा का निर्देश है अर्थात् परमात्मा के तीन नाम हैं (इन तीनों नामों की व्याख्या भगवान ने आगे के चार श्लोकों में की है)। ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा – उस परमात्मा ने पहले (सृष्टि के आरम्भ में) वेदों , ब्राह्मणों और यज्ञों को बनाया। इन तीनों में विधि बताने वाले वेद हैं , अनुष्ठान करने वाले ब्राह्मण हैं और क्रिया करने के लिये यज्ञ हैं। अब इनमें यज्ञ , तप , दान आदि की क्रियाओं में कोई कमी रह जाये तो क्या करें ? परमात्मा का नाम लें तो उस कमी की पूर्ति हो जायगी। जैसे रसोई बनाने वाला जल से आटा सानता (गूँधता) है तो कभी उसमें जल अधिक पड़ जाये तो वह क्या करता है ? आटा और मिला लेता है। ऐसे ही कोई निष्कामभाव से यज्ञ , दान आदि शुभकर्म करे और उनमें कोई कमी – अङ्गवैगुण्य रह जाये तो जिस भगवान से यज्ञ आदि रचे गये हैं उस भगवान का नाम लेने से वह अङ्गवैगुण्य ठीक हो जाता है , उसकी पूर्ति हो जाती है।