श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।
मनः-प्रसादः-मन की प्रसन्नता; सौम्यन्तम्-विनम्रता; मौनम् – मौन धारण करना; आत्मविनिग्रह-आत्म नियन्त्रण; भावसंशुद्धिः-लक्ष्य की शुद्धि; इति-इस प्रकार; एतत्-ये; तपः-तपस्या; मानसम्-मन की; उच्यते-इस प्रकार से घोषित किया गया है।
मन की प्रसन्नता, सौम्य भाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मौन , आत्मसंयम , मन का निग्रह , अन्तःकरण के भावों की शुद्धि , विचारों की शुद्धता, विनम्रता, मौन, आत्म-नियन्त्रण , मननशीलता तथा लक्ष्य की शुद्धि – इन सबको मन के तप या मानस तप के रूप में घोषित किया गया है अर्थात यह सब मन सम्बन्धी तप कहलाता है ৷৷17.16॥
मनःप्रसादः – मन की प्रसन्नता को ‘मनःप्रसाद’ कहते हैं। वस्तु , व्यक्ति , देश , काल , परिस्थिति , घटना आदि के संयोग से पैदा होने वाली प्रसन्नता स्थायीरूप से हरदम नहीं रह सकती क्योंकि जिसकी उत्पत्ति होती है वह वस्तु स्थायी रहने वाली नहीं होती परन्तु दुर्गुण-दुराचारों से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर जो स्थायी तथा स्वाभाविक प्रसन्नता प्रकट होती है वह हरदम रहती है और वही प्रसन्नता मन , बुद्धि आदि में आती है जिससे मन में कभी अशान्ति होती ही नहीं अर्थात् मन हरदम प्रसन्न रहता है। मन में अशान्ति , हलचल आदि कब होते हैं जब मनुष्य धन-सम्पत्ति , स्त्री-पुत्र आदि नाशवान चीजों का सहारा ले लेता है। जिसका सहारा उसने ले रखा है वे सब चीजें आने-जाने वाली हैं , स्थायी रहने वाली नहीं हैं। अतः उनके संयोग-वियोग से उसके मन में हलचल आदि होती है। यदि साधक न रहने वाली चीजों का सहारा छोड़कर नित्य-निरन्तर रहने वाले प्रभु का सहारा ले ले तो फिर पदार्थ , व्यक्ति आदि के संयोग-वियोग को लेकर उसके मन में कभी अशान्ति , हलचल नहीं होगी। मन की प्रसन्नता प्राप्त करने के उपाय (1) सांसारिक वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति , देश , काल , घटना आदि को लेकर मन में राग और द्वेष पैदा न होने दे। (2) अपने स्वार्थ और अभिमान को लेकर किसी से पक्षपात न करे। (3) मन को सदा दया , क्षमा , उदारता आदि भावों से परिपूर्ण रखे। (4) मन में प्राणिमात्र के हित का भाव हो। (5) हितपरिमितभोजी नित्यमेकान्तसेवी सकृदुचितहितोक्तिः स्वल्पनिद्राविहारः। अनुनियमनशीलो यो भजत्युक्तकाले स लभत इव शीघ्रं साधुचित्तप्रसादम्।।(सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह 372) जो शरीर के लिये हितकारक एवं नियमित भोजन करने वाला है , सदा एकान्त में रहने के स्वभाव वाला है , किसी के पूछने पर कभी कोई हित की उचित बात कह देता है अर्थात् बहुत ही कम मात्रा में बोलता है जो सोना और घूमना बहुत कम करने वाला है। इस प्रकार जो शास्त्र की मर्यादा के अनुसार खान-पान , विहार आदि का सेवन करने वाला है वह साधक बहुत ही जल्दी चित्त की प्रसन्नता को प्राप्त हो जाता है। इन उपायों से मन सदा प्रसन्न रहता है। सौम्यत्वम् – हृदय में हिंसा , क्रूरता , कुटिलता , असहिष्णुता , द्वेष आदि भावों के न रहने से एवं भगवान के गुण , प्रभाव , दयालुता , सर्वव्यापकता आदि पर अटल विश्वास होने से साधक के मन में स्वाभाविक ही सौम्यभाव रहता है। फिर उसको कोई टेढ़ा वचन कह दे उसका तिरस्कार कर दे उस पर बिना कारण दोषारोपण करे उसके साथ कोई वैर-द्वेष रखे अथवा उसके धन , मान , महिमा आदि की हानि हो जाय तो भी उसके सौम्यभाव में कुछ भी फरक नहीं पड़ता। मौनम् – अनुकूलता-प्रतिकूलता , संयोग-वियोग , राग-द्वेष , सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों को लेकर मन में हलचल का न होना ही वास्तव में मौन है (टिप्पणी प0 853)। शास्त्रों , पुराणों और सन्त-महापुरुषों की वाणियों का तथा उनके गहरे भावों का मनन होता रहे गीता , रामायण , भागवत आदि भगवत्सम्बन्धी ग्रन्थों में कहे हुए भगवान के गुणों का , चरित्रों का सदा मनन होता रहे , संसार के प्राणी किस प्रकार सुखी हो सकते हैं , सबका कल्याण किन-किन उपायों से हो सकता है ? किन-किन सरल युक्तियों से हो सकता है ? उन-उन उपायों का और युक्तियों का मन में हरदम मनन होता रहे – ये सभी मौन शब्द से कहे जा सकते है। आत्मविनिग्रहः – मन बिलकुल एकाग्र हो जाय और ‘तैलधारावत्’ एक ही चिन्तन करता रहे – इसको भी मन का निग्रह कहते हैं परन्तु मन का सच्चा निग्रह यही है कि मन साधक के वश में रहे अर्थात् मन को जहाँ से हटाना चाहें वहाँ से हट जाय और जहाँ जितनी देर लगाना चाहें वहाँ उतनी देर लगा रहे। तात्पर्य यह है कि साधक मनके वशीभूत होकर काम नहीं करे? प्रत्युत मन ही उसके वशीभूत होकर काम करता रहे। इस प्रकार मन का वशीभूत होना ही वास्तव में आत्मविनिग्रह है। भावसंशुद्धिः – जिस भाव में अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग हो और दूसरों की हितकारिता हो उसे भावसंशुद्धि अर्थात् भाव की महान पवित्रता कहते हैं। जिसके भीतर एक भगवान का ही आसरा , भरोसा है , एक भगवान का ही चिन्तन है और एक भगवान की तरफ चलने का ही निश्चय है उसके भीतर के भाव बहुत जल्दी शुद्ध हो जाते हैं। फिर उसके भीतर उत्पत्तिविनाशशील संसारिक वस्तुओं का सहारा नहीं रहता क्योंकि संसार का सहारा रखने से ही भाव अशुद्ध होते हैं।इत्येतत्तपो मानसमुच्यते – इस प्रकार जिस तप में मन की मुख्यता होती है वह मानस (मनसम्बन्धी) तप कहलाता है। अब भगवान आगे के तीन श्लोकों में क्रमशः सात्त्विक , राजस और तामस तप का वर्णन करते हैं।