श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।।17.17।।
श्रद्धया – श्रद्धा के साथ; परया-परे; तप्तम्-सम्पन्न किए हुए; तपः-तप; तत्-वह; त्रिविधाम्-तीन प्रकार के; नरैः-मनुष्यों द्वारा; अफलाकाङ्क्षिभि ( अफल-काक्षिभिः ) – फल की कामना न करना; युक्तै:-दृढ़ निश्चय; सात्त्विकम् – सत्वगुण में; परिचक्षते – निर्दिष्ट करना।
जब धर्मनिष्ठ व्यक्ति उत्कृष्ट श्रद्धा के साथ भौतिक पदार्थों की लालसा के बिना तीन प्रकार की तपस्याएँ करते हैं तब इन्हें सत्वगुणी तपस्याओं के रूप में घोषित किया जाता है अर्थात फल की इच्छा से रहित या फल की आकांक्षा न रखने वाले मनुष्यों के द्वारा परम श्रद्धा से युक्त हो कर तीन प्रकार (शरीर, वाणी और मन ) का त्रिविध तप किया जाता है, उसको सात्त्विक कहते हैं ৷৷17.17॥
श्रद्धया परया तप्तम् — शरीर? वाणी और मनके द्वारा जो तप किया जाता है? वह तप ही मनुष्योंका सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है और यही मानवजीवन के उद्देश्य की पूर्ति का अचूक उपाय है (टिप्पणी प0 854) तथा इसको साङ्गोपाङ्ग – अच्छी तरह से करने पर मनुष्य के लिये कुछ करना बाकी नहीं रहता अर्थात् जो वास्तविक तत्त्व है उसमें स्वतः स्थिति हो जाती है – ऐसे अटल विश्वासपूर्वक श्रेष्ठ श्रद्धा कर के बड़े-बड़े विघ्न और बाधाओं की कुछ भी परवाह न करते हुए उत्साह एवं आदरपूर्वक तप का आचरण करना ही परम श्रद्धा से युक्त मनुष्यों द्वारा उस तप को करना है। अफलाकाङ्क्षिभिः युक्तैः नरैः – यहाँ इन दो विशेषणों सहित ‘नरैः’ पद देने का तात्पर्य यह है कि आंशिक सद्गुण-सदाचार तो प्राणिमात्र में रहते ही हैं परन्तु मनुष्य में यह विशेषता है कि वह सद्गुण-सदाचारों को साङ्गोपाङ्ग एवं विशेषता से अपने में ला सकता है और दुर्गुण-दुराचार , कामना , मूढ़ता आदि दोषों को सर्वथा मिटा सकता है। निष्कामभाव मनुष्यों में ही हो सकता है। सात्त्विक तप में तो नर शब्द दिया है परन्तु राजस-तामस तप में मनुष्यवाचक शब्द दिया ही नहीं। तात्पर्य यह है कि अपना कल्याण करने के उद्देश्य से मिले हुए अमूल्य शरीर को पाकर भी जो कामना , दम्भ , मूढ़ता आदि दोषों को पकड़े हुए हैं वे मनुष्य कहलाने के लायक ही नहीं हैं। फल की इच्छा न रखकर निष्कामभाव से तप का अनुष्ठान करने वाले मनुष्यों के लिये यहाँ उपर्युक्त पद आये हैं।तपस्तत्ित्रविधम् – यहाँ केवल सात्त्विक तप में ‘त्रिविध’ पद दिया है और राजस तथा तामस तप में त्रिविध पद न देकर ‘यत्तत्’ पद देकर ही काम चलाया है। इसका आशय यह है कि शारीरिक , वाचिक और मानसिक – तीनों तप केवल सात्त्विक में ही साङ्गोपाङ्ग आ सकते हैं , राजस तथा तामस में तो आंशिकरूप से ही आ सकते हैं। इसमें भी राजस में कुछ अधिक लक्षण आ जायँगे क्योंकि राजस मनुष्य का शास्त्रविधि की तरफ खयाल रहता है परन्तु तामस में तो उन तपों के बहुत ही कम लक्षण आयेंगें क्योंकि तामस मनुष्यों में मूढ़ता , दूसरों को कष्ट देना आदि दोष रहते हैं। दूसरी बात – 13वें अध्याय में 7वें से 11वें श्लोक तक जो ज्ञान के 20 साधनों का वर्णन आया है उनमें भी शारीरिक तप के तीन लक्षण – शौच , आर्जव और अहिंसा तथा मानसिक तप के दो लक्षण – मौन और आत्मविनिग्रह आये हैं। ऐसे ही 16वें अध्याय में पहले से तीसरे श्लोक तक जो दैवीसम्पत्ति के 26 लक्षण बताये गये हैं उनमें भी शारीरिक तप के तीन लक्षण – शौच , अहिंसा और आर्जव तथा वाचिक तप के दो लक्षण – सत्य और स्वाध्याय आये हैं। अतः ज्ञान के जिन साधनों से तत्त्वबोध हो जाय तथा दैवीसम्पत्ति के जिन गुणों से मुक्ति हो जाय वे लक्षण या गुण राजस-तामस नहीं हो सकते। इसलिये राजस और तामस तप में शारीरिक , वाचिक और मानसिक – यह तीनों प्रकार का तप साङ्गोपाङ्ग नहीं लिया जा सकता। वहाँ तो ‘यत्तत्’ पदों से आंशिक जितना-जितना आ सके उतना-उतना ही लिया जा सकता है। तीसरी बात – भगवद्गीता का आदि से अन्त तक अध्ययन करने पर यह असर पड़ता है कि इसका उद्देश्य केवल जीव का कल्याण करने का है। कारण कि अर्जुन का जो प्रश्न है वह निश्चित श्रेय (कल्याण) का है (2। 7 3। 2 5। 1)। भगवान ने भी उत्तर में जितने साधन बताये हैं वे सब जीवों का निश्चित कल्याण हो जाय – इस लक्ष्य को लेकर ही बताये हैं। इसलिये गीता में जहाँ कहीं सात्त्विक , राजस और तामस भेद किया गया है वहाँ जो सात्त्विक विभाग है वह ग्राह्य है क्योंकि वह मुक्ति देने वाला है – दैवी सम्पद्विमोक्षाय और जो राजसतामस विभाग है वह त्याज्य है क्योंकि वह बाँधने वाला है – निबन्धायासुरी मता। इसी आशय से भगवान यहाँ सात्त्विक तप में शारीरिक , वाचिक और मानसिक – इन तीनों तपों का लक्ष्य कराने के लिये ‘त्रिविधम्’ पद देते हैं। सात्त्विकं परिचक्षते – परम श्रद्धा से युक्त फल को न चाहने वाले मनुष्यों के द्वारा जो तप किया जाता है वह सात्त्विक तप कहलाता है।