श्रद्धात्रयविभागयोग- सत्रहवाँ अध्याय
Chapter 17: Śhraddhā Traya Vibhāg Yog
आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।।17.20।।
दातव्यम्-दान देने योग्यः इति – इस प्रकार; यत्-जो; दानम्-दान; दीयते – दिया जाता है; अनुपकारिणे-बिना प्रतिफल की इच्छा से दान करने वाला; देशे-उचित स्थान में; काले-उचित समय में; च-भी; पात्रे- उचित और सुपात्र व्यक्ति को; च-तथा; तत्-वह; दानम्-दान; सात्त्विकम् – सत्वगुण; स्मृतम्-माना जाता है।
जो दान बिना किसी फल की कामना से यथोचित समय और यथोचित स्थान में किसी सुपात्र को दिया जाता है वह सात्विक दान माना जाता है अर्थात ” दान देना कर्तव्य है “- ऐसे भाव से जो दान सुयोग्य देश, काल और सुपात्र के प्राप्त होने पर बिना किसी फल की इच्छा के किया जाता है , वह दान सात्त्विक कहा गया है ৷৷17.20॥
(भूखे, अनाथ, दुःखी, रोगी , असमर्थ तथा भिक्षुक आदि जिनके पास अन्न, वस्त्र, औषधि आदि का अभाव है दान देने के लिए सुपात्र समझे जाते है तथा जिस भी वस्तु का उनके पास अभाव हो उस वस्तु के द्वारा उनकी सेवा करने के लिए दिया गया दान योग्य दान समझा जाता है। इसके अतिरिक्त श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान् ब्राह्मणजन धन आदि सब प्रकार के पदार्थों द्वारा सेवा करने के लिए योग्य पात्र समझे जाते हैं और उनको किया गया प्रत्येक प्रकार का दान सुयोग्य दान माना जाता है )
(जिस देश-काल में जिस वस्तु का अभाव हो, वही देश-काल, उस वस्तु द्वारा प्राणियों की सेवा करने के लिए योग्य समझा जाता है।)
इस श्लोकमें दानके दो विभाग हैं – (1) दातव्यमिति यद्दानं दीयते अनुपकारिणे और (2) देशे काले च पात्रे च।दातव्यमिति ৷৷. देशे काले च पात्रे च — केवल देना ही मेरा कर्तव्य है। कारण कि मैंने वस्तुओं को स्वीकार किया है अर्थात् उन्हें अपना माना है। जिसने वस्तुओं को स्वीकार किया है उसी पर देने की जिम्मेवारी होती है। अतः देनामात्र मेरा कर्तव्य है – इस भाव से दान करना चाहिये। उसका यहाँ क्या फल होगा और परलोक में क्या फल होगा ? यह भाव बिलकुल नहीं होना चाहिये। ‘दातव्य’ का तात्पर्य ही त्याग में है। अब किसको दिया जाय तो कहते हैं – दीयतेऽनुपकारिणे अर्थात् जिसने पहले कभी हमारा उपकार किया ही नहीं अभी भी उपकार नहीं करता है और आगे हमारा उपकार करेगा ऐसी सम्भावना भी नहीं है – ऐसे अनुपकारी को निष्कामभाव से देना चाहिये। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जिसने हमारा उपकार किया है उसको न दे प्रत्युत जिसने हमारा उपकार किया है उसे देने में दान न माने। कारण कि केवल देनेमात्र से सच्चे उपकार का बदला नहीं चुकाया जा सकता। अतः उपकारी की भी अवश्य सेवा-सहायता करनी चाहिये पर उसको दान में भरती नहीं करना चाहिये। उपकार की आशा रखकर देने से वह दान राजसी हो जाता है। देशे काले च पात्रे च (टिप्पणी प0 857) पदोंके दो अर्थ होते हैं – (1) जिस देश में जो चीज नहीं है और उस चीज की आवश्यकता है उस देश में वह चीज देना , जिस समय जिस चीज की आवश्यकता है उस समय वह चीज देना और जिसके पास जो चीज नहीं है और उसकी आवश्यकता है उस अभावग्रस्त को वह चीज देना। (2) गङ्गा , यमुना , गोदावरी आदि नदियाँ और कुरुक्षेत्र , प्रयागराज , काशी आदि पवित्र देश प्राप्त होने पर दान देना अमावस्या , पूर्णिमा , व्यतिपात , अक्षय तृतीया , संक्रान्ति आदि पवित्र काल प्राप्त होने पर दान देना और वेदपाठी ब्राह्मण , सद्गुणी-सदाचारी भिक्षुक आदि उत्तम पात्र प्राप्त होने पर दान देना। ‘देशे काले च पात्रे च’ पदों से उपर्युक्त दोनों ही अर्थ लेने चाहिये। तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् – ऐसा दिया हुआ दान सात्त्विक कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण सृष्टि की जितनी चीजें हैं वे सबकी हैं और सबके लिये हैं। अपनी व्यक्तिगत नहीं हैं। इसलिये अनुपकारी व्यक्ति को भी जिस चीज – वस्तु की आवश्यकता हो वह चीज उसी की समझकर उसको देनी चाहिये। जिसके पास वह वस्तु पहुँचेगी वह उसी का हक है क्योंकि यदि उसकी वस्तु नहीं है तो दूसरा व्यक्ति चाहते हुए भी उसे वह वस्तु दे सकेगा नहीं। इसलिये पहले से यह समझे कि उसकी ही वस्तु उसको देनी है अपनी वस्तु (अपनी मानकर) उसको नहीं देनी है। तात्पर्य यह है कि जो वस्तु अपनी नहीं है और अपने पास है अर्थात् उसको हमने अपनी मान रखी है उस वस्तु को अपनी न मानने के लिये उसकी समझकर उसी को देनी है। इस प्रकार जिस दान को देने से वस्तु , फल और क्रिया के साथ अपना सम्बन्ध-विच्छेद होता है वह दान सात्त्विक कहा जाता है।