Bhagavat gita chapter 7

 

 

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अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग

दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग

 

24-30 भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा

 

 

Srimad Bhagavad Gita chapter 7जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।

ते ब्रह्य तद्विदुः कृत्स्न्मध्यात्म कर्म चाखिलम् ॥7.29॥

 

जरा-वृद्धावस्था; मरण- मृत्यु से; मोक्षाय–मुक्ति के लिए; माम्-मुझको, मेरे; आश्रित्य–शरणागति में; यतन्ति-प्रयत्न करते हैं; ये-जो; ते-ऐसे व्यक्ति; ब्रह्म-ब्रह्म; तत्-उस; विदु-जान जाते हैं; कृत्स्नम्-सब कुछ; अध्यात्मम्-जीवात्मा; कर्म-कर्म; च-भी; अखिलम् – सम्पूर्ण;

 

जो मेरे शरणागत होकर वृद्धावस्था और मृत्यु से मुक्ति या मोक्ष पाने की चेष्टा करते हैं, वे उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को , अपनी आत्मा को और सम्पूर्ण कर्मों को या समस्त कार्मिक गतिविधियों के क्षेत्र को जान जाते हैं।।7.29॥

 

(‘जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ‘  यहाँ जरा (वृद्धावस्था) और मरण से मुक्ति पाने का तात्पर्य यह नहीं है कि ब्रह्म ,अध्यात्म और कर्म का ज्ञान होने पर वृद्धावस्था नहीं होगी , शरीर की मृत्यु नहीं होगी। इसका तात्पर्य यह है कि बोध होने के बाद शरीर में आने वाली वृद्धावस्था और मृत्यु तो आयेगी ही पर ये दोनों अवस्थाएँ उसको दुःखी नहीं कर सकेंगी। जैसे 13वें अध्याय के 34वें श्लोक में ‘भूतप्रकृतिमोक्षम्’ कहने का तात्पर्य भूत और प्रकृति अर्थात् कार्य और कारण से सम्बन्ध-विच्छेद होने में है । ऐसे ही यहाँ ‘जरामरणमोक्षाय’ कहने का तात्पर्य जरा , मृत्यु आदि शरीर के विकारों से सम्बन्ध-विच्छेद होने में है। जैसे कोई युवा पुरुष है तो उसकी अभी न वृद्धावस्था है और न मृत्यु है । अतः वह जरामरण से अभी मुक्त है परन्तु वास्तव में वह जरामरण से मुक्त नहीं है क्योंकि जरामरण के कारण शरीर के साथ जब तक सम्बन्ध है तब तक जरामरण से रहित होते हुए भी वह इनसे मुक्त नहीं है परन्तु जो जीवन्मुक्त महापुरुष हैं उनके शरीर में जरा और मरण होने पर भी वे इनसे मुक्त हैं। अतः जरामरण से मुक्त होने का तात्पर्य है जिसमें जरा और मरण होते हैं । ऐसे प्रकृति के कार्य शरीर के साथ सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होना। जब मनुष्य शरीर के साथ तादात्म्य (मैं यही हूँ) मान लेता है तब शरीर के वृद्ध होने पर मैं वृद्ध हो गया और शरीर के मरने को लेकर मैं मर जाऊँगा ऐसा मानता है। यह मान्यता शरीर मैं हूँ और शरीर मेरा है इसी पर टिकी हुई है। इसलिये 13वें अध्याय के 8वें श्लोक में आया है ‘जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्’ अर्थात् जन्म , मृत्यु , जरा और व्याधि में दुःखरूप दोषों को देखना इसका तात्पर्य है कि शरीर के साथ मैं और मेरापन का सम्बन्ध न रहे। जब मनुष्य मैं और मेरापन से मुक्त हो जायगा तब वह जरा मरण आदिसे भी मुक्त हो जायगा क्योंकि शरीर के साथ माना हुआ सम्बन्ध ही वास्तव में जन्म का कारण है ‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता 13। 21)। वास्तव में इसका शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं है तभी सम्बन्ध मिटता है। मिटता वही है जो वास्तव में नहीं होता। यहाँ ‘मामाश्रित्य यतन्ति ये’ पदों में आश्रय लेना और यत्न करना इन दो बातों को कहनेका तात्पर्य है कि मनुष्य अगर स्वयं यत्न करता है तो अभिमान आता है कि मैंने ऐसा कर लिया , जिससे ऐसा हो गया और अगर स्वयं यत्न न करके भगवान के आश्रय से सब कुछ हो जायगा , ऐसा मानता है तो वह आलस्य और प्रमादमें तथा संग्रह और भोग में लग जाता है। इसलिये यहाँ दो बातें बतायीं कि शास्त्र की आज्ञा के अनुसार स्वयं तत्परता से उद्योग करे और उस उद्योग के होने में तथा उद्योग की सफलता में कारण भगवान को माने। जो नित्य-निरन्तर वियुक्त हो रहा है , ऐसे शरीरसंसार को मनुष्य प्राप्त और स्थायी मान लेता है। जब तक वह शरीर और संसार को स्थायी मानकर उसे महत्ता देता रहता है तब तक साधन करने पर भी उसको भगवत्प्राप्ति नहीं होती। अगर वह शरीरसंसार को स्थायी न माने और उसको महत्त्व न दे तो भगवत्प्राप्ति में देरी नहीं लगेगी। अतः इन दोनों बाधाओं को अर्थात् शरीरसंसार की स्वतन्त्र सत्ता को और महत्ता को विचारपूर्वक हटाना ही यत्न करना है परन्तु जो भगवान का आश्रय लेकर यत्न करते हैं वे श्रेष्ठ हैं। उनका तो यही भाव रहता है कि उस प्रभु की कृपा से ही साधन-भजन हो रहा है। भगवान की कृपा का आश्रय लेने से और अपने बल का अभिमान न करने से वे भगवान के समग्ररूप को जान लेते हैं। जो भगवान का आश्रय न लेकर अपना कल्याण चाहते हुए उद्योग करते हैं उनको अपनेअपने साधनके अनुसार भगवत्स्वरूपका बोध तो हो जाता है पर भगवान्के समग्ररूपका बोध उनको नहीं होता। जैसे कोई प्राणायाम आदि के द्वारा योग का अभ्यास करता है तो उसको अणिमा , महिमा आदि सिद्धियाँ मिलती हैं और उनसे ऊँचा उठने पर परमात्मा के निराकारस्वरूप का बोध होता है अथवा अपने स्वरूप में स्थिति होती है। ऐसे ही बौद्ध ,जैन आदि सम्प्रदायों में चलने वाले जितने मनुष्य हैं जो कि ईश्वर को नहीं मानते , वे भी अपने-अपने सम्प्रदाय के सिद्धान्तों के अनुसार साधन करके असत जड़रूप संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करके मुक्त हो जाते हैं परन्तु जो संसार से विमुख होकर भगवान का आश्रय लेकर यत्न करते हैं उनको भगवान के समग्ररूप का बोध होकर भगवत्प्रेम की प्राप्ति हो जाती है । यह विलक्षणता बताने के लिये ही भगवान ने यहाँ ‘मामाश्रित्य यतन्ति’ ये कहा है। ‘ते ब्रह्म तत्’ (विदुः) इस तरह से यत्न (साधन) करने पर वे मेरे स्वरूप को (टिप्पणी प0 443) अर्थात् जो निर्गुण-निराकार है जो मन, बुद्धि , इन्द्रियों आदि का विषय नहीं है , जो सामने नहीं है , शास्त्र जिसका परोक्षरूप से वर्णन करते हैं , उस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को जान जाते हैं। ब्रह्म के साथ तत् शब्द देने का तात्पर्य यह है कि प्रायः सभी तत् शब्द से कहे जाने वाले जिस परमात्मा को परोक्षरूप से ही देखते हैं । ऐसे परमात्मा का भी वे साक्षात् अपरोक्षरूप से अनुभव कर लेते हैं। उस परमात्मा की सत्ता प्राणिमात्र में स्वतःसिद्ध है। कारण कि वह परमात्मा किसी देश में न हो , किसी समय में न हो , किसी वस्तु में न हो और किसी व्यक्ति में न हो । ऐसा नहीं है बल्कि वह सब देश में है , सब समय में है , सब वस्तुओं में है और सब व्यक्तियों में है। ऐसा होने पर भी वह अप्राप्त क्यों दिखता है ? जो पहले नहीं था , बाद में नहीं रहेगा । अभी मौजूद रहते हुए भी प्रतिक्षण वियुक्त हो रहा है , अभाव में जा रहा है । ऐसे शरीरसंसार की सत्ता और महत्ता स्वीकार कर ली । इसी से नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व अप्राप्त दिख रहा है। ‘कृत्स्नमध्यात्मम्’ (विदुः) वे सम्पूर्ण अध्यात्म को जान जाते हैं अर्थात् सम्पूर्ण जीव तत्त्व से क्या हैं ? इस बात को वे जान जाते हैं। 15वें अध्याय के 10वें श्लोक में कहा है कि जीव के द्वारा एक शरीर को छो़ड़कर दूसरे शरीर को प्राप्त करने को विमूढ़ पुरुष नहीं जानते और ज्ञानचक्षुवाले जानते हैं। इसको जानने का तात्पर्य यह नहीं है कि जीव कितने हैं ? वे क्या-क्या करते हैं ? और उनकी क्या-क्या गति हो रही है? इसको जान जाते हैं बल्कि  आत्मा शरीर से अलग है , इसको तत्त्वसे जान जाते हैं अर्थात् अनुभव कर लेते हैं। भगवान के आश्रय से साधक का जब क्रियाओं और पदार्थों में सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है तब वह अध्यात्मतत्त्व को , अपने स्वरूप को जान जाता है। केवल अपने स्वरूप को ही नहीं बल्कि तीनों लोकों और चौदह भुवनों में जितने भी स्थावरजङ्ग प्राणी हैं , उन सबका स्वरूप शुद्ध है , निर्मल है , प्रकृति से असम्बन्ध है। अनन्त जन्मों तक , अनन्त क्रियाओं और शरीरों के साथ एकता करने पर भी उनकी कभी एकता हो ही नहीं सकती और अनन्त जन्मों तक अपने स्वरूप का बोध न होने पर भी वे अपने स्वरूप से कभी अलग हो ही नहीं सकते , ऐसा जानना सम्पूर्ण अध्यात्मतत्त्व को जानना है। ‘कर्म चाखिलं विदुः’ वे सम्पूर्ण कर्मों के वास्तविक तत्त्व को जान जाते हैं अर्थात् सृष्टि की रचना क्यों होती है ? कैसे होती है ? और भगवान् कैसे करते हैं ? इसको भी वे जान जाते हैं। जैसे भगवान ने चारों वर्णों की रचना की। उस रचना में जीवों के जो गुण और कर्म हैं अर्थात् उनके जैसे भाव हैं और उन्होंने जैसे कर्म किये हैं उनके अनुसार ही शरीरों की रचना की गयी है। उन वर्णों में जन्म होने में स्वयं भगवान की तरफसे कोई सम्बन्ध नहीं है इसलिये भगवान में कर्तृत्व नहीं है और फलेच्छा भी नहीं है (गीता 4। 13 14)। तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टि की रचना करते हुए भी भगवान कर्तृत्व और फलासक्ति से सर्वथा निर्लिप्त रहते हैं। ऐसे ही मनुष्यमात्र को देश , काल , परिस्थिति के अनुरूप जो भी कर्तव्यकर्म प्राप्त हो जाय उसे कर्तृत्व और फलासक्ति से रहित होकर करने से वह कर्म मनुष्य को बाँधने वाला नहीं होता अर्थात् वह कर्म फलजनक नहीं बनता। तात्पर्य है कि कर्मों के साथ अपना कोई सम्बन्ध नहीं है । इस तरह उनके साथ निर्लिप्तता का अनुभव करना ही अखिल कर्म को जानना है। जो अनन्यभाव से केवल भगवान का आश्रय लेता है उसका प्राकृत क्रियाओं और पदार्थों का आश्रय छूट जाता है। इससे उसको यह बीत ठीक तरह से समझ में आ जाती है कि ये सब क्रियाएँ और पदार्थ परिवर्तनशील और नाशवान् हैं अर्थात् क्रियाओं का भी आरम्भ और अन्त होता है तथा पदार्थों की भी उत्पत्ति और विनाश संयोग और वियोग होता है। ब्रह्मलोक तक की कोई भी क्रिया और पदार्थ नित्य रहने वाला नहीं है। अतः कर्मों के साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है यह भी अखिल कर्म को जानना है। तात्पर्य यह हुआ कि भगवान का आश्रय लेकर चलने वाले ब्रह्म , अध्यात्म और कर्म के वास्तविक तत्त्व को जान जाते हैं अर्थात् भगवान ने जैसे कहा है कि यह सम्पूर्ण संसार मेरे में ही ओतप्रोत है (7। 7) और सब कुछ वासुदेव ही है (7। 19) ऐसे ही वे भगवान के समग्ररूप को जान जाते हैं कि ब्रह्म , अध्यात्म और कर्म ये सभी भगवत्स्वरूप ही हैं भगवान के सिवाय इनमें दूसरी कोई सत्ता नहीं है – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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