अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
1-7 विज्ञान सहित ज्ञान का विषय, ईश्वर की व्यापकता
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्त्रस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥7.6॥
एतत् योनीनि-इन दोनों शक्तियों के स्रोत; भूतानि-सभी जीव; सर्वाणि-सभी; इति-वह; उपधारय-जानो; अहम्-मैं; कृत्स्नस्य–सम्पूर्ण; जगतः-सृष्टि; प्रभवः-स्रोत; प्रलयः-संहार; तथा-और।
तुम ऐसा जान लो कि सभी प्राणी मेरी इन दो प्रकृतियों या शक्तियों के संयोग के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। मैं सम्पूर्ण सृष्टि का मूल कारण हूँ और ये पुनः मुझमें ही विलीन हो जाती है अर्थात इस सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति और प्रलय मैं ही हूँ॥7.6॥
(‘एतद्योनीनि भूतानि’ (टिप्पणी प0 401.1) जितने भी देवता , मनुष्य , पशु , पक्षी आदि जङ्गम और वृक्ष , लता , घास आदि स्थावर प्राणी हैं , वे सब के सब मेरी अपरा और परा प्रकृति के सम्बन्ध से ही उत्पन्न होते हैं। 13वें अध्याय के 26वें श्लोक में भी भगवान ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के सम्बन्ध से सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम प्राणियों की उत्पत्ति बतायी है। यही बात सामान्य रीति से 14वें अध्याय के चौथे श्लोक में भी बतायी है कि स्थावर , जङ्गम योनियों में उत्पन्न होने वाले जितने शरीर हैं , वे सब प्रकृति के हैं और उन शरीरों में जो बीज अर्थात् जीवात्मा है , वह मेरा अंश है। उसी बीज अर्थात् जीवात्मा को भगवान ने परा प्रकृति (7। 5) और अपना अंश (15। 7) कहा है। ‘सर्वाणीत्युपधारय’ स्वर्गलोक , मृत्युलोक , पाताललोक आदि सम्पूर्ण लोकों के जितने भी स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं , वे सब के सब अपरा और परा प्रकृति के संयोग से ही उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य है कि परा प्रकृति ने अपरा को अपना मान लिया है (टिप्पणी प0 401.2) उसका सङ्ग कर लिया है । इसी से सब प्राणी पैदा होते हैं । इसको तुम धारण करो अर्थात् ठीक तरह से समझ लो अथवा मान लो। ‘अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा’ मात्र वस्तुओं को सत्ता-स्फूर्ति परमात्मा से ही मिलती है । इसलिये भगवान् कहते हैं कि मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव (उत्पन्न करने वाला) और प्रलय (लीन करने वाला) हूँ। ‘प्रभवः’ का तात्पर्य है कि मैं ही इस जगत् का निमित्तकारण हूँ क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि मेरे संकल्प से (टिप्पणी प0 401.3) पैदा हुई है – ‘सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति ‘(छान्दोग्य0 6। 2। 3)। जैसे घड़ा बनाने में कुम्हार और सोने के आभूषण बनाने में सुनार ही निमित्तकारण है । ऐसे ही संसारमात्र की उत्पत्ति में भगवान् ही निमित्तकारण हैं। ‘प्रलयः’ कहने का तात्पर्य है कि इस जगत् का उपादान कारण भी मैं ही हूँ क्योंकि कार्यमात्र उपादानकारण से उत्पन्न होता है , उपादानकारणरूप से ही रहता है और अन्त में उपादानकारण में ही लीन हो जाता है। जैसे घड़ा बनाने में मिट्टी उपादानकारण है । ऐसे ही सृष्टि की रचना करने में भगवान् ही उपादानकारण हैं। जैसे घड़ा मिट्टी से ही पैदा होता है , मिट्टीरूप ही रहता है और अन्त में टूट करके घिसते-घिसते मिट्टी ही बन जाता है और जैसे सोने के यावन्मात्र आभूषण सोने से ही उत्पन्न होते हैं सोनारूप ही रहते हैं और अन्त में सोना ही रह जाते हैं । ऐसे ही यह संसार भगवान् से ही उत्पन्न होता है ,भगवान में ही रहता है और अन्त में भगवान में ही लीन हो जाता है। ऐसा जानना ही ज्ञान है। सब कुछ भगवत्स्वरूप है , भगवान के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं , ऐसा अनुभव हो जाना विज्ञान है। ‘कृत्स्नस्य जगतः’ पदों में भगवान ने अपने को जड-चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत् का प्रभव और प्रलय बताया है। इसमें जड (अपरा प्रकृति ) का प्रभव और प्रलय बताना तो ठीक है पर चेतन (परा प्रकृति अर्थात् जीवात्मा) का उत्पत्ति और विनाश कैसे हुआ ? क्योंकि वह तो नित्य तत्त्व है ‘नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः’ (गीता 2। 24)। जो परिवर्तनशील है उसको जगत् कहते हैं ‘गच्छतीति जगत्।’ पर यहाँ जगत् शब्द जड-चेतनात्मक सम्पूर्ण संसार का वाचक है। इसमें जड-अंश तो परिवर्तनशील है और चेतन-अंश सदा-सर्वथा परिवर्तनरहित तथा निर्विकार है। वह निर्विकार तत्त्व जब जड के साथ अपना सम्बन्ध मानकर तादात्म्य कर लेता है तब वह जड (शरीर) के उत्पत्तिविनाशक को अपना उत्पत्ति-विनाश मान लेता है। इसी से उसके जन्म-मरण कहे जाते हैं। इसीलिये भगवान् ने अपने को सम्पूर्ण जगत् अर्थात् अपरा और परा प्रकृति का भाव तथा प्रलय बताया है। अगर यहाँ जगत् शब्द से केवल नाशवान् , परिवर्तनशील और विकारी संसार को ही लिया जाय , चेतन को नहीं लिया जाय तो बड़ी बाधा लगेगी। भगवान ने ‘कृत्स्नस्य जगतः’ पदों से अपने को सम्पूर्ण जगत् का कारण बताया है (टिप्पणी प0 402)। अतः सम्पूर्ण जगत् के अन्तर्गत स्थावर-जङ्गम जड-चेतन सभी लिये जायँगे। अगर केवल जड को लिया जायगा तो चेतनभाग छूट जायगा , जिससे मैं सम्पूर्ण जगत् का कारण हूँ यह कहना नहीं बन सकेगा और आगे भी बड़ी बाधा लगेगी। कारण कि आगे इसी अध्याय के 13वें श्लोक में भगवान ने कहा है कि तीनों गुणों से मोहित जगत् मेरे को नहीं जानता तो यहाँ जानना अथवा न जानना चेतन का ही हो सकता है , जड का जानना अथवा न जानना होता ही नहीं। इसलिये जगत् शब्द से केवल जड को ही नहीं , चेतन को भी लेना पड़ेगा। ऐसे ही 16वें अध्याय के 8वें श्लोक में भी आसुरी सम्पदा वालों की मान्यता के अनुसार जगत् शब्द से जड और चेतन दोनों ही लेने पड़ेंगें क्योंकि आसुरी सम्पदा वाले व्यक्ति सम्पूर्ण शरीरधारी जीवों को असत्य मानते हैं , केवल जड को नहीं। इसलिये अगर वहाँ जगत् शब्द से केवल जड संसार ही लिया जाय तो जगत् को (जड संसार को) असत्य , मिथ्या और अप्रतिष्ठित कहने वाले अद्वैतसिद्धान्ती भी आसुरी सम्पदावालों में आ जायँगे जो कि सर्वथा अनुचित है। ऐसे ही 8वें अध्याय के 26वें श्लोक में आये ‘शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः’ पदों में जगत् शब्द केवल जड का ही वाचक मानें तो जड की शुक्ल और कृष्ण गति का क्या तात्पर्य होगा ? गति तो चेतन की ही होती है। जड से तादात्म्य करने के कारण ही चेतन को जगत् नाम से कहा गया है। इन सब बातों पर विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि जड के साथ एकात्मता करने से जीव जगत् कहा जाता है परन्तु जब यह जड से विमुख होकर चिन्मयतत्त्व के साथ अपनी एकता का अनुभव कर लेता है , तब यह योगी कहा जाता है , जिसका वर्णन गीता में जगह-जगह आया है। पूर्वश्लोक में भगवान् ने अपने को परा और अपरा प्रकृतिरूप सम्पूर्ण जगत् का मूल कारण बताया। अब भगवान् के सिवाय भी जगत् का और कोई कारण होगा इसका आगे के श्लोक में निषेध करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )