अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
1-7 विज्ञान सहित ज्ञान का विषय, ईश्वर की व्यापकता
श्रीभगवान उवाच।
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥7.1॥
श्रीभगवानउवाच-परम् भगवान ने कहा; मयि–मुझमें; आसक्तमना:-मन को अनुरक्त करने वाला; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; योगम्-भक्ति योगः युञ्जन्–अभ्यास करते हुए; आश्रयः-मेरे प्रति समर्पित; असंशयम्-सन्देह से मुक्त; समग्रम्-पूर्णतया; माम्-मुझे; यथा-कैसे; ज्ञास्यसि -तुम जान सकते हो; तत्-वह; श्रृणु-सुनो।
श्री भगवान बोले- हे पार्थ! अनन्य प्रेम से ( भक्ति ) योग के अभ्यास द्वारा मुझमें आसक्त चित अर्थात मन को केवल मुझमें अनुरक्त कर तथा अनन्य भाव से मेरे परायण होकर अर्थात मेरी शरण ग्रहण कर , तुम जिस प्रकार से सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्यादि गुणों से युक्त, सबके आत्मरूप मुझको संशय रहित जान सकोगे , उसको सुनो ॥7.1॥
(‘मय्यासक्तमनाः’ मेरे में ही जिसका मन आसक्त हो गया है अर्थात् अधिक स्नेह के कारण जिसका मन स्वाभाविक ही मेरे में लग गया है , चिपक गया है , उसको मेरी याद करनी नहीं पड़ती बल्कि स्वाभाविक ही मेरी याद आती है और विस्मृति कभी होती ही नहीं । ऐसा तू मेरे में मन वाला हो। जिसका उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं का और शब्द , स्पर्श , रूप , रस तथा गन्ध का आकर्षण मिट गया है , जिसका इस लोक में शरीर के आराम , आदर-सत्कार और नाम की ब़ड़ाई में तथा स्वर्गादि परलोक के भोगों में किञ्चिन्मात्र भी खिंचाव , आसक्ति या प्रियता नहीं है बल्कि केवल मेरी तरफ ही खिंचाव है ऐसे पुरुष का नाम ‘मय्यासक्तमनाः’ है। साधक भगवान में मन कैसे लगाये ? जिससे वह ‘मय्यासक्तमनाः’ हो जाय इसके लिये दो उपाय बताये जाते हैं (1) साधक जब सच्ची नीयत से भगवान के लिये ही जप-ध्यान करने बैठता है तब भगवान् उसको अपना भजन मान लेते हैं। जैसे कोई धनी आदमी किसी नौकर से कह दे कि तुम यहाँ बैठो , कोई काम होगा तो तुम्हारे को बता देंगे। किसी दिन उस नौकर को मालिक ने कोई काम नहीं बताया। वह नौकर दिन भर खाली बैठा रहा और शाम को मालिक से कहता है , बाबू मेरे को पैसे दीजिये। मालिक कहता है तुम सारे दिन बैठे रहे , पैसे किस बात के ? वह नौकर कहता है बाबूजी सारे दिन बैठा रहा । इस तरह जब एक मनुष्य के लिये बैठने वाले को भी पैसे मिलते हैं तब जो केवल भगवान में मन लगाने के लिये सच्ची लगन से बैठता है , उसका बैठना क्या भगवान् निरर्थक मानेंगे । तात्पर्य यह हुआ कि जो भगवान में मन लगाने के लिये भगवान का आश्रय लेकर भगवान के ही भरोसे बैठता है वह भगवान की कृपा से भगवान में मन वाला हो जाता है। (2) भगवान सब जगह हैं तो यहाँ भी हैं क्योंकि अगर यहाँ नहीं हैं तो भगवान सब जगह हैं यह कहना नहीं बनता। भगवान सब समय में हैं तो इस समय भी हैं क्योंकि अगर इस समय नहीं हैं तो भगवान् सब समय में हैं यह कहना नहीं बनता। भगवान सब में हैं तो मेरे में भी हैं क्योंकि अगर मेरे में नहीं हैं तो भगवान सब में हैं यह कहना नहीं बनता। भगवान सबके हैं तो मेरे भी हैं क्योंकि अगर मेरे नहीं हैं तो भगवान सबके हैं यह कहना नहीं बनता । इसलिये भगवान यहाँ हैं , अभी हैं , अपने में हैं और अपने हैं। कोई देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति , घटना और क्रिया उनसे रहित नहीं है , उनसे रहित होना सम्भव ही नहीं है। इस बात को दृढ़ता से मानते हुए भगवन्नाम में , प्राण में , मन में , बुद्धि में , शरीर में , शरीर के कण-कण में परमात्मा हैं , इस भाव की जागृति रखते हुए नाम-जप करे तो साधक बहुत जल्दी भगवान में मन वाला हो सकता है। ‘मदाश्रयः’ जिसको केवल मेरी ही आशा है मेरा ही भरोसा है , मेरा ही सहारा है , मेरा ही विश्वास है और जो सर्वथा मेरे ही आश्रित रहता है वह ‘मदाश्रयः’ है। किसी न किसी का आश्रय लेना इस जीव का स्वभाव है। परमात्मा का अंश होने से यह जीव अपने अंशी को ढूँढ़ता है परन्तु जब तक इसके लक्ष्य में , उद्देश्य में परमात्मा नहीं होते तब तक यह शरीर के साथ सम्बन्ध जोड़े रहता है और शरीर जिसका अंश है उस संसार की तरफ खिंचता है। वह यह मानने लगता है कि इससे ही मेरे को कुछ मिलेगा , इसी से मैं निहाल हो जाऊँगा , जो कुछ होगा वह संसार से ही होगा परन्तु जब यह भगवान को ही सर्वोपरि मान लेता है तब यह भगवान में आसक्त हो जाता है और भगवान का ही आश्रय ले लेता है। संसार का अर्थात् धन , सम्पत्ति , वैभव , विद्या , बुद्धि , योग्यता , कुटुम्ब आदि का जो आश्रय है वह नाशवान् है , मिटने वाला है , स्थिर रहने वाला नहीं है। वह सदा रहने वाला नहीं है और सदा के लिये पूर्ति और तृप्ति कराने वाला भी नहीं है परन्तु भगवान का आश्रय कभी किञ्चिन्मात्र भी कम होने वाला नहीं है क्योंकि भगवान का आश्रय पहले भी था अभी भी है और आगे भी रहेगा। अतः आश्रय केवल भगवान का ही लेना चाहिये। केवल भगवान का ही आश्रय अवलम्बन आधार सहारा हो। इसी का वाचक यहाँ ‘मदाश्रयः’ पद है। भगवान् कहते हैं कि मन भी मेरे में आसक्त हो जाय और आश्रय भी मेरा हो। मन आसक्त होता है प्रेम से और प्रेम होता है अपनेपन से। आश्रय लिया जाता है बड़े का सर्वसमर्थ का। सर्वसमर्थ तो हमारे प्रभु ही हैं। इसलिये उनका ही आश्रय लेना है और उनके प्रत्येक विधान में प्रसन्न होना है कि मेरे मन के विरुद्ध विधान भेज कर प्रभु मेरी कितनी निगरानी रखते हैं मेरा कितना ख्याल रखते हैं कि मेरी सम्मति लिये बिना ही विधान करते हैं , ऐसे मेरे दयालु प्रभु का मेरे पर कितना अपनापन है । अतः मेरे को कभी किसी वस्तु , व्यक्ति , परिस्थिति आदि की किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार भगवान के आश्रित रहना ही ‘मदाश्रयः’ होना है। ‘योगं युञ्जन् ‘ भगवान के साथ जो स्वतःसिद्ध अखण्ड सम्बन्ध है उस सम्बन्ध को मानता हुआ तथा सिद्धि-असिद्धि में सम रहता हुआ साधक जप , ध्यान , कीर्तन करने में भगवान की लीला और स्वरूप का चिन्तन करने में स्वाभाविक ही अटल भाव से लगा रहता है। उसकी चेष्टा स्वाभाविक ही भगवान के अनुकूल होती है। यही ‘योगं युञ्जन्’ कहने का तात्पर्य है। जब साधक भगवान में ही आसक्त मन वाला और भगवान के ही आश्रय वाला होगा तब वह अभ्यास क्या करेगा ? कौन सा योग करेगा ? वह भगवत्सम्बन्धी अथवा संसार-सम्बन्धी जो भी कार्य करता है , वह सब योग का ही अभ्यास है। तात्पर्य है कि जिससे परमात्मा का सम्बन्ध हो जाय वह (लौकिक या पारमार्थिक) काम करता है और जिससे परमात्मा का वियोग हो जाय वह काम नहीं करता है। ‘असंशयं समग्रं माम्’ जिसका मन भगवान में आसक्त हो गया है जो सर्वथा भगवान के आश्रित हो गया है और जिसने भगवान के सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया है , ऐसा पुरुष भगवान के समग्ररूप को जान लेता है अर्थात् सगुण-निर्गुण , साकार-निराकार , अवतार-अवतारी और शिव , गणेश , सूर्य , विष्णु आदि जितने रूप हैं उन सबको वह जान लेता है। भगवान् अपने भक्त की बात कहते-कहते अघाते नहीं हैं और कहते हैं कि ज्ञानमार्ग से चलने वाला तो मेरे को जान सकता है और प्राप्त कर सकता है परंतु भक्ति से तो मेरा भक्त समग्ररूप को जान सकता है और इष्ट का अर्थात् जिस रूप से मेरी उपासना करता है , उस रूप का दर्शन भी कर सकता है। ‘यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु यहाँ यथा ‘ (टिप्पणी प0 390.1) पद से प्रकार बताया गया है कि तू जिस प्रकार जान सके वह प्रकार भी कहूँगा और तत् (टिप्पणी प0 390.2) पद से बताया गया है कि जिस तत्त्व को तू जान सकता है उसका मैं वर्णन करता हूँ तू सुन। छठे अध्याय के 47वें श्लोक में ‘श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः’ पदों में प्रथम पुरुष (वह ) का प्रयोग करके सामान्य बात कही था और यहाँ 7वाँ अध्याय आरम्भ करते हुए ‘यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ‘ पदों में मध्यम पुरुष (तू ) का प्रयोग करके अर्जुन के लिये विशेषता से कहते हैं कि तू जिस प्रकार मेरे समग्ररूप को जानेगा वह मेरे से सुन। इससे पहले के छः अध्यायों में भगवान के लिये समग्र शब्द नहीं आया है। चौथे अध्याय के 23वें श्लोक में ‘ज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते’ पदों में कर्म के विशेषण के रूप में ‘समग्र’ शब्द आया है और यहाँ ‘समग्र’ शब्द भगवान के विशेषण के रूप में आया है। समग्र शब्द में भगवान का तात्त्विक स्वरूप सब का सब आ जाता है , बाकी कुछ नहीं बचता। विशेष बात (1) इस श्लोक में आसक्ति केवल मेरे में ही हो , आश्रय भी केवल मेरा ही हो , फिर योग का अभ्यास किया जाय तो मेरे समग्ररूप को जान लेगा , ऐसा कहने में भगवान का तात्पर्य है कि अगर मनुष्य की आसक्ति भोगों में है और आश्रय रुपये पैसे कुटुम्ब आदि का है तो कर्मयोग , ज्ञानयोग , ध्यानयोग आदि किसी योग का अभ्यास करता हुआ भी मेरे को नहीं जान सकता। मेरे समग्ररूप को जानने के लिये तो मेरे में ही प्रेम हो मेरा ही आश्रय हो। मेरे से किसी भी कार्यपूर्ति की इच्छा न हो। ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये इस कामना को छोड़कर भगवान् जो करते हैं वही होना चाहिये और भगवान जो नहीं करना चाहते वह नहीं होना चाहिये इस भावसे केवल मेरा आश्रय लेता है वह मेरे समग्र रूपको जान लेता है। इसलिये भगवान अर्जुन को कहते हैं कि ‘तू मय्यासक्तमनाः’ और ‘मदाश्रयः’ हो जा।(2) परमात्मा के साथ वास्तविक सम्बन्ध का नाम ‘योगम्’ है और उस सम्बन्ध को अखण्डभाव से मानने का नाम ‘युञ्जन्’ है। तात्पर्य यह है कि मन , बुद्धि , इन्द्रियों आदि के साथ सम्बन्ध मानकर अपने में ‘मैं ‘ रूप से जो एक व्यक्तित्व मान रखा है , उसको न मानते हुए परमात्मा के साथ जो अपनी वास्तविक अभिन्नता है , उसका अनुभव करता रहे। वास्तव में ‘योगं युञ्जन्’ की इतनी आवश्यकता नहीं है जितनी आवश्यकता संसार की आसक्ति और आश्रय छोड़ने की है। संसार की आसक्ति और आश्रय छोड़ने से परमात्मा का चिन्तन स्वतः स्वाभाविक होगा और सम्पूर्ण क्रियाएँ निष्कामभावपूर्वक होने लगेंगी। फिर भगवान को जानने के लिये उसको कोई अभ्यास नहीं करना पड़ेगा। इसका तात्पर्य यह है कि जिसका संसार की तरफ खिंचाव है और जिसके अन्तःकरण में उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं का महत्त्व बैठा हुआ है , वह परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकता। कारण कि उसकी आसक्ति , कामना , महत्ता संसार में है , जिससे संसार में परमात्मा के परिपूर्ण रहते हुए भी वह उनको नहीं जान सकता। मनुष्य का जब समाज के किसी बड़े व्यक्ति से अपनापन हो जाता है तब उसको एक प्रसन्नता होती है। ऐसे ही जब हमारे सदा के हितैषी और हमारे खास अंशी भगवान में आत्मीयता जाग्रत् हो जाती है , तब हरदम प्रसन्नता रहते हुए एक अलौकिक विलक्षण प्रेम प्रकट हो जाता है। फिर साधक स्वाभाविक ही भगवान में मन वाला और भगवान के आश्रित हो जाता है। शरणागति के पर्याय , आश्रय , अवलम्बन , अधीनता , प्रपत्ति और सहारा ये सभी शब्द शरणागति के पर्यायवाचक होते हुए भी अपना अलग अर्थ रखते हैं जैसे (1) आश्रय – जैसे हम पृथ्वी के आधार के बिना जी ही नहीं सकते और उठना-बैठना आदि कुछ कर ही नहीं सकते , ऐसे ही प्रभु के आधार के बिना हम जी नहीं सकते और कुछ भी कर नहीं सकते। जीना और कुछ भी करना प्रभु के आधार से ही होता है। इसी को आश्रय कहते हैं। (2) अवलम्बन – जैसे किसी के हाथ की हड्डी टूटने पर डाक्टर लोग उस पर पट्टी बाँधकर उसको गले के सहारे लटका देते हैं तो वह हाथ गले के अवलम्बित हो जाता है , ऐसे ही संसार से निराश और अनाश्रित होकर भगवान के गले पड़ने अर्थात् भगवान को पकड़ लेने का नाम अवलम्बन है। (3) अधीनता – अधीनता दो तरह से होती है 1.कोई हमें जबर्दस्ती से अधीन कर ले या पकड़ ले और 2.हम अपनी तरफ से किसी के अधीन हो जाएं या उसके दास बन जाएं। ऐसे ही अपना कुछ भी प्रयोजन न रखकर अर्थात् केवल भगवान को लेकर ही अनन्यभाव से सर्वथा भगवान का दास बन जाना और केवल भगवान को ही अपना स्वामी मान लेना अधीनता है। (4) प्रपत्ति – जैसे कोई किसी समर्थ के चरणों में लम्बा पड़ जाता है , ऐसे ही संसार की तरफ से सर्वथा निराश होकर भगवान के चरणों में गिर जाना प्रपत्ति (प्रपन्नता) है। (5) सहारा – जैसे जल में डूबने वाले को किसी वृक्ष , लता , रस्से आदि का आधार मिल जाय , ऐसे ही संसार में बार-बार जन्म-मरण में डूबने के भय से भगवान का आधार ले लेना सहारा है। इस प्रकार उपर्युक्त सभी शब्दों में केवल शरणागति का भाव प्रकट होता है। शरणागति तब होती है जब भगवान में ही आसक्ति हो और भगवान का ही आश्रय हो अर्थात् भगवान में ही मन लगे और भगवान में ही बुद्धि लगे। अगर मनुष्य मनबुद्धिसहित स्वयं भगवान के आश्रित (समर्पित) हो जाय तो शरणागति के उपर्युक्त सब के सब भाव उसमें आ जाते हैं। मन और बुद्धि को अपने न मानकर ये भगवान के ही हैं , ऐसा दृढ़ता से मान लेने से साधक ‘मय्यासक्तमनाः’ और ‘मदाश्रयः’ हो जाता है। सांसारिक वस्तुमात्र प्रतिक्षण प्रलय की तरफ जा रही है और किसी भी वस्तु से अपना नित्य सम्बन्ध है ही नहीं यह सबका अनुभव है। अगर इस अनुभव को महत्त्व दिया जाय अर्थात् मिटने वाले सम्बन्ध को अपना न माना जाय तो अपने कल्याण का उद्देश्य होने से भगवान की शरणागति स्वतः आ जायगी। कारण कि यह स्वतः ही भगवान का है। संसार के साथ सम्बन्ध केवल माना हुआ है (वास्तव में सम्बन्ध है नहीं) और भगवान से केवल विमुखता हुई है (वास्तव में विमुखता है नहीं)। इसलिये माना हुआ सम्बन्ध छोड़ने पर भगवान के साथ जो स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है , वह प्रकट हो जाता है। पहले श्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा था कि तू मेरे समग्र रूप को जैसा जानेगा वह सुन। अब भगवान् आगे के श्लोक में उसे सुनाने की प्रतिज्ञा करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )