अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
24-30 भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥7.27॥
इच्छा-इच्छा; द्वेष- घृणा; समुत्थेन-उत्पन्न होने से; द्वन्द्व-द्वन्द्व से; मोहेन-मोह से; भारत-भरतवंशी, अर्जुन; सर्व-सभी; भूतानि-जीव; सम्मोहम्-मोह से; सर्गे–जन्म लेकर; यान्ति–जाते हैं; परन्तप-अर्जुन, शत्रुओं का विजेता।
हे परन्तप भारत ! इच्छा ( राग ) तथा घृणा ( द्वेष ) से उत्पन्न होने वाले सुख दुःख आदि द्वन्द रूप मोह से मोहित सम्पूर्ण प्राणी इस भौतिक जगत में मूढ़ता ( अज्ञान ) को प्राप्त हो रहे हैं॥7.27॥
‘इच्छाद्वेषसमुत्थेन ৷৷. सर्गे यान्ति परंतप’ इच्छा और द्वेष से द्वन्द्व-मोह पैदा होता है जिससे मोहित होकर प्राणी भगवान से बिलकुल विमुख हो जाते हैं और विमुख होने से बार-बार संसार में जन्म लेते हैं। मनुष्य को संसार से विमुख होकर केवल भगवान में लगने की आवश्यकता है। भगवान में न लगने में बड़ी बाधा क्या है ? यह मनुष्यशरीर विवेकप्रधान है । अतः मनुष्य की प्रवृत्ति और निवृत्ति पशु-पक्षियों की तरह न होकर अपने विवेक के अनुसार होनी चाहिये परन्तु मनुष्य अपने विवेक को महत्त्व न देकर राग और द्वेष को लेकर ही प्रवृत्ति और निवृत्ति करता है , जिससे उसका पतन होता है। मनुष्य की दो मनोवृत्तियाँ हैं – एक तरफ लगाना और एक तरफ से हटाना। मनुष्य को परमात्मा में तो अपनी वृत्ति लगानी है और संसार से अपनी वृत्ति हटानी है अर्थात् परमात्मा से तो प्रेम करना है और संसार से वैराग्य करना है परन्तु इन दोनों वृत्तियों को जब मनुष्य केवल संसार में ही लगा देता है , तब वही प्रेम और वैराग्य क्रमशः राग और द्वेष का रूप धारण कर लेते हैं , जिससे मनुष्य संसार में उलझ जाता है और भगवान से सर्वथा विमुख हो जाता है। फिर भगवान की तरफ चलने का अवसर ही नहीं मिलता। कभी-कभी वह सत्संग की बातें भी सुनता है , शास्त्र भी पढ़ता है , अच्छी बातों पर विचार भी करता है , मन में अच्छी बातें पैदा हो जाती हैं तो उनको ठीक भी समझता है। फिर भी उसके मन में राग के कारण यह बात गहरी बैठी रहती है कि मुझे तो सांसारिक अनुकूलता को प्राप्त करना है और प्रतिकूलता को हटाना है , यह मेरा खास काम है क्योंकि इसके बिना मेरा जीवन निर्वाह नहीं होगा। इस प्रकार वह हृदय में दृढ़ता से राग-द्वेष को पकड़े रखता है , जिससे सुनने , पढ़ने और विचार करने पर भी उसकी वृत्ति राग-द्वेषरूप द्वन्द्व को नहीं छोड़ती। इसी से वह परमात्मा की तरफ चल नहीं सकता। द्वन्द्वों में भी अगर उसका राग मुख्य रूप से एक ही विषय में हो जाय तो भी ठीक है। जैसे भक्त बिल्वमंगल की वृत्ति चिन्तामणि नामक वेश्या में लग गयी तो उनकी वृत्ति संसार से तो हट ही गयी। जब वेश्या ने यह ताड़ना की कि ऐसे हाड़मांस के शरीर में तू आकृष्ट हो गया अगर भगवान में इतना आकृष्ट हो जाता तो तू निहाल हो जाता तब उनकी वृत्ति वेश्या से हटकर भगवान में लग गयी और उनका उद्धार हो गया। इसी तरह से गोपियों का भगवान में राग हो गया तो वह राग भी कल्याण करने वाला हो गया। शिशुपाल का भगवान के साथ वैर (द्वेष) रहा तो वैरपूर्वक भगवान का चिन्तन करने से भी उसका कल्याण हो गया। कंस को भगवान से भय हुआ तो भयवृत्ति से भगवान का चिन्तन करने से उसका भी कल्याण हो गया। हाँ, यह बात जरूर है कि वैर और भय से भगवान का चिन्तन करन से शिशुपाल और कंस भक्ति के आनन्द को नहीं ले सके। तात्पर्य यह है कि किसी भी तरह से भगवान की तरफ आकर्षण हो जाय तो मनुष्य का उद्धार हो जाता है परन्तु संसार में राग-द्वेष , काम-क्रोध , ठीक-बेठीक , अनुकूल-प्रतिकूल आदि द्वन्द्व रहने से मूढ़ता दृढ़ होती है और मनुष्य का पतन हो जाता है। दूसरी रीति से यों समझें कि संसार का सम्बन्ध द्वन्द्व से दृढ़ होता है। जब कामना को लेकर मनोवृत्ति का प्रवाह संसार की तरफ हो जाता है तब सांसारिक अनुकूलता और प्रतिकूलता को लेकर राग-द्वेष हो जाते हैं अर्थात् एक ही पदार्थ कभी ठीक लगता है , कभी बेठीक लगता है , कभी उसमें राग होता है कभी द्वेष होता है जिनसे संसार का सम्बन्ध दृढ़ हो जाता है। इसलिये भगवान ने दूसरे अध्याय में ‘निर्द्वन्द्वः’ (2। 45) पद से द्वन्द्वरहित होने की आज्ञा दी है। निर्द्वन्द्व पुरुष सुखपूर्वक मुक्त होता है ‘निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’ (5। 3)। सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से रहित होकर भक्तजन अविनाशी पद को प्राप्त होते हैं ‘द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्’ (15। 5)। भगवान ने द्वन्द्व को मनुष्य का खास शत्रु बताया है (3। 34)। जो द्वन्द्व-मोह से रहित होते हैं , वे दृढ़व्रती होकर भगवान का भजन करते हैं (7। 28) इत्यादि रूप से गीता में द्वन्द्वरहित होने की बात बहुत बार आयी है। जन्म-मरण में जाने का कारण क्या है ? शास्त्रों की दृष्टि से तो जन्म-मरण का कारण अज्ञान है परन्तु सन्त वाणी को देखा जाय तो जन्म-मरण का खास कारण राग के कारण प्राप्त परिस्थिति का दुरुपयोग है। फलेच्छापूर्वक शास्त्रविहित कर्म करने से और प्राप्त परिस्थिति का दुरुपयोग करने से अर्थात् भगवदाज्ञाविरुद्ध कर्म करने से सत्असत् योनियों की प्राप्ति होती है अर्थात् देवताओं की योनि चौरासी लाख योनि और नरक प्राप्त होते हैं। प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करने से सम्मोह अर्थात् जन्म-मरण मिट जाता है। उसका सदुपयोग कैसे करें ? हमारे को जो अवस्था , परिस्थिति मिली है उसका दुरुपयोग न करने का निर्णय किया जाय कि हम दुरुपयोग नहीं करेंगे अर्थात् शास्त्र और लोकमर्यादा के विरुद्ध काम नहीं करेंगे। इस प्रकार रागरहित होकर दुरुपयोग न करने का निर्णय होने पर सदुपयोग अपने आप होने लगेगा अर्थात् शास्त्र और लोकमर्यादा के अनुकूल काम होने लगेगा। जब सदुपयोग होने लगेगा तो उसका हमें अभिमान नहीं होगा। कारण कि हमने तो दुरुपयोग न करने का विचार किया है सदुपयोग करने का विचार तो हमने किया ही नहीं फिर करनेका अभिमान कैसे ? इससे तो कर्तृत्वअभिमान का त्याग हो जायगा। जब हमने सदुपयोग किया ही नहीं तो उसका फल भी हम कैसे चाहेंगे ? क्योंकि सदुपयोग तो हुआ है किया नहीं। अतः इससे फलेच्छा का त्याग हो जायगा। कर्तृत्वअभिमान और फलेच्छा का होने से अर्थात् बन्धन का अभाव होने से मुक्ति स्वतःसिद्ध है। प्रायः साधकों में यह बात गहराई से बैठी हुई है कि साधन-भजन , जप-ध्यान आदि करने का विभाग अलग है और सांसारिक काम-धंधा करने का विभाग अलग है। इन दो विभागों के कारण साधक भजन-ध्यान आदि को तो बढ़ावा देते हैं पर सांसारिक काम-धंधा करते हुए राग-द्वेष , काम-क्रोध आदि की तरफ ध्यान नहीं देते बल्कि ऐसी दृढ़ भावना बना लेते हैं कि काम-धंधा करते हुए तो राग-द्वेष होते ही हैं , ये मिटने वाले थोड़े ही हैं। इस भावना से बड़ा भारी अनर्थ यह होता है कि साधक के राग-द्वेष बने रहते हैं , जिससे उसके साधन में जल्दी उन्नति नहीं होती। वास्तव में साधक चाहे पारमार्थिक कार्य करे , चाहे सांसारिक कार्य करे , उसके अन्तःकरण में राग-द्वेष नहीं रहने चाहिये।पारमार्थिक और सांसारिक क्रियाओं में भेद होने पर भी साधक के भाव में भेद नहीं होना चाहिये अर्थात् पारमार्थिक और सांसारिक दोनों क्रियाएँ करते समय साधक का भाव एक ही रहना चाहिये कि मैं साधक हूँ और मुझे भगवत्प्राप्ति करनी है। इस प्रकार क्रियाभेद तो रहेगा ही और रहना भी चाहिये पर भाव भेद नहीं रहेगा। भावभेद न रहने से अर्थात् एक भगवत्प्राप्ति का ही भाव (उद्देश्य) रहने से पारमार्थिक और सांसारिक दोनों ही क्रियाएँ साधन बन जायँगी। पूर्वश्लोक में भगवान ने द्वन्द्व-मोह से मोहित होने वालों की बात बतायी अब आगे के श्लोक में द्वन्द्व-मोह से रहित होने वालों की बात कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी