Bhagavat gita chapter 7

 

 

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अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग

दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग

 

13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा

 

 

Srimad Bhagavad Gita chapter 7दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥7.14॥

 

दैवी-दिव्य; हि-वास्तव में; एषा–यह; गुणमयी-प्रकृति के तीनों गुणों से निर्मित; मम–मेरी; माया- भगवान की एक शक्ति जो उन जीवात्माओं से भगवान के वास्तविक दिव्य स्वरूप को आच्छादित रखती है जिन्होंने अभी तक भगवद्प्राप्ति की ओर अग्रसर होने की सामर्थ्य प्राप्त नहीं की है; दुरत्यया-पार कर पाना कठिन; माम्-मुझे; एव-निश्चय ही; ये-जो; प्रपद्यन्ते-शरणागत होना; मायाम् एताम्-इस माया को; तरन्ति–पार कर जाते हैं; ते–वे।

 

प्रकति के तीन गुणों से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है क्योंकि यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं और केवल मुझको ही निरंतर भजते हैं , वे इस माया को सरलता से पार कर जाते हैं अर्थात संसार से तर जाते हैं ॥7.14॥

 

 (‘दैवी ह्येषा गुणमयी (टिप्पणी प0 411) मम माया दुरत्यया’ सत्त्व , रज और तम इन तीन गुणों वाली दैवी (देव अर्थात् परमात्मा की) माया बड़ी ही दुरत्यय है। भोग और संग्रह की इच्छा रखने वाले मनुष्य इस माया से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं कर सकते। ‘दुरत्यय कहनेका तात्पर्य है कि ये मनुष्य अपने को कभी सुखी और कभी दुःखी , कभी समझदार और कभी बेसमझ , कभी निर्बल और कभी बलवान् आदि मानकर इन भावों में तल्लीन रहते हैं। इस तरह आने-जाने वाले प्राकृत भावों और पदार्थों में ही तादात्म्य , ममता , कामना करके उनसे बँधे रहते हैं और अपने को इनसे रहित अनुभव नहीं कर सकते। यही इस माया में दुरत्ययपना है। यह गुणमयी माया तभी दुरत्यय होती है जब भगवान के सिवाय गुणों की स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता मानी जाय। अगर मनुष्य भगवान के सिवाय गुणों की अलग सत्ता और महत्ता नहीं मानेगा तो वह इस गुणमयी माया से तर जायगा। ‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते’ मनुष्यों में से जो केवल मेरी ही शरण होते हैं , वे इस माया को तर जाते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि केवल मेरी ही तरफ रहती है , तीनों गुणों की तरफ नहीं। जैसा कि पहले वर्णन किया है सत्त्व , रज और तम ये तीनों गुण न मेरे में हैं और न मैं उनमें हूँ। मैं तो निर्लिप्त रहकर सभी कार्य करता हूँ। इस प्रकार जो मेरे स्वरूप को जानते हैं , वे गुणों में नहीं फँसते बल्कि इस माया से तर जाते हैं। वे गुणों का कार्य मन-बुद्धि का किञ्चिन्मात्र भी सहारा नहीं लेते। क्यों नहीं लेते ? क्योंकि वे इस बात को जानते हैं कि प्रकृति का कार्य होने से मन-बुद्धि भी तो प्रकृति हैं। प्रकृति की क्रियाशीलता प्रकृति में ही है। जैसे प्रकृति हरदम प्रलय की तरफ जा रही है , ऐसे ही ये मन-बुद्धि भी तो प्रलय की तरफ जा रहे हैं। अतः उनका सहारा लेना परतंत्रता ही है। ऐसी परतन्त्रता बिलकुल न रहे और परा प्रकृति (जो कि परमात्मा का अंश है) केवल परमात्मा की तरफ आकृष्ट हो जाय तथा अपरा से सर्वथा विमुख हो जाय , यही भगवान के सर्वथा शरण होने का तात्पर्य है। यहाँ ‘मामेव’ कहने का तात्पर्य है कि वे अनन्यभाव से केवल मेरे ही शरण होते हैं क्योंकि मेरे सिवाय दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं। कई साधक मेरे शरण तो हो जाते हैं परन्तु केवल मेरे ही शरण नहीं होते। इसलिये कहा कि जो ‘मामेव’ अर्थात केवल मेरी ही शरण लेते हैं वे तर जाते हैं। माया की शरण न ले अर्थात् हमारे पास रुपये , पैसे , चीज , वस्तु आदि सब रहें पर हम इनको अपना आधार न मानें , इनका आश्रय न लें , इनका भरोसा न करें , इनको महत्त्व न दें। इनका उपयोग करने का हमें अधिकार है। इन पर कब्जा करने का हमें अधिकार नहीं है। इन पर कब्जा कर लेना ही इनके आश्रित होना है। आश्रित होने पर इनसे अलग होना कठिन मालूम देता है , यह वास्तव में दुरत्ययपना है। इस दुरत्ययपना से छूटने के लिये ही उपाय बताते हैं ‘मामेव च प्रपद्यन्ते’। शरीर , इन्द्रियाँ आदि सामग्री को अपनी और अपने लिये न मानकर भगवान की और भगवान के लिये ही मानकर , भगवान के भजन में , उनके आज्ञापालन में लगा देना है। अपने को इनसे कुछ नहीं लेना है। इनको भगवान में लगा देने का फल भी अपने को नहीं लेना है क्योंकि जब भगवान की वस्तु सर्वथा भगवान के अर्पण कर दी अर्थात् उसमें भूल से जो अपनापन कर लिया था वह हटा लिया तब उस समर्पण का फल हमारा कैसे हो सकता है ? यह सब सामग्री तो भगवान की सेवा के लिये ही भगवान से मिली है। अतः इसको उनकी सेवा में लगा देना हमारा कर्तव्य है , हमारी ईमानदारी है। इस ईमानदारी से भगवान बड़े प्रसन्न हो जाते हैं और उनकी कृपा से मनुष्य माया को तर जाते हैं। अपने पास अपनी करके कोई वस्तु है नहीं। भगवान की दी हुई वस्तुओं को अपनी मानकर अपने में अभिमान किया था , यह गलती थी। भगवान का तो बड़ा ही उदार एवं प्रेम भरा स्वभाव है कि वे जिस किसी को कुछ देते हैं उसको इस बात का पता ही नहीं लगने देते कि यह भगवान की दी हुई है बल्कि जिसको जो कुछ मिला है उसको वह अपनी और अपने लिये ही मान लेता है। यह भगवान का , देने का एक विलक्षण ढंग है। उनकी इस कृपा को केवल भक्तलोग ही जान सकते हैं परन्तु जो लोग भगवान से विमुख होते हैं , वे सोच ही नहीं सकते कि इन वस्तुओं को हम सदा पास में रख सकते हैं क्या? अथवा वस्तुओं के पास हम सदा रह सकते हैं क्या ? इन वस्तुओं पर हमारा आधिपत्य चल सकता है क्या ? इसलिये वे अनन्यभाव से भगवान के शरण नहीं हो सकते। इस श्लोक का भाव यह हुआ कि जो केवल भगवान के ही शरण होते हैं अर्थात् जो केवल दैवी सम्पत्ति वाले होते हैं वे भगवान की गुणमयी माया को तर जाते हैं परन्तु जो भगवान के शरण न होकर देवता आदि के शरण होते हैं अर्थात् जो केवल आसुरी सम्पत्तिवाले (प्राणपिण्डपोषणपरायण सुखभोगपरायण) होते हैं वे भगवान्की गुणमयी मायाको नहीं तर सकते। ऐसे आसुर स्वभाववाले मनुष्य भले ही ब्रह्मलोकतक चले जायँ तो भी उनको (ब्रह्मलोक तक गुणमयी माया होने से) वहाँ से लौटना ही पड़ता है जन्मना-मरना ही पड़ता है। पूर्वश्लोक में भगवान ने यह बताया कि मेरे शरण होने वाले सभी माया से तर जाते हैं। अतः सब के सब प्राणी मेरे शरण क्यों नहीं होते ? इसका कारण आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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