Bhagavat gita chapter 7

 

 

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अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग

दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग

 

13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा

 

 

Srimad Bhagavad Gita chapter 7त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।

मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥7.13॥

 

त्रिभिः-तीन; गुण-मयैः-भौतिक प्रकृति के गुणों से निर्मित; भावैः-अवस्था द्वारा; एभिः ये-सब; सर्वम्-सम्पूर्ण; इदम्-यह; जगत्-ब्रह्माण्ड; मोहितम्-मोहित होना; न-नहीं; अभिजानाति–नहीं जानना; माम्-मुझको; एभ्यः-इनसे; परम्-सर्वोच्च; अव्ययम्-अविनाशी।

 

माया के तीन गुणों और इन से उत्पन्न इन भावों ( विकारों ) से मोहित इस संसार के लोग इन तीन गुणों से परे मेरे नित्य और अविनाशी स्वरूप को जान पाने में असमर्थ होते हैं ॥7.13॥

 

(‘त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः ৷৷. परमव्ययम्’ सत्त्व , रज और तम तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न और लीन होती रहती हैं। उनके साथ तादात्म्य करके मनुष्य अपने को सात्त्विक , राजस और तामस मान लेता है अर्थात् उनका अपने में आरोप कर लेता है कि मैं सात्त्विक , राजस और तामस हो गया हूँ। इस प्रकार तीनों गुणों से मोहित मनुष्य ऐसा मान ही नहीं सकता कि मैं परमात्मा का अंश हूँ। वह अपने अंशी परमात्मा की तरफ न देखकर उत्पन्न और नष्ट होने वाली वृत्तियों के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है । यही उसका मोहित होना है। इस प्रकार मोहित होने के कारण वह – मेरा परमात्मा के साथ नित्यसम्बन्ध है – इसको समझ ही नहीं सकता। यहाँ जगत् शब्द जीवात्मा का वाचक है। निरन्तर परिवर्तनशील शरीर के साथ तादात्म्य होने के कारण ही यह जीव जगत् नाम से कहा जाता है। तात्पर्य है कि शरीर के जन्मने में अपना जन्मना , शरीर के मरने में अपना मरना , शरीर के बीमार होने में अपना बीमार होना और शरीर के स्वस्थ होने में अपना स्वस्थ होना मान लेता है । इसी से यह जगत् नाम से कहा जाता है। जब तक यह शरीर के साथ अपना तादात्म्य मानेगा ,तब तक यह जगत् ही रहेगा अर्थात् जन्मता-मरता ही रहेगा , कहीं भी स्थायी नहीं रहेगा। गुणों की भगवान के सिवाय अलग सत्ता मानने से ही प्राणी मोहित होते हैं। अगर वे गुणों को भगवत्स्वरूप मानें तो कभी मोहित हो ही नहीं सकते। तीनों गुणों का कार्य जो शरीर है , उस शरीर को चाहे अपना मान लें चाहे , अपने को शरीर मान लें , दोनों ही मान्यताओं से मोह पैदा होता है। शरीर को अपना मानना ममता हुई और अपने को शरीर मानना अहंता हुई। शरीर के साथ अहंता-ममता करना ही मोहित होना है। मोहित हो जाने से गुणों से सर्वथा अतीत जो भगवत्तत्त्व है उसको नहीं जान सकता। यह उस भगवत्तत्त्व को तभी जान सकता है जब त्रिगुणात्मक शरीर के साथ इसकी अहंता-ममता मिट जाती है। यह सिद्धान्त है कि मनुष्य संसार से सर्वथा अलग होने पर ही संसार को जान सकता है और परमात्मा से सर्वथा अभिन्न होने पर भी परमात्मा को जान सकता है। कारण इसका यह है कि त्रिगुणात्मक शरीर से यह स्वयं सर्वथा भिन्न है और परमात्मा के साथ यह स्वयं सर्वथा अभिन्न है। अस्वाभाविक में स्वाभाविक भाव होना ही मोहित होना है। जो प्रतिक्षण नष्ट होने वाले तीनों गुणों से परे हैं , अत्यन्त निर्लिप्त हैं और नित्य-निरन्तर एकरूप रहने वाले हैं , ऐसे परमात्मा स्वाभाविक हैं। परमात्मा की यह स्वाभाविकता बनायी हुई नहीं है , कृत्रिम नहीं है , अभ्यास-साध्य नहीं है बल्कि स्वतःस्वाभाविक है परंतु शरीर तथा संसार में अहंता-ममता अर्थात् मैं और मेराभाव उत्पन्न हुआ है एवं नष्ट होने वाला है। यह केवल माना हुआ है इसलिये यह अस्वाभाविक है। इस अस्वाभाविक को स्वाभाविक मान लेना ही मोहित होना है , जिसके कारण मनुष्य स्वाभाविकता को समझ नहीं सकता। जीव पहले परमात्मा से विमुख हुआ या पहले संसार के सम्मुख (गुणों से मोहित) हुआ , इसमें दार्शनिकोंका मत यह है कि परमात्मा से विमुख होना और संसार से सम्बन्ध जोड़ना , ये दोनों अनादि हैं इनका आदि नहीं है। अतः इनमें पहले या पीछे की बात नहीं कही जा सकती परन्तु मनुष्य यदि मिली हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग न करे , उसे केवल भगवान में ही लगाना शुरू कर दे तो यह संसार से ऊपर उठ जाता है अर्थात् इसका जन्म-मरण मिट जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह मनुष्य प्रभु की दी हुई स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके ही बन्धन में पड़ा है। अपनी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके नष्ट होने वाले पदार्थों में उलझ जाने से यह परमात्मतत्त्व को जान नहीं सकता। ‘परमव्ययम्’ पद से भगवान् कहते हैं कि मैं इन गुणों से पर या परे हूँ अर्थात् इन गुणों से सर्वथा रहित , असम्बद्ध , निर्लिप्त हूँ। मैं न कभी किसी गुण से बँधा हुआ हूँ और न गुणों के परिवर्तन से मेरे में कोई परिवर्तन ही होता है। ऐसे मेरे वास्तविक स्वरूप को गुणों से मोहित प्राणी नहीं जान सकते। अब आगे के श्लोक में भगवान् अपने को न जान सकने में हेतु या कारण बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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