अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
08-12 संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥7.11॥
बलम्-शक्ति; बलवताम्-बलवानों का; च-तथा; अहम्-मैं हूँ; काम-कामना; राग – आसक्ति; विवर्जितम्-रहित; धर्म-अविरुद्धः-जो धर्म के विरुद्ध न हो; भूतेषु–सभी जीवों में; कामः-कामुक गतिविधियाँ; अस्मि-मैं हूँ; भरत ऋषभ-भरतवंशियों में श्रेष्ठ, अर्जुन।
हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल और सामर्थ्य हूँ और सभी जीवों में धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूँ॥7.11॥
(‘बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्’ कठिन से कठिन काम करते हुए भी अपने भीतर एक कामना-आसक्ति रहित शुद्ध , निर्मल उत्साह रहता है। काम पूरा होने पर भी मेरा कार्य , शास्त्र और धर्म के अनुकूल है तथा लोकमर्यादा के अनुसार सन्तजनानुमोदित है । ऐसे विचार से मन में एक उत्साह रहता है। इसका नाम बल है। यह बल भगवान का ही स्वरूप है। अतः यह बल ग्राह्य है। गीता में भगवान ने खुद ही बल की व्याख्या कर दी है। 17वें अध्याय के 5वें श्लोक में ‘कामरागबलान्विताः’ पद में आया बल कामना और आसक्ति से युक्त होने से दुराग्रह और हठ का वाचक है। अतः यह बल भगवान का स्वरूप नहीं है बल्कि आसुरी सम्पत्ति होने से त्याज्य है। ऐसे ही ‘सिद्धोऽहं बलवान्सुखी’ (गीता 16। 14) और ‘अहंकारं बलं दर्पम्’ (गीता 16। 18 18। 53) पदों में आया बल भी त्याज्य है। छठे अध्याय के 34वें श्लोक में ‘बलवद्दृढम्’ पद में आया बल शब्द मन का विशेषण है। वह बल भी आसुरी सम्पत्ति का ही है क्योंकि उसमें कामना और आसक्ति है परन्तु यहाँ (7। 11 में) जो बल आया है वह कामना और आसक्ति से रहित है । इसलिये यह सात्त्विक उत्साह का वाचक है और ग्राह्य है। 17वें अध्याय के 8वें श्लोक में ‘आयुःसत्त्वबलारोग्य ৷৷.’ पद में आया ‘बल’ शब्द भी इसी सात्त्विक बल का वाचक है। ‘धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ‘हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! मनुष्यों में (टिप्पणी प0 407.1) धर्म से अविरुद्ध अर्थात् धर्मयुक्त काम (टिप्पणी प0 407.2) मेरा स्वरूप है। कारण कि शास्त्र और लोकमर्यादा के अनुसार शुभ-भाव से केवल सन्तान उत्पत्ति के लिये जो काम होता है वह काम मनुष्य के अधीन होता है परंतु आसक्ति , कामना , सुखभोग आदि के लिये जो काम होता है , उस काम में मनुष्य पराधीन हो जाता है और उसके वश में होकर वह न करने लायक शास्त्रविरुद्ध काम में प्रवृत्त हो जाता है। शास्त्रविरुद्ध काम पतन का तथा सम्पूर्ण पापों और दुःखों का हेतु होता है। कृत्रिम उपायों से सन्तति निरोध कराकर केवल भोगबुद्धि से काम में प्रवृत्त होना महान् नरकों का दरवाजा है। जो सन्तानकी उत्पत्ति कर सके वह पुरुष कहलाता है और जो गर्भ धारण कर सके वह स्त्री कहलाती है (टिप्पणी प0 407.3)। अगर पुरुष और स्त्री आपरेशन के द्वारा अपनी सन्तानोत्पत्ति करने की योग्यता (पुरुषत्व और स्त्रीत्व) को नष्ट कर देते हैं , वे दोनों ही हिजड़े कहलाने योग्य हैं। नपुंसक होने के कारण देवकार्य (हवन-पूजन आदि) और पितृकार्य (श्राद्ध-तर्पण) में उनका अधिकार नहीं रहता (टिप्पणी प0 407.4)। स्त्री में मातृशक्ति नष्ट हो जाने के कारण उसके लिये परम आदरणीय एवं प्रिय माँ सम्बोधन का प्रयोग भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह या तो शास्त्र और लोकमर्यादा के अनुसार केवल सन्तानोत्पत्ति के लिये काम का सेवन करे अथवा ब्रह्मचर्य का पालन करे – स्वामी रामसुखदास जी )