अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
1-7 विज्ञान सहित ज्ञान का विषय, ईश्वर की व्यापकता
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥7.7॥
मत्तः-मुझसे; परतरम्-श्रेष्ठ; न-नहीं; अन्यत्-किञ्चित्-अन्य कुछ भी; अस्ति–है; धनञ्जय-धन और वैभव का स्वामी, अर्जुन; मयि–मुझमें; सर्वम्-सब कुछ; इदम्-जो हम देखते हैं; प्रोतम्-गुंथा हुआ; सूत्रे-धागे में; मणिगणा:-मोतियों के मनके; इव-समान।
हे धनञ्जय ! मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। सब कुछ मुझ पर उसी प्रकार से आश्रित है , जिस प्रकार से धागे में गुंथे हुए मोती॥7.7॥
(‘मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय ‘ हे अर्जुन ! मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है । मैं ही सब संसार का महाकारण हूँ। जैसे वायु आकाश से ही उत्पन्न होती है , आकाश में ही रहती है और आकाश में ही लीन होती है अर्थात् आकाश के सिवाय वायु की कोई पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ऐसे ही संसार भगवान से उत्पन्न होता है , भगवान में स्थित रहता है और भगवान में ही लीन हो जाता है अर्थात् भगवान के सिवाय संसार की कोई पृथक् स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। यहाँ ‘परतरम्’ कहकर सबका मूल कारण बताया गया है। मूल कारण के आगे कोई कारण नहीं है अर्थात् मूल कारण का कोई उत्पादक नहीं है। भगवान् ही सबके मूल कारण हैं। यह संसार अर्थात् देश ,काल , व्यक्ति , वस्तु , घटना , परिस्थिति आदि सभी परिवर्तनशील हैं परन्तु जिसके होनेपन से इन सबका होनापन दिखता है अर्थात् जिसकी सत्ता से ये सभी है दिखते हैं , वह परमात्मा ही इन सब में परिपूर्ण है। भगवान ने इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में कहा कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा , जिसको जानने के बाद कुछ जानना बाकी नहीं रहेगा ‘यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते’ और यहाँ कहते हैं कि मेरे सिवाय दूसरा कोई कारण नहीं है ‘मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति।’ दोनों ही जगह ‘न अन्यत्’ कहने का तात्पर्य है कि जब मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं तब मेरे को जानने के बाद जानना कैसे बाकी रहेगा ? अतः भगवान ने यहाँ ‘मयि सर्वमिदं प्रोतम् ‘ और आगे ‘वासुदेवः सर्वम्’ (7। 19) तथा ‘सदसच्चाहम्’ (9। 19) कहा है। जो कार्य होता है वह कारण के सिवाय अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं रखता। वास्तव में कारण ही कार्यरूप से दिखता है। इस प्रकर जब कारण का ज्ञान हो जायगा तब कार्य कारण में लीन हो जायगा अर्थात् कार्य की अलग सत्ता प्रतीत नहीं होगी और एक परमात्मा के सिवाय अन्य कोई कारण नहीं है , ऐसा अनुभव स्वतः हो जायगा। ‘मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव’ यह सारा संसार सूत में सूत की ही मणियों की तरह मेरे में पिरोया हुआ है अर्थात् मैं ही सारे संसार में अनुस्यूत (व्याप्त) हूँ। जैसे सूत से बनी मणियों में और सूत में सूत के सिवाय अन्य कुछ नहीं है , ऐसे ही संसार में मेरे सिवाय अन्य कोई तत्त्व नहीं है। तात्पर्य है कि जैसे सूत में सूत की मणियाँ पिरोयी गयी हों तो दिखने में मणियाँ और सूत अलग-अलग दिखते हैं पर वास्तव में उनमें सूत एक ही होता है। ऐसे ही संसार में जितने प्राणी हैं वे सभी नाम , रूप , आकृति आदि से अलग-अलग दिखते हैं पर वास्तव में उनमें व्याप्त रहने वाला चेतनतत्त्व एक ही है। वह चेतनतत्त्व मैं ही हूँ ‘क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ‘ (गीता 13। 2) अर्थात् मणिरूप अपरा प्रकृति भी मेरा स्वरूप है और धागारूप परा प्रकृति भी मैं ही हूँ। दोनों में मैं ही परिपूर्ण हूँ , व्याप्त हूँ। साधक जब संसार को संसारबुद्धि से देखता है तब उसको संसार में परिपूर्णरूप से व्याप्त परमात्मा नहीं दिखते। जब उसको परमात्मतत्त्व का वास्तविक बोध हो जाता है तब व्याप्यव्यापक भाव मिटकर एक परमात्मतत्त्व ही दिखता है। इस तत्त्व को बताने के लिये ही भगवान ने यहाँ कारणरूप से अपनी व्यापकता का वर्णन किया है। जो कुछ कार्य दिखता है उसके मूल में परमात्मा ही हैं , यह ज्ञान कराने के लिये अब भगवान् 8वें से 12वें श्लोक तक का प्रकरण आरम्भ करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )