Bhagavat gita chapter 7

 

 

Previous        Menu        Next

 

अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग

दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग

 

1-7 विज्ञान सहित ज्ञान का विषय, ईश्वर की व्यापकता

 

 

Bhagavad Gita chapter 7मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥7.3॥

 

मनुष्याणाम् – मनुष्यों में; सहस्त्रेषु-कई हजारों में से; कश्चित् – कोई एक; यतति-प्रयत्न करता है; सिद्धये-पूर्णता के लिए; यतताम्-प्रयास करने वाला; अपि-निस्सन्देह; सिद्धानाम्-वह जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली हो; कश्चित्-कोई एक; माम्–मुझको; वेत्ति-जानता है; तत्त्वतः-वास्तव

 

हजारों में से कोई एक मनुष्य सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और सिद्धि प्राप्त करने वालों में से कोई एक विरला ही वास्तव में मुझे तत्व से अर्थात वास्तव में जान पाता है॥7.3॥

 

(‘मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये’ (टिप्पणी प0 395.1) हजारों मनुष्यों में कोई एक ही मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करता है। तात्पर्य है कि जिनमें मनुष्यपना है अर्थात् जिनमें पशुओं की तरह खाना-पीना और ऐश-आराम करना नहीं है , वे ही वास्तव में मनुष्य हैं। उन मनुष्यों में भी जो नीति और धर्म पर चलने वाले हैं , ऐसे मनुष्य हजारों हैं। उन हजारों मनुष्यों में भी कोई एक ही सिद्धि के लिये (टिप्पणी प0 395.2) यत्न करता है अर्थात् जिससे बढ़कर कोई लाभ नहीं , जिसमें दुःख का लेश भी नहीं और आनन्द की किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं , कमी की सम्भावना ही नहीं , ऐसे स्वतःसिद्ध नित्यतत्त्व की प्राप्ति के लिये यत्न करता है। जो परलोक में स्वर्ग आदि की प्राप्ति नहीं चाहता और इस लोक में धन , मान , भोग , कीर्ति आदि नहीं चाहता अर्थात् जो उत्पत्तिविनाशशील वस्तुओं में नहीं अटकता और भोगे हुए भोगों के तथा मान-बड़ाई , आदर-सत्कार आदि के संस्कार रहने से उन विषयों का सङ्ग होने पर उन विषयों में रुचि होते रहने पर भी जो अपनी मान्यता , उद्देश्य , विचार , सिद्धान्त आदि से विचलित नहीं होता , ऐसा कोई एक पुरुष ही सिद्धि के लिये यत्न करता है। इससे सिद्ध होता है कि परमात्मप्राप्तिरूप सिद्धि के लिये यत्न करने वाले अर्थात् दृढ़ता से उधर लगने वाले बहुत कम मनुष्य होते हैं।परमात्मप्राप्ति की तरफ न लगने में कारण है भोग और संग्रह में लगना। सांसारिक भोग पदार्थों में केवल आरम्भ में ही सुख दिखता है। मनुष्य प्रायः तत्काल सुख देने वाले साधनों में ही लगते हैं। उनका परिणाम क्या होगा इस पर वे विचार करते ही नहीं। अगर वे भोग और ऐश्वर्य के परिणाम पर विचार करने लग जाएं कि भोग और संग्रह के अन्त में कुछ नहीं मिलेगा , रीते रह जायँगे और उनकी प्राप्ति के लिये किये हुए पापकर्मों के फलस्वरूप चौरासी लाख योनियों तथा नरकों के रूप में दुःख ही दुख मिलेगा तो वे परमात्मा के साधन में लग जायँगे। दूसरा कारण यह है कि प्रायः लोग सांसारिक भोगों में ही लगे रहते हैं। उनमें से कुछ लोग संसार के भोगों से ऊँचे उठते भी हैं तो वे परलोक के स्वर्ग आदि भोग-भूमियों की प्राप्ति में लग जाते हैं परन्तु अपना कल्याण हो जाय , परमात्मा की प्राप्ति हो जाय , ऐसा दृढ़ता से विचार करके परमात्मा की तरफ लगने वाले लोग बहुत कम होते हैं। इतिहास में भी देखते हैं तो सकामभाव से तपस्या आदि साधन करने वालों के ही चरित्र विशेष आते हैं। कल्याण के लिये तत्परता से साधन करने वालों के चरित्र बहुत ही कम आते हैं। वास्तव में परमात्मतत्त्व की प्राप्ति कठिन या दुर्लभ नहीं है बल्कि इधर सच्ची लगन से तत्परतापूर्वक लगने वाले बहुत कम हैं। इधर दृढ़ता से न लगने में संयोगजन्य सुख की तरफ आकृष्ट होना और परमात्मतत्त्व की प्राप्ति के लिये भविष्य की आशा (टिप्पणी प0 395.3) रखना ही खास कारण है। ‘यततामपि सिद्धानाम्’ (टिप्पणी प0 395.4) यहाँ सिद्ध शब्द से उनको लेना चाहिये जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है और जो केवल एक भगवान में ही लग गये हैं। उन्हीं को गीता में महात्मा कहा गया है। यद्यपि सब कुछ परमात्मा ही है , ऐसा जानने वाले तत्त्वज्ञ पुरुष को भी (7। 19में) महात्मा कहा गया है तथापि यहाँ तो वे ही महात्मा साधक लेने चाहिये जो आसुरी सम्पत्ति से रहित होकर , केवल दैवी सम्पत्ति का आश्रय लेकर अनन्यभाव से भगवान का भजन करते हैं (गीता 9। 13)। इसका कारण यह है कि वे यत्न करते हैं ‘यतताम्’। इसलिये यहाँ (7। 19 में वर्णित) तत्त्वज्ञ महात्मा को नहीं लेना चाहिये। यहाँ ‘यतताम्’ पद का तात्पर्य मात्र बाह्य चेष्टाओं से नहीं है। इसका तात्पर्य है भीतर में केवल परमात्मप्राप्ति की उत्कट उत्कण्ठा लगना , स्वाभाविक ही लगन होना और स्वाभाविक ही आदरपूर्वक उन परमात्मा का चिन्तन होना। ‘कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः’ ऐसे यत्न करने वालों में कोई एक ही मेरे को तत्त्व से जानता है। यहाँ कोई एक ही जानता है , ऐसा कहने का यह बिलकुल तात्पर्य नहीं है कि यत्न करने वाले सब नहीं जानेंगे बल्कि यहाँ इसका तात्पर्य है कि प्रयत्नशील साधकों में वर्तमान समय में कोई एक ही तत्त्व को जानने वाला मिलता है। कारण कि कोई एक ही उस तत्त्व को जानता है और वैसे ही दूसरा कोई एक ही उस तत्त्व का विवेचन करता है ‘आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः’ (गीता 2। 29)। यहाँ तथैव चान्यः (वैसे ही दूसरा कोई) कहने का तात्पर्य न जानने वाला नहीं है क्योंकि जो नहीं जानता है वह क्या कहेगा और कैसे कहेगा ? अतः दूसरा कोई कहने का तात्पर्य है कि जानने वालों में से कोई एक उसका विवेचन करने वाला होता है। दूसरे जितने भी जानकार हैं , वे स्वयं तो जानते हैं पर विवेचन करने में , दूसरों को समझाने में , वे सब के सब समर्थ नहीं होते। प्रायः लोग इस (तीसरे ) श्लोक को तत्त्व की कठिनता बताने वाला मानते हैं परन्तु वास्तव में यह श्लोक तत्त्व की कठिनता के विषय में नहीं है क्योंकि परमात्मतत्त्व की प्राप्ति कठिन नहीं है बल्कि तत्त्वप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा होना और अभिलाषा की पूर्ति के लिये तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों का मिलना दुर्लभ है , कठिन है। यहाँ भगवान अर्जुन से कहते हैं कि मैं कहूँगा और तू जानेगा तो अर्जुन जैसा अपने श्रेय का प्रश्न करने वाला और भगवान जैसा सर्वज्ञ कहने वाला मिलना दुर्लभ है। वास्तव में देखा जाय तो केवल उत्कट अभिलाषा होना ही दुर्लभ है। कारण कि अभिलाषा होने पर उसको जानने की जिम्मेवारी भगवान पर आ जाती है। यहाँ तत्त्वतः कहने का तात्पर्य है कि वह मेरे सगुण-निर्गुण , साकार-निराकार , शिव , शक्ति , गणेश , सूर्य , विष्णु आदि रूपों में प्रकट होने वाले और समय-समय पर तरह-तरह के अवतार लेने वाले मुझको तत्त्व से जान लेता है अर्थात् उसके जानने में किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं रहता और उसके अनुभव में एक परमात्मतत्त्व के सिवाय संसार की किञ्चिन्मात्र भी सत्ता नहीं रहती। दूसरे श्लोक में भगवान ने ज्ञान-विज्ञान कहने की प्रतिज्ञा की थी। उस प्रतिज्ञा के अनुसार अब भगवान ज्ञान-विज्ञान कहने का उपक्रम करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

  Next

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!