Bhagavat gita chapter 7

 

 

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अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग

दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग

1-7 विज्ञान सहित ज्ञान का विषय, ईश्वर की व्यापकता

 

Bhagavad Gita chapter 7ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।

यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥7.2॥

 

ज्ञानम्-ज्ञान; ते-तुमसे; अहम्-मैं; स–सहित; विज्ञानम्-विवेक; इदम्-यह; वक्ष्यामि-प्रकट करना; अशेषत:-पूर्णरूप से; यत्-जिसे; ज्ञात्वा-जानकर; न-नहीं; इह-इस संसार में; भूयः-आगे; अन्यत्-अन्य कुछ; ज्ञातव्यम्-जानने योग्य; अवशिष्यते-शेष रहता है।

 

अब मैं तुम्हारे समक्ष इस दिव्य ज्ञान और तत्व ज्ञान को विज्ञान सहित अर्थात अपने अनुभव और विवेक से पूर्णतः प्रकट करूँगा जिसको जान लेने पर इस संसार में तुम्हारे जानने के लिए और कुछ शेष नहीं रहेगा॥7.2॥

 

(‘ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः’ भगवान् कहते हैं कि भैया अर्जुन अब मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा (टिप्पणी प0 392.1) , तुम्हें कहूँगा और मैं खुद कहूँगा तथा सम्पूर्णता से कहूँगा। ऐसे तो हर एक आदमी हर एक गुरु से मेरे स्वरूप के बारे में सुनता है और उससे लाभ भी होता है परन्तु तुम्हें मैं स्वयं कह रहा हूँ। स्वयं कौन ? जो समग्र परमात्मा है , वह मैं , स्वयं मैं , स्वयं मेरे स्वरूप का जैसा वर्णन कर सकता हूँ , वैसा दूसरे नहीं कर सकते क्योंकि वे तो सुनकर और अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करके ही कहते हैं (टिप्पणी प0 392.2)। उनकी बुद्धि ‘समष्टि बुद्धि’ का एक छोटा सा अंश है । वह कितना जान सकती है ? वे तो पहले अनजान होकर फिर जानकार बनते हैं पर मैं सदा अलुप्तज्ञान हूँ। मेरे में अनजानपना न है , न कभी था , न होगा और न होना सम्भव ही है। इसलिये मैं तेरे लिये उस तत्त्व का वर्णन करूँगा , जिसको जानने के बाद और कुछ जानना बाकी नहीं रहेगा। 10वें अध्याय के 16वें श्लोक में अर्जुन कहते हैं कि आप अपनी सब की सब विभूतियों को कहने में समर्थ हैं ‘वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः’ तो उसके उत्तर में भगवान् कहते हैं कि मेरे विस्तार का अन्त नहीं है । इसलिये प्रधानता से कहूँगा ‘प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे’ (10। 19)। फिर अन्त में कहते हैं कि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है ‘नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप’ (10। 40)। यहाँ (7। 2 में) भगवान कहते हैं कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान को सम्पूर्णता से कहूँगा , शेष नहीं रखूँगा ‘अशेषतः’। इसका तात्पर्य यह समझना चाहिये कि मैं तत्त्व से कहूँगा। तत्त्व से कहने के बाद कहना , जानना कुछ भी बाकी नहीं रहेगा। 10वें अध्याय में विभूति और योग की बात आयी कि भगवान की विभूतियों का और योग का अन्त नहीं है। अभिप्राय है कि विभूतियों का अर्थात् भगवान की जो अलग-अलग शक्तियाँ हैं , उनका और भगवान के योग का अर्थात् सामर्थ्य और ऐश्वर्य का अन्त नहीं आता। रामचरितमानस में कहा है ‘निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ। सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ।।’ (उत्तर0 73 ख) तात्पर्य है कि सगुण भगवान का जो प्रभाव है , ऐश्वर्य है उसका अन्त नहीं आता। जब अन्त ही नहीं आता तब उसको जानना मनुष्य की बुद्धि के बाहरकी बात है परन्तु जो वास्तविक तत्त्व है उसको मनुष्य सुगमता से समझ सकता है। जैसे सोने के गहने कितने होते हैं ? इसको मनुष्य नहीं जान सकता क्योंकि गहनों का अन्त नहीं है परन्तु उन सब गहनों में तत्त्व से एक सोना ही है । इसको तो मनुष्य जान ही सकता है। ऐसे ही परमात्मा की सम्पूर्ण विभूतियों और सामर्थ्य को कोई जान नहीं सकता परन्तु उन सब में तत्त्व से एक परमात्मा ही हैं । इसको तो मनुष्य तत्त्व से जान ही सकता है। परमात्मा को तत्त्व से जानने पर उसकी समझ तत्त्व से परिपूर्ण हो जाती है , बाकी नहीं रहती। जैसे कोई कहे कि मैंने जल पी लिया तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि अब संसार में जल बाकी नहीं रहा। अतः जल पीने से जल का अन्त नहीं हुआ है बल्कि हमारी प्यास का अन्त हुआ है। इसी तरह से परमात्मतत्त्व को तत्त्व से समझ लेने पर परमात्मतत्त्व के ज्ञान का अन्त नहीं हुआ है बल्कि हमारी अपनी जो समझ है , जिज्ञासा है वह पूर्ण हुई है , उसका अन्त हुआ है , उसमें केवल परमात्मतत्त्व ही रह गया है। 10वें अध्याय के दूसरे श्लोक में भगवान ने कहा है कि मेरे प्रकट होने को देवता और महर्षि नहीं जानते और तीसरे श्लोक में कहा है कि मुझे अज और अनादि जानता है । वह मनुष्यों में असम्मूढ़ है और वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। तो जिसे देवता और महर्षि नहीं जानते उसे मनुष्य जान ले यह कैसे हो सकता है ? भगवान् अज और अनादि हैं , ऐसा दृढ़ता से मानना ही जानना है। मनुष्य भगवान को अज और अनादि मान ही सकता है परन्तु जैसे बालक अपनी माँ के विवाह की बरात नहीं देख सकता , ऐसे ही सब प्राणियों के आदि तथा स्वयं अनादि भगवान को देवता , ऋषि , महर्षि , तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त आदि नहीं जान सकते। इसी प्रकार भगवान के अवतार लेने को , लीला को , ऐश्वर्य को कोई जान नहीं सकता क्योंकि वे अपार हैं , अगाध हैं , अनन्त हैं परन्तु उनको तत्त्व से तो जान ही सकते हैं। परमात्मतत्त्व को जानने के लिये ज्ञानयोग में जानकारी (जानने ) की प्रधानता रहती है और भक्तियोग में मान्यता (मानने ) की प्रधानता रहती है। जो वास्तविक मान्यता होती है वह बड़ी दृढ़ होती है। उसको कोई इधर-उधर नहीं कर सकता अर्थात् मानने वाला जब तक अपनी मान्यता को न छोड़े तब तक उसकी मान्यता को कोई छुड़ा नहीं सकता। जैसे मनुष्य ने संसार और संसार के पदार्थों को अपने लिये उपयोगी मान रखा है तो इस मान्यता को स्वयं छोड़े बिना दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता परन्तु स्वयं इस बात को जान ले कि ये सब पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं , तो इस मान्यता को मनुष्य छोड़ सकता है क्योंकि यह मान्यता असत्य है , झूठी है। जब असत्य मान्यता को भी दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता तब जो वास्तविक परमात्मा सबके मूल में है , उसको कोई मान ले तो यह मान्यता कैसे छूट सकती है ? क्योंकि यह मान्यता सत्य है। यह यथार्थ मान्यता ज्ञान से कम नहीं होती बल्कि ज्ञान के समान ही दृढ़ होती है। भक्तिमार्ग में मानना मुख्य होता है। जैसे 10वें अध्याय के पहले श्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा कि ‘हे महाबाहो अर्जुन ! मैं तेरे हित के लिये परम (सर्वश्रेष्ठ) वचन कहता हूँ तुम सुनो अर्थात् तुम इस वचन को मान लो।’ वहाँ भक्ति का प्रकरण है । अतः वहाँ मानने की बात कहते हैं। ज्ञानमार्ग में जानना मुख्य होता है। जैसे 14वें अध्याय के पहले श्लोक में भगवान ने कहा कि ‘मैं फिर ज्ञानों में उत्तम और सर्वोत्कृष्ट ज्ञान कहता हूँ , जिसको जानने से सब के सब मुनि परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।’ वहाँ ज्ञान का प्रकरण है । अतः वहाँ जानने की बात कहते हैं। भक्तिमार्ग में मनुष्य मान करके जान लेता है और ज्ञानमार्ग में जान करके मान लेता है। अतः पूर्ण होने पर दोनों की एकता हो जाती है। ज्ञान और विज्ञानसम्बन्धी विशेष बात – संसार भगवान से ही पैदा होता है और उनमें ही लीन होता है । इसलिये भगवान् इस संसार के महाकारण हैं , ऐसा मानना ज्ञान है। भगवान के सिवाय और कोई चीज है ही नहीं , सब कुछ भगवान् ही हैं , स्वयं भगवान् ही सब कुछ बने हुए हैं , ऐसा अनुभव हो जाना विज्ञान है। अपरा और परा प्रकृति मेरी है । ‘इनके संयोग से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है और मैं इस सम्पूर्ण जगत् का महाकारण हूँ (7। 4 6) ऐसा कहकर भगवान् ने ज्ञान बताया। ‘मेरे सिवाय अन्य कोई है ही नहीं , सूत के धागे में उसी सूत की बनी हुई मणियों की तरह सब कुछ मेरे में ही ओतप्रोत है’ (7। 7) ऐसा कहकर भगवान ने विज्ञान बताया। ‘जल में रस , चन्द्र-सूर्य में प्रभा मैं हूँ इत्यादि सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मैं हूँ । सात्त्विक , राजस और तामस भाव मेरे से ही होते हैं’ (7। 8 12) ऐसा कहकर ज्ञान बताया। ‘ये मेरे में और मैं इनमें नहीं हूँ अर्थात् सब कुछ मैं ही मैं हूँ क्योंकि इनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है’ ( 7। 12) ऐसा कहकर विज्ञान बताया। ‘जो मेरे सिवाय गुणों की अलग सत्ता मान लेता है वह मोहित हो जाता है परन्तु जो गुणों से मोहित न होकर अर्थात् ये गुण भगवान से ही होते हैं और भगवान में ही लीन होते हैं , ऐसा मानकर मेरे शरण होता है , वह गुणमयी माया से तर जाता है। ऐसे मेरे शरण होने वाले चार प्रकार के भक्त होते हैं – अर्थार्थी , आर्त , जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी)। ये सभी उदार हैं पर ज्ञानी अर्थात् प्रेमी मेरे को अत्यन्त प्रिय है और मेरी आत्मा ही है’ (7। 13 18) , ऐसा कहकर ज्ञान बताया। ‘जिसको सब कुछ वासुदेव ही है , ऐसा अनुभव हो जाता है , वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है’ (7। 19) ऐसा कहकर विज्ञान बताया। ‘मेरे को न मानकर जो कामनाओं के कारण देवताओं के शरण हो जाते हैं उनको अन्तवाला फल (जन्म-मरण) मिलता है और जो मेरे शरण हो जाते हैं उनको मैं मिल जाता हूँ। जो मुझे अज-अविनाशी नहीं जानते , उनके सामने मैं प्रकट नहीं होता। मैं भूत , भविष्य और वर्तमान तीनों कालों को और उनमें रहने वाले सम्पूर्ण प्राणियों को जानता हूँ पर मेरे को कोई नहीं जानता। जो द्वन्द्व-मोह से मोहित हो जाते हैं वे बार-बार जन्म-मरणको प्राप्त होते हैं। जो एक निश्चय करके मेरे भजन में लग जाते हैं उनके पाप नष्ट हो जाते हैं तथा वे निर्द्वन्द्व हो जाते हैं।’ (7। 20 28) ऐसा कहकर ज्ञान बताया। ‘जो मेरा आश्रय लेते हैं वे ब्रह्म , अध्यात्म , कर्म , अधिभूत , अधिदैव और अधियज्ञ को जान जाते हैं अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ , ऐसा उनको अनुभव हो जाता है ‘ (7। 29 30) ऐसा कहकर विज्ञान बताया। ‘यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते’ विज्ञान सहित ज्ञान को जानने के बाद जानना बाकी नहीं रहता। तात्पर्य है कि ‘मेरे सिवाय संसार का मूल दूसरा कोई नहीं है ,केवल मैं ही हूँ ‘ – मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय (गीता 7। 7) और तत्त्व से सब कुछ वासुदेव ही है – वासुदेवः सर्वम् (7। 19) और कोई है ही नहीं , ऐसा जान लेगा तो जानना बाकी कैसे रहेगा क्योंकि इसके सिवाय दूसरा कुछ जाननेयोग्य है ही नहीं। यदि एक परमात्मा को न जानकर संसार की बहुत सी विद्याओं को जान भी लिया तो वास्तव में कुछ नहीं जाना है , कोरा परिश्रम ही किया है। जानना कुछ बाकी नहीं रहता – इसका तात्पर्य है कि इन्द्रियों से , मन से , बुद्धि से जो परमात्मा को जानता है , वह वास्तव में पूर्ण जानना नहीं है। कारण कि ये इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि प्राकृत हैं । इसलिये ये प्रकृति से अतीत तत्त्व को नहीं जान सकते। स्वयं जब परमात्मा के शरण हो जाता है तब स्वयं ही परमात्मा को जानता है। इसलिये परमात्मा को स्वयं से ही जाना जा सकता है , मन-बुद्धि आदि से नहीं। भगवान ने दूसरे श्लोक में यह बताया कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान को सम्पूर्णता से कहूँगा , जिससे कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता। जब जानना बाकी रहता ही नहीं तो फिर सब मनुष्य उस तत्त्व को क्यों नहीं जान लेते ? इसके उत्तर में आगेका श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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