अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
08-12 संपूर्ण पदार्थों में कारण रूप से भगवान की व्यापकता का कथन
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥7.10॥
बीजम्-बीज; माम–मुझको; सर्व-भूतानाम्-समस्त जीवों का; विद्धि-जानना; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुनः सनातनम्-नित्य,; बुद्धिः-बुद्धि; बुद्धिमताम्-बुद्धिमानों की; अस्मि-हूँ; तेजः-तेज; तेजस्विनाम्-तेजस्वियों का; अहम्-मैं।
हे अर्जुन! यह समझो कि मैं सभी प्राणियों का आदि ( सनातन / पुरातन ) बीज हूँ अर्थात उनकी उत्पत्ति का मूल कारण मैं हूँ। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि अर्थात विवेक शक्ति और तेजस्वियों का तेज हूँ॥7.10॥
(‘बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि (टिप्पणी प0 405) पार्थ सनातनम्’ हे पार्थ ! सम्पूर्ण प्राणियों का सनातन (अविनाशी ) बीज मैं हूँ अर्थात् सबका कारण मैं ही हूँ। सम्पूर्ण प्राणी बीजरूप मेरे से उत्पन्न होते हैं , मेरे में ही रहते हैं और अन्त में मेरे में ही लीन होते हैं। मेरे बिना प्राणी की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। जितने बीज होते हैं , वे सब वृक्ष से उत्पन्न होते हैं और वृक्ष पैदा कर के नष्ट हो जाते हैं परन्तु यहाँ जिस बीज का वर्णन है , वह बीज सनातन है अर्थात् आदि अन्त से रहित (अनादि एवं अनन्त) है। इसी को नवें अध्याय के 18वें श्लोक में अव्यय बीज कहा गया है। यह चेतनतत्त्व अव्यय अर्थात् अविनाशी है। यह स्वयं विकाररहित रहते हुए ही सम्पूर्ण जगत् का उत्पादक , आश्रय और प्रकाशक है तथा जगत् का कारण है। गीता में बीज शब्द कहीं भगवान् और कहीं जीवात्मा , दोनों के लिये आया है। यहाँ जो बीज शब्द आया है , वह भगवान का वाचक है क्योंकि यहाँ कारणरूप से विभूतियों का वर्णन है। 10वें अध्याय के 39वें श्लोक में विभूतिरूप से आया बीज शब्द भी भगवान का ही वाचक है क्योंकि वहाँ उनको सम्पूर्ण प्राणियों का कारण कहा गया है। 9वें अध्याय के 18वें श्लोक में बीज शब्द भगवान के लिये आया है क्योंकि उसी अध्याय के 19वें श्लोक में ‘सदसच्चाहमर्जुन’ पदमें कहा गया है कि कार्य और कारण सब मैं ही हूँ। सब कुछ भगवान् ही होने से बीज शब्द भगवान का वाचक है। 14वें अध्याय के चौथे श्लोक में ‘अहं बीजप्रदः पिता’ मैं बीज प्रदान करने वाला पिता हूँ , ऐसा होने से वहाँ बीज शब्द जीवात्मा का वाचक है। बीज शब्द जीवात्मा का वाचक तभी होता है , जब यह जड के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है , नहीं तो यह भगवान का स्वरूप ही है। ‘बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि’ बुद्धिमानों में बुद्धि मैं हूँ। बुद्धि के कारण ही वे बुद्धिमान् कहलाते हैं। अगर उनमें बुद्धि न रहे तो उनकी बुद्धिमान् संज्ञा ही नहीं रहेगी। ‘तेजस्तेजस्विनामहम्’ तेजस्वियों में तेज मैं हूँ। यह तेज दैवीसम्पत्ति का एक गुण है। तत्त्वज्ञ , जीवन्मुक्त महापुरुषों में एक विशेष तेज शक्ति रहती है , जिसके प्रभाव से दुर्गुण-दुराचारी मनुष्य भी सद्गुण-सदाचारी बन जाते हैं। यह तेज भगवान का ही स्वरूप है। विशेष बात – भगवान् ही सम्पूर्ण संसार के कारण हैं । संसार के रहते हुए भी वे सब में परिपूर्ण हैं और सब संसार के मिटने पर भी वे रहते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि सब कुछ भगवान् ही हैं। इसके लिये उपनिषदों में सोना , मिट्टी और लोहे का दृष्टान्त दिया गया है कि जैसे सोने से बने हुए सब गहने सोना ही हैं , मिट्टी से बने हुए सब बर्तन मिट्टी ही हैं और लोहे से बने हुए सब अस्त्र-शस्त्र लोहा ही हैं । ऐसे ही भगवान से उत्पन्न हुआ सब संसार भगवान ही है परन्तु गीता में भगवान ने बीज का दृष्टान्त दिया है कि सम्पूर्ण संसार का बीज मैं हूँ। बीज वृक्ष से पैदा होता है और वृक्ष को पैदा करके स्वयं नष्ट हो जाता है अर्थात् बीज से अंकुर निकल आता है , अंकुर से वृक्ष हो जाता है और बीज स्वयं मिट जाता है परन्तु भगवान ने अपने को संसारमात्र का बीज कहते हुए भी यह एक विलक्षण बात बतायी कि मैं अनादि बीज हूँ , पैदा हुआ बीज नहीं हूँ – ‘बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्’ (7। 10) और मैं अविनाशी बीज हूँ ‘बीजमव्ययम्’ (9। 18)। अविनाशी बीज कहने का मतलब यह है कि संसार मेरे से पैदा होता है पर मैं मिटता नहीं हूँ । जैसा का तैसा ही रहता हूँ। सोना , मिट्टी और लोहे के दृष्टान्त में गहनों में सोना दिखता है , बर्तनों में मिट्टी दिखती है और अस्त्र-शस्त्रों में लोहा दिखता है पर संसार में परमात्मा दिखते नहीं। अगर बीज का दृष्टान्त लें तो वृक्ष में बीज नहीं दिखता। जब वृक्ष में बीज आता है तब पता लगता है कि इस वृक्ष में ऐसा बीज है , जिससे यह वृक्ष पैदा हुआ है। सम्पूर्ण वृक्ष बीज से ही निकलता है और बीज में ही समाप्त हो जाता है। वृक्ष का आरम्भ बीज से होता है और अन्त भी बीज में ही होता है अर्थात् वह वृक्ष चाहे सौ वर्षों तक रहे पर उसकी अन्तिम परिणति बीज में ही होगी बीज के सिवाय और क्या होगा । ऐसे ही भगवान संसार के बीज हैं अर्थात् भगवान से ही संसार उत्पन्न होता है और भगवान में ही लीन हो जाता है। अन्त में एक भगवान् ही बाकी रहते हैं – ‘शिष्यते शेषसंज्ञः’ (श्रीमद्भा0 10। 3। 25)। वृक्ष दिखते हुए भी यह बीज ही है । ऐसा जो जानते हैं वे वृक्ष को ठीक-ठीक जानते हैं और जो बीज को न देखकर केवल वृक्ष को देखते हैं , वे वृक्ष के तत्त्व को नहीं जानते। भगवान् यहाँ ‘बीजं मां सर्वभूतानाम्’ कहकर सबको यह ज्ञान कराते हैं कि तुम्हारे को जितना यह संसार दिखता है , इसके पहले मैं ही था । मैं एक ही प्रजारूप से बहुत रूपों में प्रकट हुआ हूँ – ‘बहु स्यां प्रजायेय’ (छान्दोग्य0 6। 2। 3) और इनके समाप्त होने पर मैं ही रह जाता हूँ। तात्पर्य है कि पहले मैं ही था और पीछे मैं ही रहता हूँ तो बीच में भी मैं ही हूँ। यह संसार पाञ्चभौतिक भी उन्हीं को दिखता है , जो विचार करते हैं , नहीं तो यह पाञ्चभौतिक भी नहीं दिखता। जैसे कोई कह दे कि ये अपने सब के सब शरीर पार्थिव (पृथ्वी से पैदा होने वाले ) हैं । इसलिये इनमें मिट्टी की प्रधानता है तो दूसरा कहेगा कि ये मिट्टी कैसे हैं ? मिट्टी से तो हाथ धोते हैं , मिट्टी तो रेता होती है , अतः ये शरीर मिट्टी नहीं हैं। इस तरह शरीर मिट्टी होता हुआ भी उसको मिट्टी नहीं दिखता परन्तु यह जितना भी संसार दिखता है , इसको जलाकर राख कर दिया जाय तो अन्त में एक मिट्टी ही हो जाता है। विचार करें कि इन शरीरों के मूल में क्या है ? माँ-बाप में जो रजवीर्यरूप अंश होता है जिससे शरीर बनता है , वह अंश अन्न से पैदा होता है। अन्न मिट्टी से पैदा होता है। अतः ये शरीर मिट्टी से ही पैदा होते हैं और अन्त में मिट्टी में ही लीन हो जाते हैं। अन्त में शरीर की तीन गतियाँ होती हैं चाहे जमीन में गाड़ दिया जाय , चाहे जला दिया जाय और चाहे पशु-पक्षी खा जायँ। तीनों ही उपायों से वह अन्त में मिट्टी हो जाता है। इस तरह पहले और आखिर में मिट्टी होने से बीच में भी शरीर या संसार मिट्टी ही है परन्तु बीच में यह शरीर या संसार देखने में मिट्टी नहीं दिखता। विचार करने से ही मिट्टी दिखता है आँखों से नहीं। इसी तरह यह संसार विचार करने से परमात्मस्वरूप दिखता है। विचार करें तो जब भगवान ने यह संसार रचा तो कहीं से कोई सामान नहीं मँगवाया । जिससे संसार को बनाया हो और बनाने वाला भी दूसरा नहीं हुआ है। भगवान् आप ही संसार को बनाने वाले हैं और आप ही संसार बन गये। शरीरों की रचना करके आप ही उनमें प्रविष्ट हो गये – तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् (तैत्तिरीयोपनिषद् 2। 6)। इन शरीरों में जीवरूप से भी वे ही परमात्मा हैं। अतः यह संसार भी परमात्मा का स्वरूप ही है – स्वामी रामसुखदास जी )