अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
1-7 विज्ञान सहित ज्ञान का विषय, ईश्वर की व्यापकता
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥7.5॥
अपरा-निकृष्ट, इयम्-यह; इत:-इसके अतिरिक्त; तु–लेकिन; अन्याम्-अन्य; प्रकृतिम्–प्राकृत शक्ति; विद्धि-जानना; मे-मेरी; परम-उत्कृष्ट; जीवभूताम्-सभी जीव; महाबाहो–बलिष्ठ भुजाओं वाला; यथा-जिसके द्वारा; इदम्-यह; धार्यते-आधार पर; जगत्-भौतिक संसार।
ये आठ तत्व मेरी अपरा शक्ति अर्थात जड़ प्रकृति हैं किन्तु हे महाबाहु अर्जुन! इस से भिन्न जीव रूप बनी हुयी मेरी परा शक्ति है जो मेरी चेतन प्रकृति है उसको जानो जिसके द्वारा ये जगत धारण किया जाता है । यह जीव शक्ति है जिसमें देहधारी आत्माएँ (जीवन रूप) सम्मिलित हैं जो इस संसार के जीवन का आधार हैं॥7.5॥
(‘प्रकृतिरष्टधा अपरेयम्’ पदों से ऐसा मालूम देता है कि यहाँ जो आठ प्रकार की अपरा प्रकृति कही गयी है वह व्यष्टि अपरा प्रकृति है। इसका कारण यह है कि मनुष्य को व्यष्टि प्रकृति-शरीर से ही बन्धन होता है समष्टि-प्रकृति से नहीं। कारण कि मनुष्य व्यष्टि-शरीर के साथ अपनापन कर लेता है जिससे बन्धन होता है।व्यष्टि कोई अलग तत्त्व नहीं है बल्कि समष्टि का ही एक क्षुद्र अंश है। समष्टि से माना हुआ सम्बन्ध ही व्यष्टि कहलाता है अर्थात् समष्टि के अंश शरीर के साथ जीव अपना सम्बन्ध मान लेता है तो वह समष्टि का अंश शरीर ही व्यष्टि कहलाता है। व्यष्टि से सम्बन्ध जोड़ना ही बन्धन है। इस बन्धन से छुड़ाने के लिये भगवान ने आठ प्रकार की अपरा प्रकृति का वर्णन करके कहा है कि जीवरूप परा प्रकृति ने ही इस अपरा प्रकृति को धारण कर रखा है। यदि धारण न करे तो बन्धन का प्रश्न ही नहीं है। 15वें अध्याय के 7वें श्लोक में भगवान ने जीवात्मा को अपना अंश कहा है ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ परन्तु वह प्रकृति में स्थित रहने वाले मन और पाँचों इन्द्रियों को खींचता है अर्थात् उनको अपनी मानता है – ‘मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।’ इसी तरह 13वें अध्याय के 5वें श्लोक में भगवान ने क्षेत्ररूप से समष्टि का वर्णन करके छठे श्लोक में व्यष्टि के विकारों का वर्णन किया क्योंकि ये विकार व्यष्टि के ही होते हैं समष्टि के नहीं। इन सबसे यही सिद्ध हुआ कि व्यष्टि से सम्बन्ध जोड़ना ही बाधक है। इस व्यष्टि से सम्बन्ध तोड़ने के लिये ही यहाँ व्यष्टि अपरा प्रकृति का वर्णन किया गया है जो कि समष्टिका ही अङ्ग है। व्यष्टि प्रकृति अर्थात् शरीर समष्टि सृष्टिमात्र के साथ सर्वथा अभिन्न है , भिन्न कभी हो ही नहीं सकता।वास्तव में मूल प्रकृति कभी किसी की बाधक या साधक (सहायक) नहीं होती। जब साधक उससे अपना सम्बन्ध नहीं मानता तब तो वह सहायक हो जाती है पर जब वह उससे अपना सम्बन्ध मान लेता है तब वह बाधक हो जाती है क्योंकि प्रकृति के साथ सम्बन्ध मानने से व्यष्टि अहंता (मैंपन) पैदा होती है। यह अहंता ही बन्धन का कारण होती है। यहाँ ‘इतीयं मे’ पदों से भगवान् यह चेता रहे हैं कि यह अपरा प्रकृति मेरी है। इसके साथ भूल से अपनापन कर लेना ही बार-बार जन्म-मरण का कारण है और जो भूल करता है उसी पर भूल को मिटाने की जिम्मेवारी होती है। अतः जीव इस अपरा के साथ अपनापन न करे। अहंता में भोग इच्छा और जिज्ञासा ये दोनों रहती हैं। इनमें से भोगेच्छा को कर्मयोग के द्वारा मिटाया जाता है और जिज्ञासा को ज्ञानयोग के द्वारा पूरा किया जाता है। कर्मयोग और ज्ञानयोग इन दोनों में से एक के भी सम्यक्तया पूर्ण होने पर एक-दूसरे में दोनों आ जाते हैं (गीता 5। 4 5) अर्थात् भोगेच्छा की निवृत्ति होने पर जिज्ञासा की भी पूर्ति हो जाती है और जिज्ञासा की पूर्ति होने पर भोगेच्छा की भी निवृत्ति हो जाती है। कर्मयोग में भोगेच्छा मिटने पर तथा ज्ञानयोग में जिज्ञासा की पूर्ति होने पर असङ्गता स्वतः आ जाती है। उस असङ्गता का भी उपभोग न करने पर वास्तविक बोध हो जाता है और मनुष्य का जन्म सर्वथा सार्थक हो जाता है। ‘जीवभूताम्’ वास्तव में यह जीवरूप नहीं है बल्कि जीव बना हुआ है। यह तो स्वतः साक्षात् परमात्मा का अंश है। केवल स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीररूप प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ने से ही यह जीव बना है। यह सम्बन्ध जोड़ता है अपने सुख के लिये। यही सुख इसके जन्ममरणरूप महान् दुःख का खास कारण है। ‘महाबाहो’ हे अर्जुन ! तुम बड़े शक्तिशाली हो इसलिये तुम अपरा और परा प्रकृति के भेद को समझने में समर्थ हो। अतः तुम इसको समझो ‘विद्धि।ययेदं धार्यते जगत्’ (टिप्पणी प0 399) वास्तवमें यह जगत् जगद्रूप नहीं है बल्कि भगवान का ही स्वरूप है ‘वासुदेवः सर्वम् (7। 19) सदसच्चाहम् ‘(9। 19)। केवल इस परा प्रकृति जीव ने इसको जगत्रूप से धारण कर रखा है अर्थात् जीव इस संसार की स्वतन्त्र सत्ता मानकर अपने सुख के लिये इसका उपोयग करने लग गया। इसी से जीव का बन्धन हुआ है। अगर जीव संसार की स्वतन्त्र सत्ता न मानकर इसको केवल भगवत्स्वरूप ही माने तो उसका जन्ममरणरूप बन्धन मिट जायगा। भगवान की परा प्रकृति होकर भी जीवात्मा ने इस दृश्यमान जगत् को जो कि अपरा प्रकृति है , धारण कर रखा है अर्थात् इस परिवर्तनशील विकारी जगत को स्थायी , सुन्दर और सुखप्रद मानकर मैं और मेरे रूप से धारण कर रखा है। जिसकी भोगों और पदार्थों में जितनी आसक्ति है , आकर्षण है उसको उतना ही संसार और शरीर स्थायी , सुन्दर और सुखप्रद मालूम देता है। पदार्थों का संग्रह तथा उनका उपभोग करने की लालसा ही खास बाधक है। संग्रह से अभिमानजन्य सुख होता है और भोगों से संयोगजन्य सुख होता है। इस सुखासक्ति से ही जीव ने जगत् को जगत्रूप से धारण कर रखा है। सुखासक्ति के कारण ही वह इस जगत को भगवत्स्वरूप से नहीं देख सकता। जैसे स्त्री वास्तव में जनन शक्ति है परन्तु स्त्री में आसक्त पुरुष स्त्री को मातृरूप से नहीं देख सकता , ऐसे ही संसार वास्तव में भगवत्स्वरूप है परंतु संसार को अपना भोग्य मानने वाला भोगासक्त पुरुष संसार को भगवत्स्वरूप नहीं देख सकता। यह भोगासक्ति ही जगत् को धारण कराती है अर्थात् जगत् को धारण कराने में हेतु है। दूसरी बात मात्र मनुष्यों के शरीरों की उत्पत्ति रजवीर्य से ही होती है जो कि स्वरूप से स्वतः ही मलिन है परंतु भोगों में आसक्त पुरुषों की उन शरीरों में मलिन बुद्धि नहीं होती बल्कि रमणीय बुद्धि होती है। यह रमणीय बुद्धि ही जगत् को धारण कराती है। नदी के किनारे खड़े एक सन्त से किसी ने कहा कि देखिये महाराज यह नदी का जल बह रहा है और उस पुल पर मनुष्य बह रहे हैं। सन्त ने उससे कहा कि देखो भाई ! नदी का जल ही नहीं , खुद नदी भी बह रही है और पुल पर मनुष्य ही नहीं , खुद पुल भी बह रहा है। तात्पर्य यह हुआ कि ये नदी , पुल तथा मनुष्य बड़ी तेजी से नाश की तरफ जा रहे हैं। एक दिन न यह नदी रहेगी , न यह पुल रहेगा और न ये मनुष्य रहेंगे। ऐसे ही यह पृथ्वी भी बह रही है अर्थात् प्रलय की तरफ जा रही है। इस प्रकार भावरूप से दिखने वाला यह सारा जगत् प्रतिक्षण अभाव में जा रहा है परन्तु जीव ने इसको भावरूप से अर्थात् है रूप से धारण (स्वीकार) कर रखा है। परा प्रकृति की (स्वरूप से ) उत्पत्ति नहीं होती पर अपरा प्रकृति के साथ तादात्म्य करने के कारण यह शरीर की उत्पत्ति को अपनी उत्पत्ति मान लेता है और शरीर के नाश को अपना नाश मान लेता है , जिससे यह जन्मता-मरता रहता है। अगर यह अपरा के साथ सम्बन्ध न जोड़े , इससे विमुख हो जाय अर्थात् भावरूप से इसको सत्ता न दे तो जगत् सत्रूप से दिख ही नहीं सकता। ‘इदम्’ पद से शरीर और संसार दोनों लेने चाहिये क्योंकि शरीर और संसार अलग-अलग नहीं हैं। तत्त्वतः (धातु चीज) एक ही है। शरीर और संसार का भेद केवल माना हुआ है वास्तव में अभेद ही है। इसलिये 13वें अध्याय में भगवान ने ‘इदं शरीरम्’ पदों से शरीर को क्षेत्र बताया (13। 1) परन्तु जहाँ क्षेत्र का वर्णन किया है वहाँ समष्टि का ही वर्णन हुआ है (13। 5) और इच्छा-द्वेषादि विकार व्यष्टि के माने गये हैं (13। 6) क्योंकि इच्छा आदि विकार व्यष्टि प्राणी के ही होते हैं। तात्पर्य है कि समष्टि और व्यष्टि तत्त्वतः एक ही हैं। एक होते हुए भी अपने को शरीर मानने से अहंता और शरीर को अपना मानने से ममता पैदा होती है जिससे बन्धन होता है। अगर शरीर और संसार की अभिन्नता का अथवा अपनी और भगवान की अभिन्नता का साक्षात् अनुभव हो जाय तो अहंता और ममता स्वतः मिट जाती है। ये अहंता और ममता कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग तीनों से ही मिटती हैं। कर्मयोग से ‘निर्ममो निरहंकारः’ (गीता 2। 71) ज्ञानयोग से ‘अहंकारं ৷৷. विमुच्य निर्ममः’ (गीता 18। 53) और भक्तियोग से ‘निर्ममो निरहंकारः’ (गीता 12। 13)। तात्पर्य है कि जडता के साथ सम्बन्ध-विच्छेद होना चाहिये जो कि केवल माना हुआ है। अतः विवेकपूर्वक न मानने से अर्थात् वास्तविकता का अनुभव करने से वह माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है। विशेष बात – जैसे गुरुशिष्य का सम्बन्ध होता है तो इसमें गुरु शिष्य को अपना शिष्य मानता है। शिष्य गुरु को अपना गुरु मानता है। इस प्रकार गुरु अलग है और शिष्य अलग है अर्थात् उन दोनों की अलग-अलग सत्ता दिखती है परन्तु उन दोनों के सम्बन्ध से एक तीसरी सत्ता प्रतीत होने लग जाती है , जिसको सम्बन्ध की सत्ता कहते हैं (टिप्पणी प0 400)। ऐसे ही साक्षात् परमात्मा के अंश जीव ने शरीरसंसार के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है। इस सम्बन्ध के कारण एक तीसरी सत्ता प्रतीत होने लग जाती है जिसको मैंपन कहते हैं। सम्बन्ध की यह सत्ता (मैंपन) केवल मानी हुई है , वास्तव में है नहीं। जीव भूल से इस माने हुए सम्बन्ध को सत्य मान लेता है अर्थात् इसमें सद्भाव कर लेता है और बँध जाता है। इस प्रकार जीव संसार से नहीं बल्कि संसार से माने हुए सम्बन्ध से ही बँधता है। गुरु और शिष्य में तो दोनों की अलग-अलग सत्ता है और दोनों एक-दूसरे से सम्बन्ध मानते हैं परन्तु जीव (चेतन) और संसार (जड) इन दोनों में केवल एक जीव की ही वास्तविक सत्ता है और यही भूल से संसार के साथ अपना सम्बन्ध मानता है। संसार प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है अतः उससे माना हुआ सम्बन्ध भी प्रतिक्षण स्वतः नष्ट हो रहा है। ऐसा होते हुए भी जब तक संसार में सुख प्रतीत होता है तब तक उससे माना हुआ सम्बन्ध स्थायी प्रतीत होता है। तात्पर्य यह है कि संसार से माना हुआ सम्बन्ध सुखासक्ति पर ही टिका हुआ है। संसार से सुखासक्तिपूर्वक माने हुए सम्बन्ध के कारण ही संसार अप्राप्त होने पर भी प्राप्त और परमात्मा प्राप्त होने पर भी अप्राप्त प्रतीत हो रहे हैं। संसार से माना हुआ सम्बन्ध टूटते ही परमात्मा के वास्तविक सम्बन्ध का अथवा संसार की अप्राप्ति और परमात्मा की प्राप्ति का अनुभव हो जाता है। मैंपन को मिटाने के लिये साधक प्रकृति और प्रकृति के कार्य को न तो अपना स्वरूप समझे न उससे कुछ मिलने की इच्छा रखे और न ही अपने लिये कुछ करे। जो कुछ करे वह सब केवल संसार की सेवा के लिये ही करता रहे। तात्पर्य है कि जो कुछ प्रकृतिजन्य पदार्थ हैं उन सबकी संसार के साथ एकता है । अतः उनको केवल संसार का मानकर संसार की ही सेवा में लगाता रहे। इससे क्रिया और पदार्थों का प्रवाह संसार की तरफ हो जाता है और अपना स्वरूप अवशिष्ट रह जाता है अर्थात् अपने स्वरूप का बोध हो जाता है। यह कर्मयोग हुआ। ज्ञानयोग में विवेकविचारपूर्वक प्रकृति के कार्य , पदार्थों और क्रियाओं से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करने पर स्वरूप का बोध हो जाता है। इस प्रकार जड के सम्बन्ध से जो अहंता (मैंपन ) पैदा हुई थी उसकी निवृत्ति हो जाती है। भक्तियोग में मैं केवल भगवान का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं तथा मैं शरीरसंसार का नहीं हूँ और शरीरसंसार मेरे नहीं हैं , ऐसी दृढ़ मान्यता करके भक्त संसार से विमुख होकर केवल भगवत्परायण हो जाता है , जिससे संसार का सम्बन्ध स्वतः टूट जाता है और अहंता की निवृत्ति हो जाती है। इस प्रकार कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग इन तीनों में से किसी एक का भी ठीक अनुष्ठान करने पर जडता से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होकर परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाती है। पूर्वश्लोक में भगवान ने कहा कि परा प्रकृति ने अपरा प्रकृति को धारण कर रखा है। उसी का स्पष्टीकरण करने के लिये अब आगे का श्लोक कहते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )