Bhagavat gita chapter 7

 

 

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अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग

दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग

 

13-19 आसुरी स्वभाव वालों की निंदा और भगवद्भक्तों की प्रशंसा

 

 

Srimad Bhagavad Gita chapter 7बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥7.19॥

 

बहूनाम्-अनेक; जन्मनाम्-जन्म; अन्ते-बाद में; ज्ञानवान्–ज्ञान में स्थित मनुष्य; माम्-मुझको; प्रपद्यते -शरणागति; वासुदेवः-वासुदेव के पुत्र, श्रीकृष्ण; सर्वम्-सब कुछ; इति–इस प्रकार; सः-ऐसा; महा आत्मा-महान आत्मा; सुदुर्लभः-विरले।

 

अनेक जन्मों की आध्यात्मिक साधना के पश्चात जिसे तत्व ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वह मुझे सबका उद्गम जानकर मेरी शरण ग्रहण करता है अर्थात सब कुछ वासुदेव ही हैं- इस प्रकार मुझको भजता है। ऐसे महात्मा ( महान आत्मा ) वास्तव में अत्यन्त दुर्लभ है॥7.19॥

 

( ‘बहूनां जन्मनामन्ते’ मनुष्यजन्म सम्पूर्ण जन्मों का अन्तिम जन्म है। भगवान ने जीव को मनुष्यशरीर देकर उसे जन्म-मरण के प्रवाह से अलग होकर अपनी प्राप्ति का पूरा अधिकार दिया है परन्तु यह मनुष्य भगवान को प्राप्त न करके राग के कारण फिर पुराने प्रवाह में अर्थात् जन्म-मरण के चक्कर में चला जाता है। इसलिये भगवान् कहते हैं ‘अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि’ (गीता 9। 3)। जहाँ भगवान् आसुरी योनियों और नरकों के अधिकारियों का वर्णन करते हैं , वहाँ दुर्गुण-दुराचारों के कारण भगवत्प्राप्ति की सम्भावना न दिखने पर भी भगवान कहते हैं ‘मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्’ (गीता 16। 20) अर्थात् मेरे को प्राप्त किये बिना ही ये प्राणी अधम गति को चले गये अर्थात् वे मरने के बाद मनुष्ययोनि में भी चले जाते तो कम से कम मनुष्य तो रह जाते , पर वे मेरी प्राप्ति का पूरा अधिकार प्राप्त करके भी अधम गति को चले गये । संतों की वाणी में और शास्त्रों में आता है कि मनुष्यजन्म केवल अपना कल्याण करने के लिये मिला है , विषयों का सुख भोगने के लिये तथा स्वर्ग की प्राप्ति के लिये नहीं (टिप्पणी प0 422)। इसलिये गीता ने स्वर्ग की प्राप्ति चाहने वालों को मूढ़ और तुच्छ बुद्धि वाले कहा है ‘अविपश्चितः ‘(2। 42) और ‘अल्पमेधसाम्’ (7। 23)। यह मनुष्यजन्म सम्पूर्ण जन्मों का आदि जन्म भी है और अन्तिम जन्म भी है। सम्पूर्ण जन्मों का आरम्भ मनुष्यजन्म से ही होता है अर्थात् मनुष्यजन्म में किये हुए पाप चौरासी लाख योनियों और नरकों में भोगने पर भी समाप्त नहीं होते , बाकी ही रहते हैं । इसलिये यह सम्पूर्ण जन्मों का आदि जन्म है। मनुष्यजन्म में सम्पूर्ण पापों का नाश करके , सम्पूर्ण वासनाओं का नाश करके अपना कल्याण कर सकते हैं , भगवान को प्राप्त कर सकते हैं । इसलिये यह सम्पूर्ण जन्मों का अन्तिम जन्म है। भगवान ने 8वें अध्याय के छठे श्लोक में कहा है कि जो मनुष्य अन्त समय में जिस-जिस भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है , उस-उस भाव को ही वह प्राप्त होता है। इस तरह मनुष्य को जिस किसी भाव का स्मरण करने में जो स्वतन्त्रता दी गयी है , इससे मालूम होता है कि भगवान ने मनुष्य को पूरा अधिकार दिया है अर्थात् मनुष्य के उद्धार के लिये भगवान ने अपनी तरफ से यह अन्तिम जन्म दिया है। अब इसके आगे यह नये जन्म की तैयारी कर ले अथवा अपना उद्धार कर ले इसमें यह सर्वथा स्वतन्त्र है (टिप्पणी प0 423)। इस बात को लेकर गीता मनुष्यमात्र को परमात्म-प्राप्ति का अधिकारी मानती है और डंके की चोट के साथ खुले शब्दों में कहती है कि वर्तमान का दुराचारी से दुराचारी , पूर्वजन्म के पापों के कारण नीच योनि में जन्मा हुआ , पापयोनि और चारों वर्ण वाले स्त्री-पुरुष ये सभी भगवान का आश्रय लेकर परमगति को प्राप्त हो सकते हैं (गीता 9। 30 33)। गीता ने (9। 32 में) ऐसा विचित्र पापयोनि शब्द कहा है जिसमें शूद्र से भी नीचे कहे और माने जाने वाले चाण्डाल , यवन आदि तथा पशु-पक्षी , कीट-पतंग , वृक्ष-लता आदि सभी लिये जा सकते हैं। हाँ यह बात अलग है कि पशु-पक्षी आदि मनुष्येतर प्राणियों में परमात्मा की तरफ चलने की योग्यता नहीं है परन्तु परमात्मा के अंश होने से उनके लिये परमात्मा की तरफ से मना नहीं है। उनमें से बहुत से प्राणी भगवान और संत-महापुरुषों की कृपा से तथा तीर्थ और भगवद्धाम के प्रभाव से परमगति को प्राप्त हो जाते हैं। देवता भोगयोनि हैं । वे भोगों में ही लगे रहते हैं । इसलिये उनको अपना उद्धार करना है , ऐसा विचार नहीं होता परन्तु वे अगर किसी कारण से भगवान की तरफ लग जायँ तो उनका भी उद्धार हो जाता है। इन्द्र को भी ज्ञान प्राप्त हुआ था । ऐसा शास्त्रों में आता है। भगवान की तरफ से मनुष्यमात्र का जन्म अन्तिम जन्म है। कारण कि भगवान का यह संकल्प है कि मेरे दिये हुए इस शरीर से यह अपना कल्याण कर ले। अतः यह अपना कोई संकल्प न रखकर केवल निमित्तमात्र बन जाय तो भगवान के संकल्प से इसका कल्याण हो जाय। जैसे 11वें अध्याय के 34वें श्लोक में भगवान ने अर्जुन से कहा है कि मेरे द्वारा मारे हुए को ही तू मार दे ‘मया हतांस्त्वं जहि।’ तू चिन्ता मत कर ‘मा व्यथिष्ठाः।’ तू युद्ध कर , तेरी विजय होगी ‘युध्यस्व जेतासि।’ इसी तरह से भगवान ने कृपा करके मनुष्य-शरीर दिया है। अगर मनुष्य भगवान से विमुख होकर संसार के राग में न फँसे तो भगवान के उस संकल्प से वह अनायास ही मुक्त हो जाय , मोक्ष प्राप्त कर जाये। भगवान का संकल्प ऐसा नहीं है कि साधक की इच्छा के बिना उसका कल्याण हो जाय अर्थात् जैसे शाप या वरदान दिया जाता है , वैसा यह संकल्प नहीं है। तो फिर कैसा है यह संकल्प ? भगवान में मनुष्य को अपना कल्याण करने की स्वतन्त्रता इन मनुष्य जन्म में दी है। अगर यह प्राणी उस स्वतन्त्रता का दुरुपयोग न करे अर्थात् भगवान् और शास्त्रों से विपरीत न चले , कम से कम अपने विवेक के विरुद्ध न चले तो उससे भगवान और शास्त्रों के अनुकूल चलना स्वाभाविक होगा। कारण कि भगवान और शास्त्रों से विपरीत न चलने पर दो अवस्थाओं में से एक अवस्था स्वाभाविक होगी । या तो वह शरीर, इन्द्रियों , मन और बुद्धि से कुछ नहीं करेगा या केवल भगवान और शास्त्रके अनुकूल ही करेगा।कुछ नहीं करने की अवस्था में अर्थात् कुछ करने की रुचि न रहने की अवस्था में मन , बुद्धि , इन्द्रियों आदि के साथ सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। कारण कि कुछ न कुछ करने की इच्छा से ही कर्तृत्वाभिमान उत्पन्न होकर अन्तःकरण और इन्द्रियों के साथ सम्बन्ध जुड़ता है और अपने लिये करने से फल के साथ सम्बन्ध जुड़ता है। कुछ भी न करने से न कर्तृत्व-अभिमान होगा और न फलेच्छा ( फल की इच्छा ) होगी बल्कि स्वरूप में स्वतः स्थिति होगी। शास्त्र की आज्ञा के अनुसार निष्कामभावपूर्वक कर्म करने की अवस्था में करने का प्रवाह मिट जाता है और क्रिया तथा पदार्थ से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। क्रिया और पदार्थ से सम्बन्ध-विच्छेद होने से नयी कामना होगी नहीं और पुराना राग मिट जायगा तो स्वतः बोध हो जायगा ‘तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति’ (गीता 4। 32)। गीता में आया है निष्कामभाव से विधिपूर्वक अपने कर्तव्य-कर्म का पालन किया जाय तो अनादिकाल से बने हुए सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं (4। 23)। ज्ञानयोग से मनुष्य सम्पूर्ण पापों से तर जाता है (4। 36)। भगवान भक्त को सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर देते हैं (18। 66)। जो भगवान को  अज-अनादि जानता है , वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है (10। 3)। इस प्रकार कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग तीनों योगों से पाप नष्ट हो जाते हैं। तात्पर्य यह निकला कि अन्तिम मनुष्यजन्म केवल कल्याण के लिये ही मिला है। मनुष्यजन्म में सत्सङ्ग मिल जाय , गीता जैसे ग्रन्थ से परिचय हो जाय , भगवन्नाम से परिचय हो जाय तो साधक को यह समझना चाहिये कि भगवान ने बहुत विशेषता से कृपा कर दी है । अतः अब तो हमारा उद्धार होगा ही । अब आगे हमारा जन्म-मरण नहीं होगा। कारण कि अगर हमारा उद्धार नहीं होना होता तो ऐसा मौका नहीं मिलता परन्तु भगवान की कृपा से उद्धार होगा ही , इसके भरोसे साधन नहीं छोड़ना चाहिये बल्कि तत्परता और उत्साहपूर्वक साधन में लगे रहना चाहिये। समय सार्थक बने , कोई समय खाली न जाय , ऐसी सावधानी हरदम रखनी चाहिये परन्तु अपने कल्याण की चिन्ता नहीं करनी चाहिये क्योंकि अब तक जिसने इतना प्रबन्ध किया है वही आगे भी करेगा। जैसे किसी ने भोजन के लिये निमन्त्रण दे दिया , आसन बिछा दिया , आसन पर बैठा दिया , पत्तल दे दी , लोटे में जल भरकर पास में रख दिया। अब कोई चिन्ता करे कि यह व्यक्ति भोजन देगा कि नहीं देगा तो यह बिलकुल गलती की बात है। कारण कि अगर भोजन नहीं देना होता तो वह निमन्त्रण क्यों देता ? भोजन की तैयारी क्यों करता ? परन्तु जब उसने निमन्त्रण दिया है , बुलाया है , तैयारी की है , तब उसको भोजन देना ही पड़ेगा। हम भोजन की चिन्ता क्यों करें ? अब तो बस ज्यों-ज्यों भोजन के पदार्थ आयें त्यों-त्यों उनको पाते जाएं। ऐसे ही भगवान ने हमको मनुष्य-शरीर दिया है और उद्धा रकी सब सामग्री (सत्सङ्ग , भगवन्नाम आदि ) जुटा दी है तो हमारा उद्धार होगा ही । अब तो हम संसारसमुद्र के किनारे आ गये हैं , ऐसा दृढ़ विश्वास करके निमित्तमात्र बनकर साधन करना चाहिये। जिसके पूर्वजन्मों के पुण्य होते हैं वही भगवान की तरफ चल सकता है । अगर ऐसा माना जाय तो पूर्वजन्मों के पाप-पुण्यों का फल तो पशु-पक्षी कीट-पतंग आदि योनि वाले प्राणी भोगते ही हैं । फिर मनुष्य में और उन प्राणियों में क्या फरक रहेगा ? भगवान का कृपा करके मनुष्यशरीर देना कहाँ सार्थक होगा ? तथा मनुष्यजन्म की विलक्षणता , महिमा क्या होगी ? मनुष्यजन्म की महिमा तो इसी में है कि मनुष्य भगवान का आश्रय लेकर अपने कल्याण के मार्ग में लग जाय (टिप्पणी प0 424.1)।’वासुदेवः सर्वम्’ (टिप्पणी प0 424.2) महासर्ग के आदि में एक भगवान् ही अनेक रूपों में हो जाते हैं । ‘सदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति ‘ (छान्दोग्य0 6। 2। 3) और अन्त में अर्थात् महाप्रलय में एक भगवान ही शेष रह जाते हैं ‘शिष्यते शेषसंज्ञः’ (श्रीमद्भा0 10। 3। 25)। इस प्रकार जब आदि और अन्त में एक भगवान ही रहते हैं तब बीच में दूसरा कहाँ से आया ? क्योंकि संसार की रचना करने में भगवान के पास अपने सिवाय कोई सामग्री नहीं थी । वे तो स्वयं संसार के रूप से प्रकट हुए हैं। इसलिये यह सब वासुदेव ही है। जो चीज आदि और अन्त में होती है , वही चीज मध्य में भी होती है। जैसे सोने के गहने आदि में सोना थे और अन्त में सोना रहेंगे तो गहनों में दूसरी चीज कहाँ से आयेगी ? केवल सोना ही सोना है। मिट्टी से बनने वाले बर्तन पहले मिट्टी थे और अन्त में मिट्टी हो जायँगे तो बीच में मिट्टी के सिवाय क्या है ? केवल मिट्टी ही मिट्टी है। खाँड़ से बने हुए खिलौने पहले खाँड़ थे और अन्त में खाँड़ ही हो जायँगे तो बीच में खाँड़ के सिवाय क्या है ? केवल खाँड़ ही खाँड़ है। इसी तरह सृष्टि के पहले भगवान थे और अन्त में भगवान ही रहेंगे तो बीच में भगवान के सिवाय क्या है ? केवल भगवान ही भगवान हैं। जैसे सोने को चाहे गहनों के रूप में देखें , चाहे पासे के रूप में देखें , चाहे वर्क के रूप में देखें , है वह सोना ही। ऐसे ही संसार में अनेक रूपों में , अनेक आकृतियों में एक भगवान ही हैं।जब तक मनुष्य की दृष्टि गहनों की तरफ , उसकी आकृतियों की तरफ रहती है , उसी को महत्त्व देती है । तब तक यह सोना ही है , इस तरफ उसकी दृष्टि नहीं जाती। ऐसे ही जबतक मनुष्यकी दृष्टि संसारकी तरफ रहती है उसीको महत्त्व देती है तबतक सब कुछ भगवान् ही हैं इस तरफ उसकी दृष्टि नहीं जाती परन्तु जब गहनों की तरफ दृष्टि नहीं रहती तब गहनों में सोने की भावना नहीं होती बल्कि यह सोना ही है ऐसी भावना होती है। ऐसे ही जब संसार की तरफ दृष्टि नहीं रहती , तब संसार में भगवान की भावना नहीं होती बल्कि सब कुछ भगवान ही हैं , भगवान के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं , ऐसी भावना होती है। कारण कि संसार में भगवान की भावना करने से संसार की सत्ता साथ में रहती है अर्थात् संसार की भावना रखते हुए , उसकी सत्ता मानते हुए , उसमें भगवान की भावना करते हैं। अतः जब तक संसार की सत्ता मानते हैं , संसार को महत्त्व देते हैं , तब तक संसार में भगवान की भावना करते रहने पर भी ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव नहीं होता। ब्रह्मभूत मनुष्य निर्वाण ब्रह्म को प्राप्त होता है (5। 24) ब्रह्मभूत योगी को उत्तम सुख मिलता है (6। 27) ब्रह्मभूत भगवान की  पराभक्ति को प्राप्त होता है और उस भक्ति से तत्त्व को जानकर उसमें प्रवेश करता है (18। 54 55) गीता की दृष्टि से ये तीनों ही अवस्थाएँ हैं। अवस्थाओं में परिवर्तन होता है परन्तु ‘वासुदेवः सर्वम्’ यह अवस्था नहीं है बल्कि वास्तविक तत्त्व है। इसमें कभी परिवर्तन नहीं होता। यह जो कुछ संसार दिखता है सब भगवान का ही स्वरूप है। भगवान के सिवाय इस संसार की स्वतन्त्र सत्ता थी नहीं , है नहीं और कभी होगी भी नहीं। अतः देखने , सुनने और समझने में जो कुछ संसार आता है , वह सब का सब भगवत्स्वरूप ही है। भगवान की  आज्ञा है ‘मनसा वचसा दृष्ट्या गृह्यतेऽन्यैरपीन्द्रियैः। अहमेव न मत्तोऽन्यदिति बुध्यध्वमञ्जसा।।'(श्रीमद्भा0 11। 13। 24) मन से ,वाणी से , दृष्टिसे तथा अन्य इन्द्रियों से भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है वह सब मैं ही हूँ। मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है। यह सिद्धान्त आप लोग विचारपूर्वक समझ लीजिये। इस आज्ञा के अनुसार ही उस ज्ञानी अर्थात् प्रेमी का जीवन हो जाता है। वह सब जगह भगवान को ही देखता है ‘यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति’ (गीता 6। 30)। वह सब कुछ करता हुआ भी भगवान में ही रहता है ‘सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते’ (गीता 6। 31)। किसी को एक जगह भी अपनी प्रिय वस्तु मिल जाती है तो उसको बड़ी प्रसन्नता होती है । फिर जिसको सब जगह ही अपने प्यारे इष्टदेव का अनुभव होता है (टिप्पणी प0 425) तो फिर उसकी प्रसन्नता का , आनन्द का क्या ठिकाना ? उस आनन्द में विभोर होकर भगवान का प्रेमी भक्त कभी हँसता है , कभी रोता है , कभी नाचता है और कभी चुप होकर शान्त हो जाता है (टिप्पणी प0 426)। इस तरह उसका जीवन अलौकिक आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है। फिर उसके लिये कुछ भी करना , जानना और पाना बाकी नहीं रहता। वह सर्वथा पूर्ण हो जाता है अर्थात् उसके लिये किसी भी अवस्था में , किसी भी परिस्थिति में , कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता। जो भक्तिमार्ग पर चलता है वह यह ‘सत्’ है और यह ‘असत्’ है इस विवेक को लेकर नहीं चलता। उसमें विवेक-ज्ञान की प्रधानता नहीं रहती। उसमें केवल भगवद्भाव की ही प्रधानता रहती है। केवल भगवद्भाव की प्रधानता रहने के कारण उसके लिये यह सब संसार चिन्मय हो जाता है। उसकी दृष्टि में जडता रहती ही नहीं। भगवान में तल्लीनता होने से भक्त का शरीर भी जड नहीं रहता बल्कि चिन्मय हो जाता है जैसे मीराबाई का शरीर (चिन्मय होने से) भगवान के विग्रह में लीन हो गया था। ज्ञानमार्ग में जहाँ सत् – असत का विवेक होता है , वहाँ परिणाम में सत् – असत दो की सत्ता नहीं रहती केवल सत् स्वरूप ही रह जाता है परन्तु भक्तिमार्ग में सत् – असत सब कुछ भगवत्स्वरूप ही हो जाता है। फिर भक्त भगवत्स्वरूप संसार की सेवा करता है। सेवा में पहले तो सेवा , सेवक और सेव्य ये तीन होते हैं परन्तु जब भगवद्भाव की अत्यधिक गाढ़ता हो जाती है तब सेवक भाव की विस्मृति हो जाती है। फिर भक्त स्वयं सेवारूप होकर सेव्य में लीन हो जाता है। केवल एक भगवत्तत्त्व ही शेष रह जाता है। इस तरह भगवद्भाव में तल्लीन हुए भगवान के प्रेमी भक्त जहाँ कहीं भी विचरते हैं , वहाँ उनके दर्शन , स्पर्श , भाषण आदि का प्राणियों पर बड़ा असर पड़ता है। जब तक मनुष्यों की पदार्थों में भोगबुद्धि रहती है , तब तक उनको उन पदार्थों का वास्तविक स्वरूप समझ में नहीं आता परन्तु जब भोगबुद्धि सर्वथा हट जाती है , तब केवल भगवत्स्वरूप ही देखने में आ जाता है। मार्मिक बात – ‘वासुदेवः सर्वम्’ इस तत्त्व को समझने के दो प्रकार हैं (1) संसार का अभाव करके परमात्मा को रखना अर्थात् संसार नहीं है और परमात्मा है (2) सब कुछ भगवान ही भगवान हैं। इसमें जो परिवर्तन दिखता है , वह भी भगवान का ही स्वरूप है क्योंकि भगवान के सिवाय उसकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उपर्युक्त दोनों ही प्रकार साधकों के लिये हैं। जिस साधक का पदार्थों को लेकर संसार में आकर्षण (राग ) है उसको यह सब कुछ नहीं है , केवल परमात्मा ही है इस प्रणाली को अपनाना चाहिये। जिस साधक का पदार्थों को लेकर संसार में किञ्चिन्मात्र भी आकर्षण नहीं है और जो केवल भगवान के  स्मरण , चिन्तन , जप , कीर्तन आदि में लगा रहता है , उसको संसाररूप से सब कुछ भगवान ही हैं , इस प्रणाली को अपनाना चाहिये। वास्तव में देखा जाय तो ये दोनों प्रणालियाँ तत्त्व से एक ही हैं। इन दोनों में फरक इतना ही है कि जैसे सोने में गहने और गहनों के नाम , रूप , आकृति आदि अलग-अलग होते हुए भी सब कुछ सोना ही सोना जानना। जहाँ पर संसार का अभाव करके परमात्मा को तत्त्व से जानना है , वहाँ विवेक की प्रधानता है और जहाँ संसार को भगवत्स्वरूप मानना है , वहाँ भाव की प्रधानता है। निर्गुण के उपासकों में विवेक की प्रधानता होती है और सगुण के उपासकों में भाव की प्रधानता होती है। संसार का अभाव करके परमात्मतत्त्व को जानना भी तत्त्व से जानना है और संसार को भगवत्स्वरूप मानना भी तत्त्व से जानना है। कारण कि वास्तव में तत्त्व एक ही है। फरक इतना ही है कि ज्ञानमार्ग में जानने की प्रधानता रहती है और भक्तिमार्ग में मानने की प्रधानता रहती है। इसलिये भगवान ने ज्ञानमार्ग में मानने को भी जानने के अर्थमें लिया है ‘इति मत्वा न सज्जते’ (गीता 3। 28) और भक्तिमार्ग में जानने को भी मानने के अर्थ में लिया है (5। 29 9। 13 10। 3 7 24 27 41)। इसमें एक खास बात समझने की है कि परमात्मा को जानना और मानना दोनों ही ज्ञान हैं तथा संसार को सत्ता देकर संसार को जानना और मानना दोनों ही अज्ञान हैं। संसार को तत्त्व से जानने पर संसार की स्वतन्त्र सत्ता का अभाव हो जाता है और परमात्मा को तत्त्व से जानने पर , परमात्मा का अनुभव हो जाता है। ऐसे ही संसार भगवत्स्वरूप है , ऐसा दृढ़ता से मानने पर संसार की स्वतन्त्र सत्ता का अभाव हो जाता है और फिर संसाररूप से न दिखकर भगवत्स्वरूप दिखने लग जाता है। तात्पर्य है कि परमात्मतत्त्व का अनुभव होने पर जानना और मानना दोनों एक हो जाते हैं। ‘इति ज्ञानवान्मां प्रपद्यते’ जो प्रतिक्षण बदलने वाले संसार की सत्ता को मानते हैं , वे अज्ञानी हैं , मूढ़ हैं परन्तु जिनकी दृष्टि कभी न बदलने वाले भगवत्तत्त्व की तरफ रहती है , वे ज्ञानवान् हैं , असम्मूढ़ हैं। ज्ञानवान् कहने का तात्पर्य है कि वह तत्त्व से समझता है कि सब जगह , सब में और सबके रूप में वस्तुतः एक भगवान ही हैं। ऐसे ज्ञानवान को ही आगे 15वें अध्याय के 19वें श्लोक में ‘सर्ववित्’ कहा गया है। ज्ञानवान की शरणागति अर्थार्थी , आर्त और जिज्ञासु भक्तों की तरह नहीं है। भगवान ने ज्ञानी को अपनी आत्मा बताया है ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता 7। 18)। जब ज्ञानी भगवान की आत्मा हुआ तो ज्ञानी की आत्मा भगवान हुए। अतः एक भगवत्तत्त्व के सिवाय दूसरी सत्ता ही नहीं रही। इसलिये ज्ञानी की शरणागति उन तीनों भक्तों से विलक्षण होती है। उसके अनुभव में एक भगवत्तत्त्व के सिवाय कोई दूसरी सत्ता होती ही नहीं , यही उसकी शरणागति है। भगवान की दृष्टि में अपने सिवाय कोई अन्य तत्त्व है ही नहीं ‘मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव’ (गीता 7। 7)। जैसे सूत की माला में मणियों की जगह सूत की गाँठ लगा दी तो माला में सूत के सिवाय अन्य क्या रहा ? केवल सूत ही रहा। हाँ , दिखने में गाँठ अलग दिखती हैं और धागा अलग दिखता है परन्तु तत्त्व से एक ही चीज (सूत) है। ऐसे ही परमात्मा संसार में व्यापक दिखते हैं परन्तु तत्त्व से परमात्मा और संसार एक ही है। उनमें व्याप्य-व्यापक का भाव नहीं है। अतः सब कुछ एक वासुदेव ही है , ऐसा जिसको अनुभव होता है , वह भी भगवत्स्वरूप ही हुआ। भगवत्स्वरूप हो जाना ही उसकी शरणागति है। ‘स महात्मा सुदुर्लभः ‘ बहुत से मनुष्य तो हमें परमात्मा की प्राप्ति करनी है , इस तरफ दृष्टि ही नहीं डालते और ऐसा चाहते ही नहीं। जो इस तरफ दृष्टि डालते हैं वे भी उत्कण्ठापूर्वक अनन्यभाव से अपने जीवन को सफल करने में नहीं लगते। जो अपना कल्याण करने में लगते हैं , वे भी मूर्खता के कारण परमात्मप्राप्ति से निराश होकर अपने असली अवसर को खो देते हैं , जिससे वे परम लाभ से वञ्चित रह जाते हैं। इसी अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान ने कहा है कि मनुष्यों में हजारों और हजारों में कोई एक मनुष्य वास्तविक सिद्धि के लिये यत्न करता है। यत्न करने वाले उन सिद्धों में भी कोई एक मनुष्य ‘सब कुछ वासुदेव ही है ‘ ऐसा तत्त्वसे जानता है। ऐसा तत्त्व से जानने वाला महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि परमात्मा दुर्लभ हैं बल्कि सच्चे हृदय से परमात्मप्राप्ति के लिये लगने वाले दुर्लभ हैं। सच्चे हृदय से परमात्मप्राप्ति के लिये लगने पर मनुष्यमात्र को परमात्मप्राप्ति हो सकती है क्योंकि उसकी प्राप्ति के लिये ही मनुष्यशरीर मिला है। संसार में सब के सब मनुष्य धनी नहीं हो सकते। सांसारिक भोगसामग्री सबको समान रीति से नहीं मिल सकती परन्तु जो परमात्मतत्त्व भगवान् शंकर को प्राप्त है , सनकादिकों को प्राप्त है , नारद , वसिष्ठ आदि देवर्षि-महर्षियों को प्राप्त है , वही तत्त्व सब मनुष्यों को समानरूप से अवश्य प्राप्त हो सकता है। इसलिये मनुष्य को ऐसा दुर्लभ अवसर कभी नहीं खोना चाहिये। भगवान की यह एक अलौकिक विलक्षणता है कि वे भूखे के लिये अन्नरूप से , प्यासे के लिये जलरूप से और विषयी के लिये शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्धरूप से बनकर आते हैं। वे ही मन , बुद्धि , इन्द्रियाँ बनकर आते हैं। वे ही संकल्प-विकल्प बनकर आते हैं। वे ही व्यक्ति बनकर आते हैं परन्तु साथ ही साथ दुःखरूप से आकर मनुष्य को चेताते हैं कि अगर तुम इन वस्तुओं को भोग्य मानकर इनके भोक्ता बनोगे तो इसके फलस्वरूप तुमको दुःख ही दुःख भोगना पड़ेगा। इसलिये मनुष्य को शर्म आनी चाहिये कि मैं भगवान को भोगसामग्री बनाता हूँ । मेरे सुख के लिये भगवान को सुख की सामग्री बनना पड़ता है । भगवान कितने विचित्र दयालु हैं कि यह प्राणी जो चाहता है भगवान वैसे ही बन जाते हैं । देखने , सुनने और समझने में जो कुछ आ रहा है और जो मन , बुद्धि , इन्द्रियों का विषय नहीं है वह सब भगवान ही हैं और भगवान का ही है , ऐसा मान ले , वास्तविकता से अनुभव कर ले तो मनुष्य विलक्षण हो जाता है , ‘स महात्मा सुदुर्लभः’ हो जाता है। एक वैरागी बाबाजी थे। वे गणेशजी का पूजन किया करते थे। उनके पास सोने की बनी हुई एक गणेशजी की और एक चूहे की मूर्ति थी। वे दोनों मूर्तियाँ तौल में बराबर थीं। एक बार बाबाजी ने तीर्थों में जाने का विचार किया और वे उन मूर्तियों की बिक्री करने के लिये सुनार के पास गये। सुनार ने उन दोनों मूर्तियों को तौलकर दोनों के बराबर दाम बता दिये तो बाबाजी सुनार पर बिगड़ गये कि तू क्या कह रहा है ? गणेशजी तो देवता हैं और चूहा उनका वाहन है पर तू दोनों का बराबर मूल्य बता रहा है । यह कैसे हो सकता है ? सुनार बोला कि बाबाजी मैं गणेश और चूहे को नहीं खरीदता हूँ । मैं तो सोना खरीदता हूँ । सोने का जितना वजन होगा उसके अनुसार ही उसका मूल्य होगा। अगर सुनार गणेश और चूहे को देखेगा तो उसको सोना नहीं दिखेगा और अगर सोने को देखेगा तो उसको गणेश और चूहा नहीं दिखेगा । इसलिये सुनार न गणेश को देखता है न चूहे को । वह तो केवल सोने को ही देखता है। ऐसे ही भगवान के साथ अभिन्न हुआ महात्मा संसार को नहीं देखता । वह तो केवल भगवान को ही देखता है। कोई एक सन्त रास्ते में चलते-चलते किसी खेत में लघुशङ्का करनेको बैठे। उस खेत के मालिक ने उनको देखा तो मतीरा (तरबूजा) चुराने वाला यही आदमी है ऐसा समझकर पीछे से आकर उनके सिर पर लाठी मार दी। फिर देखा कि ये तो कोई बाबाजी हैं । अतः हाथ जोड़कर बोला महाराज मैंने आपको जाना नहीं और चोर समझकर लाठी मार दी , इसलिये महाराज मुझे माफ करो। सन्त ने कहा माफ क्या करना , तूने मेरे को तो मारा नहीं , तूने तो चोरको मारा है। उसने कहा अब क्या करूँ महाराज ? सन्त ने कहा तेरी जैसी मरजी हो वैसे कर। उसने सन्त को बैलगाड़ी में ले जाकर अस्पताल में भरती कर दिया। वहाँ मलहमपट्टी करने के बाद कोई आदमी दूध लेकर आया और बोला महाराज दूध पी लो। सन्त ने कहा तू ब़ड़ा चालाक , होशियार है। तेरे विचित्र-विचित्र रूप हैं। तू विचित्र-विचित्र लीलाएँ करता है। पहले तो तूने लाठी से मारा और अब कहता है दूध पी लो । वह आदमी डर गया और कहने लगा बाबाजी मैंने नहीं मारा है। सन्त बोले बिलकुल झूठी बात है। मैं पहचानता हूँ तू ही था। तूने ही मारा है। तेरे सिवाय और कौन आये ? कहाँ से आये ?और कैसे आये ? पहले तो मारा लाठी से और अब आया दूध पिलाने । मैं दूध पी लूँगा पर था तू ही। इस तरह बाबाजी तो अपनी ‘वासुदेवः सर्वम्’ वाली भाषा में बोल रहे थे और वह सोच रहा था कि बाबाजी कहीं फँसा न दें । तात्पर्य यह है कि सन्त केवल भगवान को ही देखते हैं कि लाठी मारने वाला , मरहमपट्टी करने वाला , दूध पिलाने वाला सब वह ही है। महात्माओं की महिमा जहाँ सन्त-महात्माओं का वर्णन आता है वहाँ कहा गया है (1) जो उँचे दर्जे के तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुष होते हैं , वे अभिन्न भाव और अखण्डरूप से केवल अपने स्वरूप में अथवा भगवत्तत्त्व में स्थित रहते हैं। उनके जीवन से , उनके दर्शन से , उनके चिन्तन से , उनके शरीर का स्पर्श की हुई वायु के स्पर्श से जीवों का कल्याण होता रहता है। (2) जो मनुष्य उन महापुरुषों की महिमा को नहीं जानते , उनके सामने वे महापुरुष अपने भावों से नीचे उतरते हैं तो कुछ कह देते हैं जैसे सन्त-महात्माओं ने ऐसा किया है , उनके किये हुए आचरणों और कहे हुए वचनों के अनुसार ही शास्त्र बनते हैं आदि। (3) जब वे इससे भी नीचे उतरते हैं तो कह देते हैं कि सन्त-महात्माओं की आज्ञा का पालन करना चाहिये। (4) जिनसे उपर्युक्त बात का पालन नहीं होता , उन साधकों के सामने वे स्वयं ऐसा विधान कर देते हैं कि ऐसा करना चाहिये , ऐसा नहीं करना चाहिये। (5) जब वे इससे भी नीचे उतरते हैं तो ऐसा करो और ऐसा मत करो , ऐसी आज्ञा दे देते हैं। सन्तों की आज्ञा में जो सिद्धान्त भरा हुआ है वह आज्ञापालक में उतर आता है। उनकी आज्ञापालन के बिना भी उनके सिद्धान्त का पालन करने वालों का कल्याण हो जाता है परन्तु वे महात्मा आज्ञा के रूप में जिसको जो कुछ कह देते हैं उसमें एक विलक्षण शक्ति आ जाती है। आज्ञापालन करने वाले को कोई परिश्रम नहीं पड़ता और उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक वैसे आचरण होने लगते हैं। (6) जो उनकी आज्ञा का पालन नहीं करते , ऐसे नीच दर्जे के साधकों को वे कहीं-कहीं , कभी-कभी शाप या वरदान दे देते हैं। इस परम्परा में देखा जाय तो (1) जो कुछ नहीं करते निरन्तर अपने स्वरूप में ही स्थित रहते हैं , यह उन सन्त-महापुरुषों का ऊँचा दर्जा हो गया (2) शास्त्रों ने ऐसा कहा सन्त-महात्माओं ने ऐसा किया , इस तरह संकेत करने से उन सन्तों का दूसरा दर्जा हो गया (3) सन्तमहात्माओं की आज्ञा पालन करना चाहिये , ऐसा कहने से सन्तों का तीसरा दर्जा हो गया (4) ऐसा करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये , इस तरह का विधान करने से उन सन्तों का चौथा दर्जा हो गया (5) तुम ऐसा करो और ऐसा मत करो , ऐसा कहना उन सन्तों के पाँचवें दर्जे की बात हो गयी (6) शाप और वरदान देना उन सन्तों के छठे दर्जे की बात हो गयी। इन सब दर्जों में सन्तमहापुरुषों का जो नीचे उतरना है उसमें उनकी क्रमशः अधिकाधिक दयालुता है। वे शाप और वरदान दे दें , ताड़ना कर दें , इसमें उन सन्तों का दर्जा तो नीचे हुआ पर इसमें उनका अत्यधिक त्याग है। कारण कि उन्होंने जीवों के उद्धार के लिये ही नीचा दर्जा स्वीकार कर लिया है। इसमें उनका लेशमात्र भी अपना स्वार्थ नहीं है।ऐसे ही भगवान भी अपने स्वरूप में नित्य-निरन्तर स्थित रहते हैं । यह उनके ऊँचे दर्जे की बात है परन्तु वे ही भगवान् अत्यधिक कृपालुता के कारण कृपा के परवश होकर जीवों का उद्धार करने के लिये अवतार लेकर आदर्श लीला करते हैं। उनकी लीलाओं को देखने-सुनने से लोगों का उद्धार होता है। भगवान और भी नीचे उतरते हैं तो उपदेश देते हैं। उससे भी नीचे उतरते हैं तो आज्ञा दे देते हैं। और भी नीचे उतरते हैं तो शासन करके लोगों को सही रास्ते पर लाते हैं। उससे भी नीचे उतरते हैं तो शाप और वरदान दे देते हैं अथवा उसके और संसार के हित के लिये उसका शरीर से वियोग भी करा देते हैं। जो भगवान की महत्ता को समझकर भगवान की शरण होते हैं , ऐसे भक्तों का वर्णन 16वें से 19वें श्लोक तक करने के बाद अब भगवान आगे के तीन श्लोकों में देवताओं के शरण होने वाले मनुष्यों का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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