Bhagavat gita chapter 7

 

 

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अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग

दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग

 

24-30 भगवान के प्रभाव और स्वरूप को न जानने वालों की निंदा और जानने वालों की महिमा

 

 

Bhagavat gita chapter 7साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥7.30॥

 

स-अधिभूत-प्राकृतिक तत्त्वों को चलाने वाले सिद्धान्त; अधिदैवम् – समस्त देवताओं को नियन्त्रित करने वाले सिद्धान्त; माम्-मुझको; स-अधियज्ञम् समस्त यज्ञों को सम्पन्न करने वाले सिद्धान्त का नियामक भगवान; च-और; ये-जो; विदुः-जानते हैं; प्रयाण-मृत्यु के; काले-समय में; अपि-भी; च-तथा; माम्-मुझको; ते–वे; विदुः-जानना; युक्तचेतसः-जिनकी चेतना पूर्णतया मुझमें है।

 

जो मनुष्य अधिभूत ( प्रकृति के तत्त्व के सिद्धान्त ) , अधिदैव ( देवतागण ) तथा अधियज्ञ ( यज्ञों के नियामक ) के रूप में मुझे जानते हैं , ऐसी प्रबुद्ध आत्माएँ सदैव यहाँ तक कि अपनी मृत्यु के समय भी मेरी पूर्ण चेतना में लीन रहती हैं अर्थात जो मुझे अन्तकाल में भी जानते हैं, वे युक्तचित्तवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त हो जाते हैं॥7.30॥

 

(‘साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ‘ [पूर्वश्लोकमें निर्गुण-निराकार को जानने का वर्णन करके अब सगुण-साकार को जानने की बात कहते हैं।] यहाँ अधिभूत नाम भौतिक स्थूल सृष्टि का है जिसमें तमोगुण की प्रधानता है। जितनी भी भौतिक सृष्टि है उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उसका क्षणमात्र भी स्थायित्व नहीं है। फिर भी यह भौतिक सृष्टि सत्य दिखती  है अर्थात् इसमें सत्यता , स्थिरता , सुखरूपता , श्रेष्ठता और आकर्षण दिखता है। यह सत्यता आदि सब के सब वास्तव में भगवान के ही हैं , क्षणभङ्गुर संसार के नहीं। तात्पर्य है कि जैसे बर्फ की सत्ता जल के बिना नहीं हो सकती । ऐसे ही भौतिक स्थूल सृष्टि अर्थात् अधिभूत की सत्ता भगवान के बिना नहीं हो सकती। इस प्रकार तत्त्व से यह संसार भगवत्स्वरूप ही है , ऐसा जानना ही अधिभूत के सहित भगवान को जानना है। ‘अधिदैव’ नाम सृष्टि की रचना करने वाले हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी  का है जिनमें रजोगुणकी प्रधानता है। भगवान् ही ब्रह्माजी के रूप में प्रकट होते हैं अर्थात् तत्त्व से ब्रह्माजी भगवत्स्वरूप ही हैं । ऐसा जानना ही अधिदैव के सहित भगवान को जानना है। अधियज्ञ नाम भगवान विष्णु का है जो अन्तर्यामीरूप से सबमें व्याप्त हैं और जिनमें सत्त्वगुण की प्रधानता है। तत्त्व से भगवान् ही अन्तर्यामीरूप से सबमें परिपूर्ण हैं ,  ऐसा जानना ही अधियज्ञ के सहित भगवान को जानना है। अधिभूत ,अधिदैव और अधियज्ञ के सहित भगवान को जानने का तात्पर्य है कि भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर के किसी एक अंश में विराट रूप है (गीता 10। 42 11। 7) और उस विराट रूप में अधिभूत (अनन्त ब्रह्माण्ड), अधिदैव (ब्रह्माजी) और अधियज्ञ (विष्णु) आदि सभी हैं । जैसा कि अर्जुन ने कहा है कि हे देव ! मैं आपके शरीर में सम्पूर्ण प्राणियों को जिनकी नाभि से कमल निकला है उन विष्णु को कमल पर विराजमान ब्रह्म को और शंकर आदि को देख रहा हूँ (गीता 11। 15)। अतः तत्त्व से अधिभूत , अधिदैव और अधियज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। श्रीकृष्ण ही समग्र भगवान् हैं। ‘प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ‘ जो संसार के भोगों और संग्रह की प्राप्ति-अप्राप्ति में समान रहनेवाले हैं तथा संसार से सर्वथा उपरत होकर भगवान में लगे हुए हैं वे पुरुष युक्तचेता हैं। ऐसे युक्तचेता मनुष्य अन्तकाल में भी मेरे को ही जानते हैं अर्थात् अन्तकाल की पीड़ा आदि में भी वे मेरे में ही अटलरूप से स्थित रहते हैं। उनकी ऐसी दृढ़ स्थिति होती है कि वे स्थूल और सूक्ष्मशरीर में कितनी ही हलचल होने पर भी कभी किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं होते। भगवान के समग्ररूपसम्बन्धी विशेष बात (1)प्रकृति और प्रकृति के कार्य क्रिया पदार्थ आदि के साथ अपना सम्बन्ध मानने से ही सभी विकार पैदा होते हैं और उन क्रिया , पदार्थ आदि की प्रकटरूप से सत्ता दिखने लग जाती है परन्तु प्रकृति और प्रकृति के कार्य से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद करके भगवत्स्वरूप में स्थित होने से उनकी स्वतन्त्र सत्ता उस भगवत्तत्त्व में ही लीन हो जाती है। फिर उनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं दिखती। जैसे किसी व्यक्ति के विषय में हमारी जो अच्छे और बुरे की मान्यता है वह मान्यता हमारी ही की हुई है। तत्त्व से तो वह व्यक्ति भगवान का स्वरूप है अर्थात् उस व्यक्ति में तत्त्व के सिवाय दूसरा कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व ही नहीं है। ऐसे ही संसार में यह ठीक है , यह बेठीक है । इस प्रकार ठीक-बेठीक की मान्यता हमारी ही की हुई है। तत्त्व से तो संसार भगवान का स्वरूप ही है। हाँ , संसार में जो वर्णआश्रम की मर्यादा है ऐसा काम करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये यह जो विधि-निषेध की मर्यादा है , इसको महापुरुषों ने जीवों के कल्याणार्थ व्यवहार के लिये मान्यता दी है। जब यह भौतिक सृष्टि नहीं थी तब भी भगवान थे और इसके लीन होने पर भी भगवान रहेंगे । इस तरह से जब वास्तविक भगवत्तत्त्व का बोध हो जाता है तब भौतिक सृष्टि की सत्ता भगवान में ही लीन हो जाती है अर्थात् इस सृष्टि की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि संसार की स्वतन्त्र सत्ता न रहने पर संसार मिट जाता है उसका अभाव हो जाता है बल्कि अन्तःकरण में सत्यत्वेन जो संसारकी सत्ता और महत्ता बैठी हुई थी जो कि जीव के कल्याण में बाधक थी वह नहीं रहती। जैसे सोने के गहनों की अनेक तरह की आकृति और अलग-अलग उपयोग होने पर भी उन सबमें एक ही सोना है ऐसे ही भगवद्भक्त के द्वारा अनेक तरह का यथायोग्य सांसारिक व्यवहार होने पर भी उन सब में एक ही भगवत्तत्त्व है ऐसी अटलबुद्धि रहती है। इस तत्त्व को समझने के लिये ही 29वें और 30वें श्लोक में समग्ररूप का वर्णन हुआ है।(2) उपासना की दृष्टि से भगवान के प्रायः दो रूपों का विशेष वर्णन आता है – एक सगुण और एक निर्गुण। इनमें सगुण के दो भेद होते हैं । एक सगुण-साकार और एक सगुण-निराकार परन्तु निर्गुण के दो भेद नहीं होते । निर्गुण निराकार ही होता है। हाँ , निराकार के दो भेद होते हैं । एक सगुण-निराकार और एक निर्गुण-निराकार। उपासना करने वाले दो रुचि के होते हैं । एक सगुणविषयक रुचि वाला होता है और एक निर्गुणविषयक रुचिवाला होता है परन्तु इन दोनों की उपासना भगवान के सगुण-निराकार रूप से ही शुरू होती है जैसे परमात्मप्राप्ति के लिये कोई भी साधक चलता है तो वह पहले परमात्मा है, इस प्रकार परमात्मा की सत्ताको मानता है और वे परमात्मा सबसे श्रेष्ठ हैं , सबसे दयालु हैं । उनसे बढ़कर कोई है नहीं । ऐसे भाव उसके भीतर रहते हैं तो उपासना सगुणनिराकार से ही शुरू हुई। इसका कारण यह है कि बुद्धि प्रकृति का कार्य (सगुण) होने से निर्गुण को पकड़ नहीं सकती। इसलिये निर्गुण के उपासक का लक्ष्य तो निर्गुण-निराकार होता है पर बुद्धिसे वह सगुण-निराकारका ही चिन्तन करता है (टिप्पणी प0 445)। सगुण की ही उपासना करने वाले पहले सगुणसाकार मानकर उपासना करते हैं परन्तु मन में जब तक साकाररूप दृढ़ नहीं होता तब तक प्रभु हैं और वे मेरे सामने हैं ऐसी मान्यता मुख्य होती है। इस मान्यतामें सगुण भगवान की अभिव्यक्ति जितनी अधिक होती है उतनी ही उपासना ऊँची मानी जाती है। अन्त में जब वह सगुण-साकार रूप से भगवान के दर्शन भाषण स्पर्श और प्रसाद प्राप्त कर लेता है तब उसकी उपासना की पूर्णता हो जाती है। निर्गुण की उपासना करने वाले परमात्मा को सम्पूर्ण संसार में व्यापक समझते हुए चिन्तन करते हैं। उनकी वृत्ति जितनी ही सूक्ष्म होती चली जाती है उतनी ही उनकी उपासना ऊँची मानी जाती है। अन्त में सांसारिक आसक्ति और गुणों का सर्वथा त्याग होने पर जब मैं तू आदि कुछ भी नहीं रहता केवल चिन्मयतत्त्व शेष रह जाता है तब उसकी उपासना की पूर्णता हो जाती है। इस प्रकार दोनों की अपनी-अपनी उपासना की पूर्णता होने पर दोनों की एकता हो जाती है अर्थत् दोनों एक ही तत्त्व को प्राप्त हो जाते हैं (टिप्पणी प0 446.1)। सगुण-साकार के उपासकों को तो भगवत्कृपा से निर्गुण-निराकारका भी बोध हो जाता है ‘मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा।।’ (मानस 3। 36। 5) निर्गुण-निराकार के उपासक में यदि भक्ति के संस्कार हैं और भगवान के दर्शन की अभिलाषा है तो उसे भगवान के दर्शन हो जाते हैं अथवा भगवान को उससे कुछ काम लेना होता है तो भगवान अपनी तरफ से भी दर्शन दे सकते हैं। जैसे निर्गुण-निराकार के उपासक मधुसूदनाचार्य जी को भगवान ने  अपनी तरफसे दर्शन दिये थे (टिप्पणी प0 446.2)। (3) वास्तव में परमात्मा सगुण-निर्गुण , साकार-निराकार सब कुछ हैं। सगुण-निर्गुण तो उनके विशेषण हैं , नाम हैं। साधक परमात्मा को गुणों के सहित मानता है तो उसके लिये वे सगुण हैं और साधक उनको गुणों से रहित मानता है तो उसके लिये वे निर्गुण हैं। वास्तव में परमात्मा सगुण तथा निर्गुण दोनों हैं और दोनों से परे भी हैं परन्तु इस वास्तविकता का पता तभी लगता है जब बोध होता है। भगवान के सौन्दर्य , माधुर्य , ऐश्वर्य , औदार्य आदि जो दिव्य गुण हैं , उन गुणों के सहित सर्वत्र व्यापक परमात्मा को सगुण कहते हैं। इस सगुण के दो भेद होते हैं (1) सगुण-निराकार जैसे आकाश का गुण शब्द है पर आकाश का कोई आकार (आकृति) नहीं है इसलिये आकाश सगुण-निराकार हुआ। ऐसे ही प्रकृति और प्रकृति के कार्य संसार में परिपूर्णरूप से व्यापक परमात्मा का नाम सगुण-निराकार है।(2) सगुण-साकार वे ही सगुण-निराकार परमात्मा जब अपनी दिव्य प्रकृति को अधिष्ठित करके अपनी योगमाया से लोगों के सामने प्रकट हो जाते हैं , उनकी इन्द्रियों के विषय हो जाते हैं तब उन परमात्मा को सगुणसाकार कहते हैं। सगुण तो वे थे ही , आकृतियुक्त प्रकट हो जाने से वे साकार कहलाते हैं। जब साधक परमात्मा को दिव्य अलौकिक गुणों से भी रहित मानता है अर्थात् साधक की दृष्टि केवल निर्गुण परमात्मा की तरफ रहती है तब परमात्मा का वह स्वरूप निर्गुण-निराकार कहा जाता है। गुणों के भी दो भेद होते हैं (1) परमात्मा के स्वरूपभूत सौन्दर्य , माधुर्य , ऐश्वर्य आदि दिव्य अलौकिक अप्राकृत गुण और (2) प्रकृति के सत्त्व ,रज और तम गुण। परमात्मा चाहे सगुण-निराकार हों चाहे सगुण-साकार हों , वे प्रकृति के सत्त्व , रज और तम तीनों गुणों से सर्वथा रहित हैं , अतीत हैं। वे यद्यपि प्रकृति के गुणों को स्वीकार कर के सृष्टि की उत्पत्ति , स्थिति और प्रलय की लीला करते हैं , फिर भी वे प्रकृति के गुणों से सर्वथा रहित ही रहते हैं (गीता 7। 13)। जो परमात्मा गुणों से कभी नहीं बँधते , जिनका गुणों पर पूरा आधिपत्य होता है , वे ही परमात्मा निर्गुण होते हैं। अगर परमात्मा गुणों से बँधे हुए और गुणों के अधीन होंगे तो वे कभी निर्गुण नहीं हो सकते। निर्गुण तो वे ही हो सकते हैं जो गुणों से सर्वथा अतीत हैं और जो गुणों से सर्वथा अतीत हैं । ऐसे परमात्मा में ही सम्पूर्ण गुण रह सकते हैं। इसलिये परमात्मा को सगुण-निर्गुण , साकार-निराकार आदि सब कुछ कह सकते हैं। ऐसे परमात्मा का ही 29वें , 30वें श्लोकों में समग्ररूप से वर्णन किया गया है।अध्यायसम्बन्धी विशेष बात- भगवान ने इस अध्याय में पहले परिवर्तनशील को अपरा और अपरिवर्तनशील को परा नाम से कहा (7। 4 5)। फिर इन दोनों के संयोग से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति बतायी और अपने को सम्पूर्ण संसार का प्रभव और प्रलय बताया अर्थात् संसार के आदि में और अन्त में केवल मैं ही रहता हूँ यह बताया (7। 6 7)। उसी प्रसङ्ग में भगवान ने सत्रह विभूतियों के रूप में कारणरूप से अपनी व्यापकता बतायी (7। 8 12)। फिर भगवान ने कहा कि जो तीनों गुणों से मोहित है अर्थात् जिसने निरन्तर परिवर्तनशील प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है वह गुणों से पर मेरे को नहीं जान सकता (7। 13)। यह गुणमयी माया तरने में बड़ी दुष्कर है। जो मेरे शरण हो जाते हैं वे इस माया को तर जाते हैं (7। 14) परन्तु जो मेरे से विमुख होकर निषिद्ध आचरणों में लग जाते हैं वे दुष्कृती मनुष्य मेरे शरण नहीं होते (7। 15)। अब यहाँ 14वें श्लोक के बाद ही 16वाँ श्लोक कह देते तो बहुत ठीक बैठता अर्थात् 14वें श्लोक में शरण होने की बात कही तो अब शरण होने वाले चार तरह के होते हैं । ऐसा बताने से श्रंखला बहुत ठीक बैठती परन्तु 15वाँ श्लोक बीच में आ जाने से प्रकरण ठीक नहीं बैठता। अतः यह श्लोक प्रकरण के विरुद्ध अर्थात् बाधा डालने वाला मालूम देता है परन्तु वास्तव में यह श्लोक प्रकरण के विरुद्ध नहीं है क्योंकि यह श्लोक न आने से पापी मेरे शरण नहीं होते यह कहना बाकी रह जाता। इसलिये 15वें श्लोक में दुष्कृति (पापी) मेरे शरण होते ही नहीं यह बात बता दी और 16वें श्लोक में शरण होने वालों के चार प्रकार बता दिये। अब जो शरण होते हैं उनके भी दो प्रकार हैं । एक तो भगवान को भगवान समझकर अर्थात् भगवान की महत्ता समझकर भगवान के शरण होते हैं ( 7। 16 19) और दूसरे भगवान को  साधारण मनुष्य मानकर देवताओं को सबसे बड़ा मानते हैं इसलिये भगवान का आश्रय न लेकर कामनापूर्ति के लिये देवताओं के शरण हो जाते हैं (7। 20 23)। देवताओं के शरण में होने में भी दो हेतु या कारण होते हैं । कामनाओं का बढ़ जाना और भगवान की महत्ता को न जानना। इनमें से पहले हेतु या कारण का वर्णन तो 20वें से 23वें श्लोक तक कर दिया और दूसरे हेतु का वर्णन 24वें श्लोक में कर दिया। जो भगवान को साधारण मनुष्य मानते हैं उनके सामने भगवान प्रकट नहीं होते । यह बात 25वें श्लोक में बता दी। अब ऐसा असर पड़ता है कि भगवान भी माया से ढके होंगे। अतः भगवान कहते हैं कि मेरा ज्ञान ढका हुआ नहीं है (7। 26)। मेरे को न जानने में राग-द्वेष ही मुख्य कारण हैं (7। 27)। जो इस द्वन्द्वरूप मोह से रहित होते हैं , वे दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं (7। 28)। जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैं , वे मेरे समग्ररूप को जान जाते हैं और अन्त में मेरे को ही प्राप्त होते हैं (7। 29 30)। इस अध्याय पर आदि से अन्त तक विचार करके देखें तो भगवान के विमुख और सम्मुख होने का ही इसमें वर्णन है। तात्पर्य है कि जडता की तरफ वृत्ति रखने से मनुष्य बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं। अगर वे जडता से विमुख होकर भगवान के सम्मुख हो जाते हैं तो वे सगुण-निराकार , निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार , ऐसे भगवान के समग्ररूप को जानकर अन्त में भगवान को  ही प्राप्त हो जाते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

इस प्रकार ‘ॐ तत् सत्’ इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें ज्ञानविज्ञानयोग नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।7।।

 

 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥7॥

 

 

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