अध्याय सात: ज्ञान विज्ञान योग
दिव्य ज्ञान की अनुभूति द्वारा प्राप्त योग
20- 23 अन्य देवताओं की उपासना और उसका फल
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥7.21॥
यःयः-जो जो; याम् याम्- जिस जिस; तनुम्- के रूप में; भक्तः-भक्त; श्रद्धया -श्रद्धा के साथ; अर्चितुम्-पूजा करना; इच्छति–इच्छा; तस्य-तस्य-उसकी; अचलाम्-स्थिर; श्रद्धाम्-श्रद्धा; ताम्-उस; एव–निश्चय ही; विदधामि-प्रदान करना; अहम्–मैं।
जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ॥7.21॥
‘यो यो यां यां तनुं भक्तः ৷৷. तामेव विदधाम्यहम्’ जो-जो मनुष्य जिस-जिस देवता का भक्त होकर श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन करना चाहता है , उस-उस मनुष्य की श्रद्धा उस-उस देवता के प्रति मैं अचल (दृढ़) कर देता हूँ। वे दूसरों में न लगकर मेरेमें ही लग जाएँ , ऐसा मैं नहीं करता। यद्यपि उन-उन देवताओं में लगने से कामना के कारण उनका कल्याण नहीं होता , फिर भी मैं उनको उनमें लगा देता हूँ। तो जो मेरे में श्रद्धा-प्रेम रखते हैं , अपना कल्याण करना चाहते हैं , उनकी श्रद्धा को मैं अपने प्रति दृढ़ कैसे नहीं करूँगा अर्थात् अवश्य करूँगा। कारण कि मैं प्राणिमात्र का सुहृद् हूँ ‘सुहृदं सर्वभूतानाम् ‘ (गीता 5। 29)। इस पर यह शङ्का होती है कि आप सबकी श्रद्धा अपने में ही दृढ़ क्यों नहीं करते ? इस पर भगवान मानो यह कहते हैं कि अगर मैं सबकी श्रद्धा को अपने प्रति दृढ़ करूँ तो मनुष्यजन्म की स्वतन्त्रता , सार्थकता ही कहाँ रही ? तथा मेरी स्वार्थपरता का त्याग कहाँ हुआ ? अगर लोगों को अपने में ही लगाने का मेरा आग्रह रहे तो यह कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि ऐसा बर्ताव तो दुनिया के सभी स्वार्थी जीवों का स्वाभाविक होता है। अतः मैं इस स्वार्थपरता को मिटाकर ऐसा स्वभाव सिखाना चाहता हूँ कि कोई भी मनुष्य पक्षपात करके दूसरों से केवल अपनी पूजा-प्रतिष्ठा करवाने में ही न लगा रहे और किसी को पराधीन न बनाये। अब दूसरी शङ्का यह होती है कि आप उनकी श्रद्धा को उन देवताओं के प्रति दृढ़ कर देते हैं इससे आपकी साधुता तो सिद्ध हो गयी पर उन जीवों का तो आपसे विमुख होनेसे अहित ही हुआ। इसका समाधान यह है कि अगर मैं उनकी श्रद्धा को दूसरों से हटाकर अपने में लगानेका भाव रखूँगा तो उनकी मेरे में अश्रद्धा हो जायगी परन्तु अगर मैं अपने में लगाने का भाव नहीं रखूँगा और उनको स्वतन्त्रता दूँगा तो उस स्वतन्त्रता को पाने वालोंमें जो बुद्धिमान् होंगे वे मेरे इस बर्ताव को देखकर मेरी तरफ ही आकृष्ट होंगे। अतः उनके उद्धार का यही तरीका बढ़िया है।अब तीसरी शङ्का यह होती है कि जब आप स्वयं उनकी श्रद्धा को दूसरों में दृढ़ कर देते हैं तो फिर उस श्रद्धा को कोई मिटा ही नहीं सकता। फिर तो उसका पतन ही होता चला जायगा । इसका समाधान यह है कि मैं उनकी श्रद्धा को देवताओं के प्रति ही दृढ़ करता हूँ , दूसरों के प्रति नहीं ,ऐसी बात नहीं है। मैं तो उनकी इच्छा के अनुसार ही उनकी श्रद्धा को दृढ़ करता हूँ और अपनी इच्छाको बदलने में मनुष्य स्वतन्त्र है , योग्य है। इच्छा को बदलने में वे परवश , निर्बल और अयोग्य नहीं हैं। अगर इच्छा को बदलने में वे परवश होते तो फिर मनुष्य जन्म की महिमा ही कहाँ रही और इच्छा (कामना) का त्याग करने की आज्ञा भी मैं कैसे दे सकता था ? ‘जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्’ (गीता 3। 43)- स्वामी रामसुखदास जी